देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि किसी बिल पर विपक्षी दल द्वारा सरकार को समर्थन देने के कुछ घंटों बाद उसे गलत करार देकर कोसना शुरू कर दिया हो। पंजाब में इन दिनों कृषि कानूनों व किसान आंदोलन को लेकर खूब नाटक हो रहा है। गत दिवस पंजाब विधानसभा में पंजाब की कांग्रेस सरकार ने केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों को रद्द कर नए बिल पेश किए थे, जिसे विपक्ष में बैठी आम आदमी पार्टी व शिरोमणी अकाली दल ने सर्वसम्मति से पास किया था। बिलों की मंजूरी देने के लिए दोनों पार्टियों के विधायक दल के नेता मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह के साथ राज्यपाल वीपी बदनौर से मिले, किंतु देर शाम विपक्षी दल आम आदमी पार्टी का बयान आया कि पंजाब सरकार लोगों को मूर्ख बना रही है, दूसरे दिन यही कुछ अकाली दल ने कर दिया।
यहां बड़ा सवाल यह है कि विपक्षी दलों की विचारधारा का प्रस्ताव कमजोर है या राजनीतिक पैंतरेबाजी हो रही है या फिर ये पार्टियां राजनीतिक व संसदीय तौर-तरीकों में गलती कर रही हैं। पहले विधानसभा व फिर बाहर आकर ‘आप’ व ‘अकाली दल’ द्वारा बिलों पर सहमति देना सही था, लेकिन कुछ घंटों बाद ही उसे गलत करार दे देना किसानों के समर्थन में नहीं है। यह विरोध बेहद चिंताजनक व हैरानीजनक है, जो नेताओं की काबलियत पर सवाल खड़े करता है। सदन की मर्यादा के मुताबिक विपक्ष के विधायक स्पीकर को विनती कर या विरोध कर या वॉकआउट कर किसी भी प्रकार से किसान विरोधी बिल को पास करने में अपनी असहमति जता सकते थे। अकाली दल ने ये गलती चंद दिनों में दूसरी बार की है। केंद्रीय कृषि अध्यादेश जारी होने के बाद शिरोमणी अकाली दल कई सप्ताह तक यही प्रचार करता रहा कि यह किसानों के समर्थन में हैं, फिर जब किसानों ने विरोधी सुर अपनाना शुरू किया तब महीने भर बाद अकाली दल भी अध्यादेशों के खिलाफ आवाज उठाने लगा।
अकाली दल ने अपने किसान हितैषी होने का प्रमाण देने के लिए केंद्र में मंत्री की कुर्सी भी छोड़ दी और पंजाब भाजपा से नाता भी तोड़ लिया। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या दोनों विरोधी पार्टियां कांग्रेस सरकार को बिलों का श्रेय मिलने से यू-टर्न ले रही हैं या बिलों में तकनीकी कमियां व विधायी प्रणाली में इन्हें पास करने में कहीं भूल हैं। इनमें से किसी भी एक बिंदू पर विपक्ष की सहमति दोनों पार्टियों के लिए मुश्किल पैदा करती है लेकिन कृषि जैसे गंभीर मुद्दे पर ऐसे भ्रम राजनीतिक पार्टियों के लिए महंगे पड़ सकते हैं, विशेष रूप से उन परिस्थितियों में जब किसानों ने मान लिया कि बिल उनके हक में हैं।
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