Organic Farming : प्रकृति संतुलन का आधार- जैविक खेती

Organic Farming

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जैविक खेती (Organic Farming) कृषि की वह प्रवृत्ति है जिससे पर्यावरण के स्वच्छ एवं प्राकृतिक संतुलन को कायम रखते हुए भूमि, जल और वायु को प्रदूषित किये बिना लंबे समय तक संतोषजनक उत्पादन प्राप्त किया जाता है। इस पद्धति में रसायनों का प्रयोग कम से कम एवं आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। इसमें मिट्टी को एक जीवित माध्यम माना गया है। मिट्टी में असंख्य लाभदायक जीव रहते हैं जो एक-दूसरे के पूरक होते हैं तथा पौधों की वृद्धि हेतु पोषक तत्व भी उपलब्ध कराते हैं। अत: इस पद्धति में मिट्टी को स्वस्थ एवं जीवित रखते हुए प्रकृति में उपलब्ध अन्य मित्र जीवों के मध्य तालमेल रखकर खेती करनी होती है।

इसके लिए खेत की आवश्यकतानुसार जुताई की जाये क्योंकि अधिक जुताई भी लाभदायक जीवों को नष्ट कर देती है। अच्छी फसल के लिए मिट्टी का स्वस्थ रहना आवश्यक है। मिट्टी की स्वस्थता से मतलब है कि उसमें जितने अधिक जीवाणु होंगे, वह मिट्टी उतनी ही स्वस्थ मानी जावेगी। ये जीवाणु फसल के अवशेष जैसे जड़, डंठल, पत्तियां, कचरे को सड़ा-गलाकर झूमस में परिवर्तित करते हैं और मिट्टी में खनिज को भी घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर फसल को उपलब्ध कराते हैं। इसके साथ इन जीवों को सड़ने-गलने से भी मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है। कृषि का आधार जीवांश है। जीवांश से भूमि जीवित रहती है। जीवांश से भूमि पर विपरीत असर डालने वाले कारक विघटित हो जाते हैं। वे पौधों एवं जीवों के लिए पर्याप्त मुख्य एवं अल्प पोषण तत्व उपलब्ध कराते हैं। भू-क्षरण का बचाव करते हैं, इससे जल के रिसाव व संवर्धन की क्षमता में वृद्धि होती है।

रासायनिक खेती के कारण अनेक स्थानों पर मिट्टी की गुणवत्ता व सजीवता तथा सूक्ष्म जीवों की संख्या में कमी आ रही है तथा भुरभुरी मिट्टी का भयावह रूप से क्षरण हुआ है। हरित क्रांति के दौरान भारत वर्ष में कृषि का विकास बहुत तेजी से हुआ है और हमारे देश के खाद्यान्नों के उत्पादन में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। आज की खेती मुख्यत: रासायनिक खादों पर ही निर्भर रहने लगी है। आधुनिक खेती से हमारी कृषि योग्य भूमि में अब अन्य तत्वों की कमी के साथ-साथ मृदा संरचना एवं स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता एवं स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक उर्वरकों का प्रयोग भी संतुलित रूप में करने की अत्यंत आवश्यकता है।

तरल जैविक उर्वरक लाभकारी जीवाणुओं के वह उत्पाद हैं, जो लम्बी अवधि तक सक्रिय रहकर मिट्टी व हवा से मुख्यत: सूक्ष्म तत्वों का दोहन कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं। प्राकृतिक संतुलन कायम रखती है जैविक खेती जिसका आधार जीवांश है। जीवांश को जलाकर नष्ट नहीं करें अन्यथा उसकी ऊर्जा समाप्त हो जाती है। प्राचीन समय में भारत की कृषि की गौरवशाली उपलब्धियों में गोवंश की अहम भूमिका रही है। पशुधन अर्थ तंत्र की धुरी थी वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है व साथ में पर्यावरण सुरक्षित रखने में सक्षम भी है। ग्रीनपीस के सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 98 प्रतिशत कृषक जैविक खाद का उपयोग करना चाहते हैं।

गोवंश के अतिरिक्त पेड़-पौधों, पक्षी, मेंढक, उल्लू, केंचुए आदि प्राकृतिक संतुलन के साथ उत्पादन स्तर उच्च स्तर पर रखने में सहायक होेते हैं। इस धरती को लाखों पौधों की जातियो ंने संवारा है। मानव सभ्यता के इतिहास में केवल सात हजार जातियों का ही भोजन के रूप में प्रयोग होने का उल्लेख मिलता है। जिनमें धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, आलू सोयाबीन, गन्ना आदि प्रमुख हैं। इन प्रमुख जातियों के अतिरिक्त पौधों की अन्य जंगली किस्में भी हैं। जिन्हें विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में विशेषत: प्रगतिशील देशों में प्रयोग में लाया जाता है। इन सब पादप जन्य द्रव्यों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है क्योंकि भोजन, चारा, रेशा, र्इंधन आदि की आवश्यकता मानव उपयोग के लिए सदैव बनी रहेगी। उक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए जैविक खेती प्रकृति संतुलन का आधार है। अत: हर व्यक्ति पर्यावरण प्रहरी बने।

-(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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