प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्ती योजनाओं की श्रृखंला में एक और योजना शामिल हो गई। यह योजना है स्वामित्व योजना। मोदी काल में पहले से ही कई योजनाएं चल रही हैं जिनमें उज्जवला योजना, स्वच्छ भारत योजना और जन-धन योजना शामिल हैं।
इस योजना की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उनकी अन्य योजनाओं की तरह यह स्वामित्व योजना भी मील का पत्थर साबित होगी और देश में करोड़ों लोगों को अपनी जमीन और घर का स्वामित्व मिलेगा। हर योजना का अर्थ परोपकार होता है, वंचित और खारिज कर दिये गये लोगो को अधिकार देना तथा उन्हें लाभान्वित करना होता है। जाहिर तौर पर इस योजना का अभी अर्थ और लक्ष्य वैसे व्यक्ति को स्वामित्व देने का कार्य करना है जिनके पास जमीन तो, घर तो है पर उस पर उनका कानूनी अधिकार नहीं है।
कहने और देखने में यह स्पष्ट जरूर होता है कि यह योजना वंचित वर्ग को अधिकार देने वाली है, उनकी भविष्य की चिंताओं का समाधान करने वाली है, उन्हें लंबे समय से कानूनी प्रक्रियाओं से उलझने और लड़ाई -झगड़े से बचाने का कार्य है पर इस योजना को लागू करने के क्षेत्र में कितनी कठिनाइयां हैं, कितना दुरूह कार्य है, इस पर अभी तक कोई स्पष्ट राय सामने नहीं आयी है। महत्वपूर्ण योजना लाना और योजना की घोषणा करना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है, महत्वपूर्ण तो योजना को ईमानदारी पूर्ण, भष्टचार मुक्त और सहजता के साथ लागू करना होता हैं ।
देश में अब तक जितनी भी योजनाएं आयी हे सबके सब में बेईमानी हुई, भ्रष्टचार हुआ, आमजन को योजनाओं का लाभ उठाने के रास्ते कठिन बनाये गये, पात्र लोगों का वंचित ही रखा गया, अपात्र और पहुंच वाले येन-केन-प्रकारेण योजनाओं का लाभ उठाने में सफल हो गये। दूर-दराज के क्षेत्रों में बैंकों के बेईमान कर्मचारियों ने जन-धन का खाता खोलने में रिश्वत खाई थी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि स्वामित्व योजना भी सहज और भ्रष्टचार मुक्त होगी? ऐसे अपनी किसी भी योजना के पक्ष में प्रशंसा करना और उसे जनकल्याणकारी बताना हर सत्ता का प्रिय कार्य होता है, इसलिए योजनाओं की घोषणा के तुरंत बाद ही इसकी सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
फिर भी इस योजना को लेकर केंद्र सरकार की प्रशंसा में कोई हर्ज नहीं है, कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं होनी चाहिए। सत्ता चाहे किसी भी व्यक्ति की हो, सत्ता चाहे किसी भी विचारधारा की क्यों न हो, अगर वह कोई कल्याणकारी और वंचित समाज को लाभ-अधिकार देने वाली योजनाओं का श्रीगणेश करती है तो फिर उसका स्वागत किया जाना चाहिए, समर्थन किया जाना चाहिए, यह लोकतंत्र का मूल सिद्धांत होना चाहिए।
हम तो कांग्रेस राज के सूचना अधिकार का भी उसी तरह से समर्थन करते हैं और हर नागरिक को भी उसी तरह से समर्थन करना चाहिए जिस तरह से हम केंद्र सरकार के उज्जवला योजना, जन-धन योजना और स्वच्छ भारत योंजना और अन्य योजनाओं का करते हैं। निश्चित तौर पर सूचना के अधिकार से भ्रष्टचार पीड़ितों को न्याय मिला है। अब यहां एक प्रश्न यह उठता है कि स्वामित्व योजना को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा क्यों होनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वह एक ऐसे प्रश्न का हल करने के लिए आगे आये हैं जिस प्रश्न के बोझ से करोड़ों लोग दबे हुए थे और पीड़ित थे।
वास्तव में स्वामित्व के अधिकार का प्रश्न हल करने में हमने बहुत ही देरी कर दी है, इस देरी की कीमत कितनी चुकायी गयी है उसका अब तक कोई हिसाब-किताब नहीं है, हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों ने जान देकर कीमत चुकायी है, कानूनी झगड़ों में अपनी आजीविका की कमाई भस्म की है। आजादी की प्राप्ति के बाद ही इस प्रश्न का हल खोज लेना चाहिए था। यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण था। आजादी के बाद हमारे जिन शासकों ने भी शासन किया उनके राजनीतिक एजेंडे से यह प्रश्न दूर था। भारत गांवों का देश है, इसीलिए यह कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। यह भी सही है कि गांवों की जनता शिक्षा से दूर थी, शिक्षा के वंचित होने के कारण गांव के लोग सरकारी कागजों या फिर स्वामित्व के अधिकार के अर्थ से अनभिज्ञ थे। उनकी सोच यह थी कि उन्हें कोई भी उनके घर और उनकी जमीन से वचित नही कर सकता है। जिस जमीन को वह पुर्खे दर पुर्खे जोतते-कोड़ते आये हैं और जिस घर में वे रहते आये हैं उस पर तो उनका परमपरागत अधिकार है और उनके इस अधिकार से कोई भी वंचित नहीं कर सकता है।
यह भी सही है कि आज से बीस-तीस साल पूर्व तक गांवों में जमीन की कोई किल्लत नहीं थी, गांव के लोगों के पास जीविका चलाने के लिए प्रर्याप्त भूमि थी, बहुत सारी भूमि परती रह जाती थी। इसलिए जमीन या घर के लिए कोई मारा-मारी नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे विकास की जरूरतें बढ़ी, जनसंख्या बढ़ी। विकास की जरूरतें बढने और जनसंख्या बढ़ने से उसके दुष्परिणाम भी तरह-तरह के सामने आने लगे। विकास के लिए जमीन कम पडने लगी। इसके अलावा खेती की महत्ता भी बढ़ गयी, परमपरागत खेती की जगह व्यावासायिक खेती ने ले ली। इसलिए जमीन पर कब्जा के लिए कानूनी अहतार्एं जरूरी हो गयीं।
जमीन पर स्वामित्व के लिए कानूनी अहतार्एं वैसे लोग ही पूरी कर सकें जो आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर मजबूत थे और जिनकी पहुंच सत्ता तथा प्रशासनिक स्तर पर अति मजबूत थीं। ऐसे सवंर्ग के लोग जैसे-तैसे कर स्वामित्व के कागजत हासिल कर लिए। पर वैसे लोग पीड़ित बन गये जो स्वामित्व के कागज हासिल नहीं कर सके। खासकर आदिवासी सवंर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुए। जंगलों में रहने वाले आदिवासी कभी भी सरकारी कागजों के पीछे नहीं भागे। यह सही है कि आदिवासियों का पूरा जीवन ही जंगलों पर निर्भर था। वे समूह में रहते थे जहां पर कभी सरकारी कर्मचारी भी नहीं पहुंच पाते थे। जब से जंगलों का राष्ट्रीयकरण हुआ और टाइगर प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई तब से आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर दिया गया।
आज भी जंगलों के आस पास रहने वाले लाखों आदिवासियों के पास उनकी सम्पत्ति के कागजात नहीं हैं , उनके पास जमीन भी है और घर भी है पर उसके कानूनी कागजात नहीं हैं। आदिवासियों के जंगल, जल और जमीन पर अधिकार को लेकर लंबी लडाई भी जारी है। इस पर राजनीतिक बहसें भी होती रहती हैं। पर यह विषय अभी तक वैसे ही है जैसे आजादी के पूर्व में था। ये स्वामित्व योजना आदिवासियों को कितना लाभ देगी, यह नहीं कहा जा सकता है?
स्वामित्य योजना का एक खतरा भी है और इस खतरे पर केन्द्रीय सरकार को ध्यान देना चाहिए। स्वामित्व योजना लाभ आतंकवादी संगठन और विदेशी घुसपैठी भी उठा सकते हैं। देश के अंदर में आतंकवादी संगठन जगह-जगह पर कब्जा कर बैठे हैं , खासकर सरकारी भूमि पर आतंकवादी मानसिकता के लोग अवैध कब्जा कर बैठे हुए हैं, इसके अलावा विदेशी घुसपैठिये भी सरकारी जमीन पर कब्जा कर बैठे हुए हैं। दिल्ली, मुबंई और अन्य सभी बड़े शहरों के पास विदेशी घुसपैठिये कब्जा जमाये बैठे हैं। इनके पास अवैध तौर पर एक नागरिक के अवैध कागजात भी हैं। आतंकवादी संगठनों और विदेशी घुसपैठियों की मानसिकता इस योजना से पुष्ट न हो, यह व्यवस्था होनी चाहिए। इस संबंध में योजना से संबंधित दिशानिर्देश भी जारी किया जाना चाहिए। यह योजन गेम चेंजर तभी साबित होगी जब यह योजना ईमानदारीपूर्वक लागू होगी, भ्रष्टचार मुक्त लागू होगी और इनकी सरकारी कार्यवाहियां आसान होगी।
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