सीसीए विरोध में गच्चा खाएगा विपक्ष

Opposition will defeat on CAA
Opposition will defeat on CAA

दिल्ली, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के अलीगढ़, लखनऊ, इलाहाबाद में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की वजह यह है कि इसे मुस्लिमों के खिलाफ माना जा रहा है। लोगों में डर है कि इस बिल के चलते उनकी नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। कांग्रेस सहित कुछ प्रमुख विपक्षी दल इस कानून के खिलाफ हैं। राहुल गांधी, ममता बनर्जी, औबेसी, अरविन्द केजरीवाल, अखिलेश यादव और वामपंथी दलों के नेताओं के बयानों से कानून के विरोध को हवा मिल रही है। इस बिल में देश के मुस्लिम नागरिकों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है।

 

भाजपा की केन्द्र सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में धारा 370 समाप्ति, और तीन तलाक कानून बनाकर यह साबित कर दिया है कि वह बिना पक्की तैयारी के आगे कदम नहीं बढ़ाती। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में भी लगभग अपनी सोच के अनुरूप भाजपा को सफलता मिली। भाजपा को यह मालूम था कि जो कानून वह बना रही है, वह विपक्षी दलों के गले नहीं उतरेगा और उसके विरोध में वे भ्रामक प्रचार करने के साथ ही अराजकता पैदा करने वाली स्थिति पैदा करेंगे। कुछ हद तक उक्त तीनों मामलों में हुआ भी, लेकिन कुछ समय में मामला शान्त पड़ गया। कुछ इसी तरह का मामला सीसीए और एनआरसी को लेकर हो रहा है। वही एनआरसी जिसे किसी वक्त कांग्रेस लागू करना चाहती थी और उसके मुताबिक उस समय भाजपा के विरोध के कारण वह लागू नहीं कर पाईं। अब जबकि भाजपा ने उसे लागू करने के लिए संसद में कानून बना दिया है। राज्य सभा में उठा-पटक चल रही है। उसी कानून का आज सबसे ज्यादा विरोध कांग्रेस कर रही है। विपक्षी दलों में तूणमूल कांग्रेस, आप, समाजवादी पार्टी जैसे कई दल है, जो इसे भुनने के लिए दुष्प्रचार कर मुद्दे को हवा दे रहे है। हालांकि माना यह जा रहा है कि जिस पिच पर विपक्षी दल खेल रहे है, उनका एम्पायर स्वंय गृहमंत्री अमित शाह है। सरकार इस मुद्दे में विपक्ष को बेनकाब करने की ओर बढ़ रही है। सरकार का यह सोचना कतई गलत नहीं कि जिस देश में रहना है, उस देश के कानून का न मानना राष्ट्र विरोधी गतिविधि है। यह बात देश की जनता समझ रही है। यही कारण है कि विरोध का स्वरूप धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
दिल्ली, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के अलीगढ़, लखनऊ, इलाहाबाद में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की वजह यह है कि इसे मुस्लिमों के खिलाफ माना जा रहा है। लोगों में डर है कि इस बिल के चलते उनकी नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। कांग्रेस सहित कुछ प्रमुख विपक्षी दल इस कानून के खिलाफ हैं। राहुल गांधी, ममता बनर्जी, औबेसी, अरविन्द केजरीवाल, अखिलेश यादव और वामपंथी दलों के नेताओं के बयानों से कानून के विरोध को हवा मिल रही है। इस बिल में देश के मुस्लिम नागरिकों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। इस कानून से उनका कोई संबंध नहीं है। लेकिन, कुछ लोगों में यह डर है कि इस बिल की वजह से उनकी नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी।
हालांकि देश में जो हालात हैं, उनको देखते हुए कहा जा सकता है कि यह बयान काफी देर से आया है, हालांकि चीजों को यह कितना दुरुस्त कर पाएगा, इस बारे में अभी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के बारे में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में जो बयान दिया, वह लिखित में है और संसद में दिए गए मंत्री के लिखित बयान का अपना एक महत्व होता है। अन्य बयानों की तरह इसमें न तो बाद में यह कहने की कोई आशंका होती है कि बातों को गलत तरह से पेश किया गया और न विरोधियों के लिए ही कोई संभावना बनती है कि वे बात को तोड़-मरोड़कर उसकी कोई अलग व्याख्या पेश करें। गृह राज्यमंत्री ने एनआरसी के बारे में जो लिखित बयान दिया, उसमें कोई नई बात नहीं है। सिर्फ इतना ही कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी जैसी कोई कवायद कराने की केंद्र सरकार की फिलहाल कोई योजना नहीं है। यह लगभग यही बात कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली की अपनी एक जनसभा में कही थी। प्रधानमंत्री जब जनसभा में कुछ कहते हैं, तो उसका एक महत्व होता है, लेकिन बहुत से लोगों ने उस बात पर यकीन नहीं किया था।
हालांकि यूरोपीय संसद में लाए गए किसी प्रस्ताव का कोई मूल्य-महत्व नहीं है और इसे यूरोपीय समुदाय ने भी स्पष्ट कर दिया है, फिर भी देश में कुछ लोग यह रेखांकित करने में लगे हुए हैं, जैसे भारत के हितों के खिलाफ कोई बड़ी अंतरराष्ट्रीय पहल होने जा रही है। कुछ तो ऐसे भी हैं, जो यूरोपीय समुदाय और यूरोपीय संसद में भेद करने की भी जहमत नहीं उठा रहे हैं। जाहिर है कि ऐसा इसीलिए किया जा रहा है, क्योंकि इससे ही उनके संकीर्ण राजनीतिक हित सध रहे हैं। किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में यूरोपीय संसद की ओर से पारित प्रस्ताव एक ज्ञापन से अधिक महत्व नहीं रखते। वहां से पारित प्रस्ताव जिस यूरोपीय समुदाय को विचार के लिए दिए जाते हैं, उसके प्रमुख देश पहले ही यह कह चुके हैं कि नागरिकता कानून भारत का आंतरिक मामला है। इसीलिए उसकी ओर से हर संभव तरीके से दुष्प्रचार का सहारा लिया जा रहा है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ऐसा इसीलिए किया जा रहा है, ताकि शाहीन बाग जैसे धरनों को खाद-पानी मिलता रहे। राजधानी दिल्ली में यह धरना एक ऐसी सड़क पर कब्जा करके दिया जा रहा है, जिसके बाधित होने से लाखों लोगों को परेशानी हो रही है। विपक्ष इससे परिचित है, लेकिन पता नहीं क्यों वह आम जनता की इस परेशानी में ही अपनी जीत देख रहा है? इससे इन्कार नहीं कि सीएए पर विपक्ष को गहरी आपत्ति है, लेकिन इसमें संदेह है कि वह अपनी आपत्ति दर्ज कराने को लेकर गंभीर है। इसका प्रमाण यह है कि वह सीएए के साथ ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर पर भी आपत्तियां दर्ज करा रहा है। वह ऐसा तब कर रहा है, जब दस साल पहले एनपीआर की कवायद की जा चुकी है। आखिर जो काम पहले भी हो चुका है, उसे लेकर सवाल खड़े करने का क्या मतलब? विचित्र है कि विपक्षी दल एक ओर यह चाह रहे हैं कि संसद में सीएए पर फिर बहस हो और दूसरी ओर उनकी ओर से इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई है।
क्या यह उचित नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा की जाए? आखिर जो मसला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन है, उस पर संसद में बहस करने का क्या मतलब? यह भी ध्यान रहे कि सीएए के खिलाफ एक बड़ी संख्या में याचिकाएं विपक्षी दलों की ओर से ही दायर की गई हैं। बेहतर होगा विपक्ष इस पर गौर करे कि सीएए पर उसने जैसा नकारात्मक रवैया अपना लिया है, वह केवल लोगों को भ्रमित करने वाला ही नहीं, बल्कि शासन करने के अधिकार को बाधित करने वाला भी है। ऐसे में अगर सरकार संविधान के मुताबिक दण्डात्मक कार्रवाई पर उतर आए तो यह विरोध प्रदर्शन कितने दिन चल पाएगा। वाकई इतने विरोध प्रदर्शन के बाद भी सरकार का जो सकारात्मक रवैया है, वह सराहनीय है।

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