बीते सात वर्षों से विपक्षी दल न केवल एक नारे की तलाश में हैं, बल्कि एक ऐसे नेता की खोज भी कर रहे हैं, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सके। लेकिन न तो उन्हें साझा आधार मिल रहा है, न ही एजेंडा। बीते सप्ताह कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी, वर्चुअली ही सही, उन्हें इस उद्देश्य के साथ एक साथ लायीं कि 2024 में भाजपा और मोदी को हटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। हालांकि विपक्षी पार्टियां संसद में सरकार को घेर रही हैं हैं, लेकिन बाहर उनमें बहुत कम समन्वय है। यह पहली बार है कि 19 पार्टियों के नेताओं ने केंद्र सरकार के खिलाफ जमीनी स्तर से आंदोलन खड़ा करने के लिए बातचीत की है।
उन्होंने आंदोलन की रूप-रेखा और उसके नेतृत्व के बारे में निर्देश देने से परहेज किया है। फिर भी, यह पहल 2024 के चुनाव प्रचार की औपचारिक शुरूआत थी। इसके केंद्र में ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, एमके स्टालिन, हेमंत सोरेन, शरद पवार, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी और जयंत चौधरी रहे। इसमें कांग्रेस, टीएमसी, एनसीपी, डीएमके, शिव सेना, जेएमएम, सीपीआइ, सीपीएम, नेशनल कांफ्रेंस, आरजेडी, एआइयूडीएफ, वीसीके, लोकतांत्रिक जनता दल, जेडीएस, आरएलडी, आरएसपी, केरल कांग्रेस (एम), पीडीपी और आइयूएमएल की भागीदारी रही। आप, टीआरएस, एआइएडीएमके, बीएसपी और बीजेडी को नहीं आमंत्रित किया गया था तथा फिलहाल अखिलेश यादव ने भी इस बैठक से दूर रहने का निर्णय किया।
सोनिया गांधी ने बातचीत को दिशा दी और कांग्रेस ने यह स्पष्ट किया कि वह नेतृत्व की भूमिका नहीं चाह रही है। बैठक में सोनिया गांधी ने कहा कि वास्तविक लक्ष्य 2024 का चुनाव है और हमें एक ऐसी सरकार बनाने के लिए कृतसंकल्प होना चाहिए, जो स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों तथा हमारे संविधान के सिद्धांतों व प्रावधानों में आस्था रखती हो।
श्रीमती गांधी 2004 की अपनी रणनीति को फिर से लागू करना चाहती हैं, जब उन्होंने शरद पवार जैसे अपने सबसे खराब राजनीतिक शत्रुओं से समझौता किया था। उस समय भाजपा के लिए लिए कोई स्पष्ट खतरा या करिश्माई अटल बिहारी वाजपेयी का विकल्प नहीं दिख रहा था। लेकिन 13 वर्षों के वनवास के बाद सोनिया गांधी कांग्रेस को अग्रणी भूमिका में लाने में कामयाब रही थीं।
उनके गठबंधन प्रयोग ने 2009 में और भी बड़ा फायदा दिया, जब उनकी पार्टी को 200 से अधिक सीटें मिलीं। साल 2004 में भाजपा हारी क्योंकि उसके कुछ शीर्षस्थ नेताओं के अपने बूते जीत जाने के घमंड के कारण क्षेत्रीय सहयोगियों ने साथ छोड़ दिया था। विपक्षी पार्टियां आज वैसी स्थिति में फिर हैं, जब शिव सेना और अकाली दल जैसे भाजपा के पुराने सहयोगी एनडीए छोड़ चुके हैं। विपक्ष पर नजर रखनेवालों के अनुसार, मोदी विरोधी बीते छह साल में उनकी गिरती लोकप्रियता को भी देख रहे हैं।
बीते सात वर्षों में मोदी ने भारत के राजनीतिक और सामाजिक परिवेश को बहुत हद तक बदल दिया है। यह तो समय ही बतायेगा कि क्या दिमागों की एकता लड़ाई के मैदान में दिल की एकता में भी बदलेगी। लेकिन एक कड़वे अतीत वाले एक बेहतर विपक्ष के साथ निश्चित रूप से भारत एक बदलाव के मुहाने पर है।