Piece of Land: जमीन का टुकड़ा

Piece of Land
Piece of Land: जमीन का टुकड़ा
Piece of Land: पूरे बीस बरस बाद-अपने गांव लौटना उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था। शाम के धुंधलके में जब वह गांव से थोड़ी दूर मोटर से उतरा तो एक अजीब-सी अनुभूति से भर उठा। गांव को कभी वह छोड़ेगा, इसकी कल्पना भी उसने नहीं की थी, जब वह जवान था, थोड़ी-सी भावुकता में वह गांव छोड़ गया था। गांव पटेल की लड़की से उसका विवाह हो गया और वह इंदौर चली गयी। उसके लिये अब गांव वीरान हो गया था, कहीं दिल नहीं लगता था। घर से दो सौ रुपये लेकर एक चिट्ठी लिखकर बिना कुछ कहे वह चला गया था।
शहर में दो सौ रुपये कपूर की तरह उड़ गये और उसे मिली परेशानी और भूख, लेकिन उसके मन में एक ही इच्छा थी, वह जिस शहर में रहता है वहां उसकी प्रेयसी तो है। कभी तो दिखेगी, कभी तो मिलेगी। भूखा रहा किन्तु गांव नहीं लौटा। खराब समय था, वह भी चला गया, छोटा-सा सहारा मिला। उसने भी उस सहारे को थाम लिया। देखते-देखते दिन बरसों में बदल गये। एक अच्छी खासी संपत्ति का वह मालिक बन गया। एक दिन वह कार से कहीं जा रहा था, तब ही दृष्टि सड़क पर दो बच्चों के साथ अपने पति को लिये खुश-खुश उसकी प्रेयसी पर पड़ी। लगा चलती कार के सामने कोई बड़ा पत्थर आ गया हो कार नहीं रुकी, न उसने ड्राइवर को रुकने को कहा। उसी दिन उसे लगा गांव ही नही, शहर भी मनुष्य के प्रेम को लील लेता है और टूटन की पीड़ा को वह सहता चुपचाप अपने दिनों को काटने लगा।
काम का बोझ अधिक था। उसका रक्तचाप भी अधिक रहने लगा था। चिकित्सकों ने उसे आराम करने की सलाह दी किन्तु आराम उसके जीवन में कहां था। कभी-कभी सपनों में उसे अपने खेत, घर, पिताजी, माताजी का चेहरा याद आ जाता था। वह इन सबसे मुक्त भी नहीं हो पाता था कि अचानक भैया-भाभी का चेहरा याद आ जाता था। न जाने घर का क्या हाल होगा। न जाने गांव, खेत कैसे होंगे, जब भी स्मृतियों का दंश उसे डंसता वह कई दिनों तक परेशान रहता। उसे इस बात की प्रसन्नता होती कि इस शहरी संपत्ति के अतिरिक्त गांव में भी उसकी संपत्ति है। जहां उसकी जड़ें हैं, वह जब भी चाहेगा जाकर रह सकता है, फिर एक दिन अचानक घबराहट, सीने के दर्द के बाद डॉक्टरों ने उसको आराम करने की हिदायत दे दी। दु:खी मन से उसने अपने निजी व्यक्तियों को सारा काम बतलाया और शहर से गाड़ी में बैठकर रातभर का रास्ता काटा और प्रात: स्टेशन से बस पकड़ी तो शाम को वह अपने गांव में उतर पाया था। न जाने इतने बरसों में उसके जीवन से कितना कुछ चला गया। वही रास्ता, वही पगडंडियां।
उसने अटैची उठाई और आगे बढ़ने लगा। गांव में विशेष कोई फर्क नहीं पड़ा था। घर के सामने पहुंचा, घर में पूर्व से थोड़ा सुधार हो चुका था। बाहर बरामदे में माताजी बैठी थीं। पास में कम रोशनी का बल्ब जल रहा था। (उसके जाने के समय गांव में बिजली नहीं थी)। माताजी के हाथ में माला थी, वह गुरिया घुमा रही थीं। उसने अटैची रखी और जाकर सामने खड़ा हो गया। कितनी झुर्रियां चेहरे पर आ गयी थीं, सिर के बाल सफेद हो गये थे। वह जब छोटा था, तब माताजी के सफेद बाल तोड़ता था। बदले में माताजी उसे बासी रोटी का लड्डू बनाकर खिलाती थीं। माताजी ने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई कुछ चौंक पड़ीं और पूछा कौन है। मैं हूं।
चश्मे के पीछे से असफल पहचानने का प्रयास करते हुये माताजी ने पूछा
किससे मिलना है?
किसी से नहीं तुमसे मिलने ही आया था।
क्या काम है।
वह अपने को संभाल न सका और वहीं पांव के पास बैठकर घुटनों में सिर देकर फूट-फूटकर रोने लगा। रोने का कंपन और भींगे स्वरों को माताजी ने पहचान लिया और एकदम चौंक पड़ीं क्यों रे तू छोटू तो नहीं है?
हां अम्मा मैं ही हूं।
माताजी ने कांपते हाथों से उठाया और गले से लगाकर स्वयं भी रोने लगीं। रोते-रोते मैंने माताजी के चेहरे को ध्यान से देखा तो चौंक पड़ा, माताजी के माथे पर लाल टीका, गले में मंगलसूत्र नहीं था, मैंने भरार्ये गले से ही पूछा- अम्मा, बाबूजी… मैं पूरा वाक्य भी नहीं कर पाया था कि अम्मा ने रोते हुए ही कहा-तेरी याद करते-करते प्राण त्याग दिये। अरे तूने एक चिट्ठी भी नहीं डाली। क्या हम इतने गैर हो गये थे?
बाबू के विषय में मालूम पड़ते ही और तरल हो उठा वह। पिताजी की न जाने कितनी मीठी-तीखी स्मृतियां मस्तिष्क में आईं और चली गईं। वह हर स्मृति पर रोता रहा। उसे नहीं लगा कि वह अभी भी माताजी के सामने वही छोटा-सा छोटू हूं। वह अभी पीड़ा के इस भाव से उभर भी नहीं पाया था कि भाभी आश्चर्य में दरवाजे पर आकर खड़ी हो गयीं। उसने आंसू पोंछते हुये उनके पांव छुए। वे कुछ झिझकीं फिर एकदम से पहचानकर कह उठीं- अरे तू। उनका तू कहना मुझे बहुत भाया, तब ही एक दस-बारह साल का लड़का एवं उसके साथ पांच-सात साल की एक लड़की अपरिचित से आकर खड़े हो गये। Piece of Land
भाभी ने उन्हें कहा- तुम्हारे चाचा हैं नमस्ते करो। दोनों ने हाथ जोड़कर नमस्ते किया। नेत्रों में कहीं पहचान का कोई सूत्र नहीं था। भाभी ने अटैची उठायी माताजी के साथ वह घर के भीतर आया। हाथ-पांव धोकर पलंग पर बैठा था कि दरवाजे पर बड़े भैया आकर खड़े हो गये। एक-दो क्षण वह उन्हें देखता रहा। उन्होंने आगे बढ़कर उसे अपने सीने से लगा लिया। भैया कितने दुबले हो गये थे। आंखों के नीचे गड्ढे, खिचड़ी बाल, गर्दन के नीचे हड्डियां निकल आई थीं। कुछ समय तक उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, न वह पूछने की स्थिति में रहा।
रात को बड़े दिनों बाद भाभी के हाथ का बना भोजन वहीं रसोई में बैठकर किया। साथ में माताजी भी थीं, जो दूध में रोटी गलाकर खा रही थीं। बच्चे पूर्व में ही भोजन कर चुके थे। पूरे परिवार में किसी ने अभी तक उसके जीवन के बीस वर्षों का हिसाब-किताब नहीं पूछा था, न ही वह बता सकने की स्थिति में था। भोजन करके वह थकान के कारण शीघ्र सो गया। प्रात: उसकी नींद देर से खुली। माताजी ने भी जगाना उचित नहीं समझा था। उठकर लगा तबियत हल्की हो गयी है। हाथ-मुंह धोकर भैया के विषय में पूछा तो ज्ञात हुआ, भैया खेत पर चले गये हैं। उसने नाश्ता किया और बड़े भैया के बड़े पुत्र जिसका नाम अनिल था, उसे लेकर खेत पर निकल गया।
गांव की हालत पूर्व की तरह ही थी। विशेष कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। उसके आने का समाचार अनिल एवं भैया- भाभी द्वारा प्रात: से ही फैला दिया गया था परिणामस्वरूप कई जगह रोककर उसका हालचाल पूछा जा रहा था। एक-दो बुजुर्गों ने तो ‘घरवाली को क्यों नहीं लायेझ् भी पूछ लिया था। वह हंसकर आगे बढ़ गया था। कुछ प्रश्न बड़े स्वाभाविक होते हैं किन्तु उसके उत्तर उतने ही विषम होते हैं। वह प्रश्न उसके सीने में कांटे की तरह चुभकर पीड़ा देता रहा और वह उसी स्थिति में खेत पर पहुंचा। भैया खेत में कीटनाशक औषधि डाल रहे थे। दूर-दूर तक फैली खेत की हरियाली मन को मोह रही थी। Piece of Land
उसने भैया से कहा- लाइये, मुझे तसला दे दें, मैं उड़ा देता हूं।
नहीं रे तू तो बैठ। कहकर वे आगे बढ़ गये, फिर उसने पूछा- भैया अपने खेत और बढ़े हैं या…?
तेरे जाने के बाद कुल जमा पांच एकड़ खेत और खरीदा है। अब अपने खेत चालीस एकड़ हो गये हैं।
कहां से कहां तक खेत हैं?
उन्होंने अपने लड़के को आवाज देकर कहा- अनिल, जा तेरे काका को खेत दिखा ला।
वह अनिल के साथ हो लिया और पूरा खेत देखकर विचार आया कि बड़े भैया ने पिछले बरसों में काफी मेहनत की है। घर चलाने के अतिरिक्त थोड़ी जमीन भी बना ली है। वह वहीं से घर को लौट आया। वह पटवारी से मिलकर पिताजी की कोई और जमीन-जायदाद तो नहीं है, का पता लगा लेना चाह रहा था। उसने अपना विचार अनिल को बताया। उसी ने तुरंत सामने साइकिल से आते पटवारी को दिखलाया। उसने पटवारी दादा को रोका। जेब से सौ का नोट निकालकर दिया और जमीन की बात की। नक्शा बगैरह बनवाने की चर्चा की। उसने एक-दो दिन में पूरा काम निपटा देने का आश्वासन दिया।
वह घर लौटा तो भाभी गाय को चारा डालती बाहर ही दिखाई दे गयीं। वह अंदर चला गया। (Piece of land) अनिल वहीं बाहर रुक गया। अनिल ने खेत जानने की पटवारी से मिलकर जो चर्चा की थी उसे एक जासूस की तरह कह दिया। शाम को भैया से भेंट हुई उस दिन का पूरा समय आराम से कट गया। प्रात: मैं शीघ्र उठ गया था किन्तु पूरे परिवार के सदस्यों के व्यवहार में एक तनाव व्याप्त था। अम्मा भी बात तो कर रही थीं किन्तु ऐसा लगा वह पुरानी अम्मा नहीं होकर कुछ तेज समझदार मां हो गयी है। दो दिनों पश्चात पटवारी घर पर ही आ गया। उसने कागज, नक्शे वगैरह दिये। मैंने उसे सौ का एक नोट और दिया। कागज, नक्शे आदि को भाभी छिपकर दरवाजे की आड़ में से देख रही थीं।
अगले दिन प्रात: वह तहसील कार्यालय के लिये निकला तो गांव के पुराने परिचित मिल गये। उन्हें मैंने कह दिया कि घर पर बता देना मैं तहसील कार्यालय जा रहा हूं। पूरा दिन तहसील कार्यालय में व्यतीत किया। चरमराती सरकारी कार्यवाहियों से उलझा और परेशान थका हुआ शाम को लौटा। घर में आते ही उसने कागजों को अटैची में रख दिया और विचार किया प्रात: भैया से चर्चा कर लूंगा। हाथ-मुंह धोकर भोजन करने बैठ गया। दोनों भतीजे उससे बड़े सहमे-सहमे थे। भाभी भी विशेष कुछ नहीं बोल रही थीं। अम्मा हाथ में तुलसी की माला लेकर बाहर बैठ गयी थीं। उसने खाना खाते हुये भैया से कहा-कल मैं शहर जाने की सोच रहा हूं।
कुछ और रुकते। थोड़ा काम अधिक है। ठीक है।
इससे अतिरिक्त कोई चर्चा नहीं हुई। रात में जब सोया तो अनायास आंखों में आंसू भर आये, कब तक ये आंसू बहकर तकिये को गीला करते रहे, नहीं जानता। प्रात: वह जल्दी उठ गया और तैयार हो गया। सब दरवाजे तक छोड़ने आये थे किन्तु व्यवहार में आत्मीयता नहीं थी। इन सबको क्या हो गया, नहीं जान पाया। अचानक ध्यान आया, उसने अटैची खोली और जायदाद के कागज निकाले और भैया से कहा- भाई साहब, आपसे कुछ कहना है, कागज देखकर उनका मुख मलिन हो गया। वे उसके साथ एक तरफ हो गये। लगा कि उनके धीरज का बांध टूटने वाला है। तब ही उसने कहा पिताजी के खेत, घर जो कुछ चल-अचल संपत्ति थी, वह आपके नाम कर दी है। शायद अब मेरा आना गांव में हो या न हो, इसलिये तहसील से सब पक्के कागज तैयार करवा लाया हूं। कहकर उसने उन्हें कागज थमा दिये। भैया, जो अब तक चुप थे इतने जोर से रो उठे कि वह स्वयं दंग रह गया। आवाज सुनकर भाभी भी उस ओर आ गयीं। भैया को जोर से रोता देखकर वह नहीं समझ पायीं कि क्या हुआ है?
भैया के हाथ में कागज थे, उसने उनकी पीठ पर हाथ रखा। अम्मा के, भाभी के चरण छूकर तुरंत बाहर निकल आया। मोटर मिल गयी थी। शहर की ओर जा रहा था कि कुछ थोड़ा बहुत गांव से जुड़ा था, वह भी आज टूट गया। अच्छा हुआ उनका भ्रम भी खत्म हुआ और पूरे परिवार का मुझे लेकर जो डर था वह भी। क्या शहरी आदमी वास्तव में इतना प्रदूषित हो चुका है, जितना गांव वाले सोचते हैं। बस तेज गति से उसके गांव से दूर प्रतिपल ले जा रही थी। भैया के आंसू की नमी वह अभी तक अपने भीतर अनुभव कर रहा था।
डॉ. गोपाल नारायण आवटे

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