(सच कहूँ न्यूज) भारत में यात्राओं का चलन पुराना है बस उद्देश्य भिन्न-भिन्न रहे हैं। कुछ यात्राएं कुछ किलोमीटर में सिमटी रहीं तो कईयों ने देशव्यापी रुख को अख्तियार किया। कुछ यात्राएं देश निर्माण से जुड़ी थीं तो कुछ देश को एकजुट करने, तो कुछ सियासी रुख से युक्त रही हैं। 7 सितम्बर 2022 से शुरू कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा राहुल गांधी की अगुवाई में जब प्रारम्भ हुई तो इसे लेकर शायद ही किसी ने बड़ी सकारात्मकता से युक्त दृष्टिकोण रखा हो। मगर जैसे-जैसे यात्रा निरंतरता लेती रही इससे जुड़ी भ्रांतियां भी कमजोर होती चली गयीं। सियासत का शायद यही परिप्रेक्ष्य है कि राजनेता जो भी करता है उसमें राजनीति शामिल हो जाती है। भारत जोड़ो यात्रा इस राजनीतिक गहमा-गहमी से मुक्त नहीं रही है।
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मगर इस सवाल से भी मुक्त नहीं है कि क्या यह यात्रा कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम करेगी। सुलगता सवाल यह है कि अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस ने पद यात्रा के पुराने इतिहास और उसमें व्याप्त सफलता दर को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा दांव तो चला ही है। पड़ताल बताती है कि ऐसी यात्राओं ने देश की राजनीतिक तस्वीर को एक नया अस्तित्व तो दिया है और कभी-कभी तो यह सत्ता की कुर्सी तक भी पहुंच बनाने में कमोबेश मददगार सिद्ध हुई है। फिलहाल कन्याकुमारी से शुरू होकर 12 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों से गुजरते हुए जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में 30 जनवरी 2023 को खत्म होने वाली लगभग 150 दिवसीय भारत जोड़ो यात्रा जिसकी कुल लम्बाई 3570 किलोमीटर की कही जा रही है इसने राहुल गांधी के कद को तुलनात्मक बड़ा तो किया है। प्रशासनिक विचारक चेस्टर बर्नार्ड ने नेतृत्व के बारे में जो कहा है उसमें तीन बिन्दु आवश्यक है एक नेता, दूसरा अनुयायी और तीसरा परिस्थितियां होती हैं। हालांकि बर्नार्ड महान व्यक्ति सिद्धांत के अन्तर्गत यह भी बताया है कि नेता पैदा होते हैं जबकि सीखने के व्यवहार से भी श्रेश्ठ नेता बनना सम्भव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा से बहुत कुछ सीखे जरूर होंगे।
गौरतलब है कि साल 2014 से देश की सियासत में बड़ा परिवर्तन आया और यह परिवर्तन कई उम्मीदों से भरा था मगर जैसे-जैसे वर्ष बीतते गये उम्मीदें भी पूरी करने में मौजूदा सरकार नाकाफी ही सिद्ध हुई। हालांकि सरकारों का मानसपटल ही ऐसा होता है कि मानो जनता की नजरों में वे कभी पूरी तरह खरी शायद ही उतर पाती हो। ऐसे में मतदाता या देश के नागरिक नई राह और नई उम्मीद को अंकुरित करते हैं अन्तत: भारत जोड़ो जैसी यात्राएं पुन: एक उम्मीद से उन्हें भर देती हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि मजबूत सरकारें जो करते हुए दिखाती हैं असल में वो करती नहीं है। लोकतंत्र के भीतर लोक सशक्तिकरण का धारा प्रवाह होना अच्छी सरकार की पहचान है।
यदि देश में बेरोजगारी, महंगाई आदि से निजात समेत समावेशी विकास को उच्चस्थिती नहीं मिलती है तो सरकारों पर उंगली उठना स्वाभाविक है। भारत जोड़ो यात्रा ऐसी ही खामियों के चलते सशक्त आयाम से युक्त हो जाती है और सरकार के लिए चुनौती का काम भी करने लगती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में निष्पादित इस लम्बी यात्रा ने उनके व्यक्तित्व और नेतृत्व दोनों को जनता के सामने खड़ा कर दिया है। लाभ किस रूप में मिलेगा इसका मूल्यांकन आगामी चुनावों से सम्भव है। हालांकि राहुल गांधी के विरोधी इसे अपने लिए चुनौती मानने से परहेज करेंगे मगर यह यात्रा आने वाली राजनीति में एक हस्ताक्षर के तौर पर जनता के सामने तो पेश होता ही रहेगा। माना तो यह भी जाता है कि बिखरते हुए कांग्रेस पार्टी को एक सूत्र में बांधने को लेकर राहुल गांधी भारत यात्रा पर निकले और सरकार के सामने एक चुनौती पेश करना चाहते थे। मगर सफलता दर क्या होगी यह आने वाला समय बताएगा।
राजीव गांधी, लाल कृष्ण आडवाणी और चन्द्रशेखर जैसे लोगों ने कुछ ऐसी ही यात्राएं पहले भी की हैं। जो कुछ हद तक तस्वीर बदलने के काम आयी और सत्ता तक पहुंचने का जरिया भी बनी। वैसे देखा जाये तो आजाद भारत में इस तरह की यात्रा 1951 में आचार्य विनोबा भावे, 1982 में एनटी रामाराव की चैतन्य रथ यात्रा, 1983 में पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर और 2003 में वाईएसआर रेड्डी समेत 2013 की चन्द्रबाबू नायडू की यात्रा को देखा जा सकता है। इसके अलावा साल 2017 में दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा भी कुछ इसी संदर्भ से युक्त थी। इन यात्राओं का स्वरूप उत्तर, मध्य व दक्षिण भारत में भले ही बंटा था मगर इनका इतिहास कहीं अधिक शानदार होता है।
आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में तो पदयात्रा सरकार बनाने का सटीक फॉर्मूला सिद्ध हुई। गौरतलब है कि साल 1989 के चुनाव में हार मिलने के बाद राजीव गांधी सियासी जमीन को मजबूत बनाने की फिराक में 1990 में भारत यात्रा की शुरूआत की थी मगर उनके किस्मत में सफलता नहीं आई। जबकि इसके लिए उन्होंने ट्रेन की सेकण्ड क्लास बोगी में यात्रा की थी। साल 2002 में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात गौरव यात्रा की और सत्ता में वापसी की। विदित हो कि अपने पद से इस्तीफा देने और गुजरात विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने से लगभग 9 महीना पहले सदन को भंग करने की सिफारिश के बाद मोदी ने गुजरात के लोगों के गौरव की अपील हेतु सितम्बर 2002 में यह यात्रा शुरू की थी। नतीजन चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता वापसी की अब दोबारा शपथ लिया।
1990 के दशक में एक और यात्रा ने देश की राजनीति में उछाल ला दिया था और सभी जानते हैं कि यह सोमनाथ से अयोध्या तक की वो रथयात्रा थी जिस पर भाजपा के वयोवृद्ध नेता लाल कृष्ण आडवाणी सवार थे। हालांकि 25 सितम्बर को शुरू इस यात्रा को बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया गया था और रोकने वाले बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव थे। मण्डल की राजनीति के खिलाफ कमण्डल के दांव के साथ चली इस यात्रा ने जो सियासी तूफान लाया वह आने वाले दिनों में सत्ता की कुर्सी हिलाने और सत्ता तक पहुंचने का काम किया। गौरतलब है कि बीपी सिंह सरकार इसी दौरान गिरी थी। फिर चन्द्रशेखर की सरकार आयी वह भी नहीं चल सकी, फिर 1991 में कांगे्रस की सरकार बनी लेकिन उसके बाद सरकारों के आने और जाने का खेल 1999 तक चलता रहा।
मजबूत सरकार देश की आवश्यकता है तो बिना किसी कमजोरी के विपक्ष भी इसी लोकतंत्र का अंग है। मौजूदा समय में सरकार मजबूत है मगर विपक्ष निहायत कमजोर। पिछले दो लोकसभा चुनाव से तो मान्यता प्राप्त विपक्ष का भी अभाव हो गया है। जिस कांग्रेस की 75 साल की आजादी में 55 साल की सत्ता रही हो आज वो इतनी कमजोर है कि हाशिये पर खड़ी है। भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस को फलक पर कितना लायेगी इसे कहना कठिन है मगर इसका मुनाफा न मिले ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता।
यात्रा का इतिहास इसके अलावा भी कई और मिल जायेंगे जो सियासी पैतरे से कम-ज्यादा युक्त देखे जा सकते हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा सियासी तौर पर क्या बदलाव लायेगी यह कहना मुश्किल है मगर कांगेस और स्वयं राहुल गांधी के लिए यह भारतीय राजनीति में मददगार सिद्ध हो सकती है। राहुल गांधी का कद तुलनात्मक बढ़ सकता है और यात्रा से मिली सीख से गंभीर राजनीति का अवसर भी उनके लिए संभव होगा। भारत के लोकतंत्र में सरकार एक पक्ष है, जबकि विपक्ष एक अनिवार्य पहलू है। (यह लेखक के अपने विचार हैं) डॉ. सुशील कुमार सिंह वरिष्ठ स्तंभकार एवं प्रशासनिक चिंतक
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