ओडीओपी योजना से स्थानीय उत्पादों को मिलेगा बढ़ावा

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ओडीओपी स्कीम के तहत प्रदेश सरकार ने 5 वर्षों में 2500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता के जरिये 25 लाख लोगों को रोजगार दिलाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस स्कीम से उत्तर प्रदेश की जीडीपी में 2 फीसद की वृद्धि की संभावना जताई गई है। इस योजना से एक ओर जहां ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी, वहीं दूसरी तरफ स्थानीय उत्पादों के लिए राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय बाजार के द्वार खुलेंगे। 

बीते दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आरंभ की गई ओडीओपी (एक जनपद:एक उत्पाद) योजना को पूरे देश में लागू करने की बात कही। दरअसल उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा यह योजना जनवरी, 2018 को प्रारंभ की गई थी। मोदी सरकार को यह योजना बहुत पसंद आई है। केंद्र सरकार अब इस योजना के दायरे का विस्तार कर इसे केंद्रीय स्तर पर लागू करने पर विचार कर रही है। माना जा रहा है कि इससे न सिर्फ कारीगरों और शिल्पकारों अपितु किसानों की भी आय बढ़ाने में सहायता मिलेगी।

गौरतलब है कि ओडीओपी स्कीम का मकसद उत्तर प्रदेश में विशिष्ट पारंपरिक उत्पाद औद्योगिक केंद्रों की स्थापना कर उन पारंपरिक उद्योगों का विस्तार करना है, जो राज्य के संबंधित जनपदों के पर्याय हों। इस योजना के तहत उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जनपद को एक विशिष्ट उत्पाद या कला से जोड़कर उसे प्रोत्साहित किया जा रहा है। किसी क्षेत्र के खास उत्पाद एवं हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने से उस कला या उत्पाद विशेष को तो नया जीवन मिल ही रहा है, इससे संबद्ध कारीगरों के जीवन में भी बदलाव आ रहा है।

ओडीओपी स्कीम के तहत प्रदेश सरकार ने 5 वर्षों में 2500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता के जरिये 25 लाख लोगों को रोजगार दिलाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस स्कीम से उत्तर प्रदेश की जीडीपी में 2 फीसद की वृद्धि की संभावना जताई गई है। इस योजना से एक ओर जहां ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी, वहीं दूसरी तरफ स्थानीय उत्पादों के लिए राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय बाजार के द्वार खुलेंगे। उत्तर प्रदेश देश का एक ऐसा राज्य है, जिसका हस्तशिल्प उत्पादों के निर्यात में 44 फीसद की हिस्सेदारी है। उत्तर प्रदेश के हर जनपद को किसी विशेष कला एवं उत्पाद के लिए जाना जाता है।

हालांकि सरकारी उपेक्षा, महंगी बिजली, बाजारों में चाईनीज उत्पादों की भरमार और इन उत्पादों की मांग में कमी आने तथा प्रोत्साहन के अभाव में कई परंपरागत उद्योग अब लुप्त होने की कगार पर हैं। कारीगर पीढ़ियों से अपने आस-पास उपलब्ध संसाधन से कोई न कोई खास उत्पाद को तैयार तो कर रहे हैं, लेकिन तकनीक एवं पूंजी की कमी के चलते वह बदलते बाजार की प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते हैं। देश में ऐसे अनगिनत स्थानीय उद्योग हैं, जिनकी पहचान एक सशक्त कुटीर उद्योग के रूप में रही है। लेकिन, अब हालात ये हैं कि जो परिवार वर्षों से इन व्यवसाय से जुड़े रहे हैं, आज उनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट आ गया है! यही वजह है कि बड़ी संख्या में इन उद्योगों में शामिल लोगों का मोहभंग हो रहा है। हालांकि ओडीओपी योजना के लागू होने के बाद कारीगरों को अपने परंपरागत उद्योगों से जुड़े रहने की एक बड़ी वजह मिल गई है। प्रदेश सरकार ने वित्तीय सहायता प्रदान कर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की पहल की है।

प्रदेश सरकार की योजना के तहत जनपद की प्रसिद्धि बढ़ाने वाले चुनींदा उत्पादों को और अधिक तराशा जा रहा है, जिससे जनपदों की विशिष्टता बरकरार रहे तथा उससे जुड़े कारीगरों की रोजी-रोटी का स्थायी बंदोबस्त भी हो जाए। जिन जिलों में कोई विशिष्ट उद्योग नहीं है, वहां कृषि उत्पाद को ओडीओपी सूची में शामिल किया गया है। गौरतलब है कि मुजफ्फरनगर के गुड़ को ओडीओपी सूची में शामिल किया गया है, क्योंकि वहां गुड़ की एक सौ से भी किस्में तैयार होती हैं। सिद्धार्थनगर में उपजने वाले लंबे कद वाले काला नमक चावल, जिसे 2012 में भौगोलिक संकेतक (जीआई) टैग मिला है, उसे भी इस योजना से जोड़ा गया है। जब बात खुशबू और महक की होती है, तो सबसे पहले नाम कन्नौज का आता है।

कन्नौज की इसी ऐतिहासिक महक को देश-दुनिया में फैलाने के लिए इसे योजना से संबद्ध किया गया है। इसके अलावे अलीगढ़ का ताला, बनारस की सिल्क साड़ी, आगरा और कानपुर का चमड़ा उद्योग, अमरोहा का वाद्य यंत्र, आजमगढ़ में बनने वाली काली मिट्टी की कलाकृतियां, बदायूं और बरेली का जरी-जरदोजी उत्पाद, रायबरेली और बस्ती की काष्ठ कला, भदोही और मिजार्पुर का कालीन, चित्रकूट का लकड़ी के खिलौना, गोरखपुर का टेराकोटा, लखीमपुर-खीरी की जनजातीय शिल्प, लखनऊ की जरी-जरदोजी, मेरठ में निर्मित खेल सामग्री और पीलीभीत के बांसुरी आदि को भी इस योजना में शामिल किया गया है। इस तरह प्रदेश के सभी 75 जनपदों को किसी खास उत्पाद एवं कला से संबद्ध कर उसके उत्पादन और विपणन की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है।

जाहिर है, आने वाले समय में हर जनपद कुछ उत्पादों का हब बनकर उभरेगा। ‘एक जिला एक उत्पाद’ योजना भारत के किसी प्रदेश में पहली बार उत्तर प्रदेश में ही लागू की गई है। स्थानीय उत्पादों को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने तथा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए इस योजना को विश्व के कई देशों में गांव, उप-जिला, शहर अथवा जिला स्तर पर पहले भी लागू किया जा चुका है। इस तरह की योजना की अवधारणा सबसे पहले जापान में अपनाई गई थी। वहां वर्ष 1979 में सरकार ने इसे गांव स्तर पर लागू करते हुए ‘वन विलेज, वन प्रोडक्ट’ (एक गांव, एक उत्पाद) योजना व्यवहृत की थी, जो अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब रही थी। उसके उपरांत चीनी गणराज्य में 1989 में यह योजना ‘वन टाउन, वन प्रोडक्ट’ के नाम से लागू की गई। 2001 में थाईलैंड सरकार ने ‘वन टेंबोन, वन प्रोडक्ट’ योजना लांच कर इसे उप-जिला स्तर पर लागू किया था। इंडोनेशिया, फिलीपींस और मलेशिया सरकार द्वारा भी यह योजना विभिन्न रूपों में अपनायी गयी। भारत में प्राचीन काल से ही भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी ‘एक गांव, एक उत्पाद’ योजना के पक्षधर थे। वे अक्सर युवा उद्यमियों को गांवों में जाकर वहां के स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की अपील करते थे। चूंकि कुटीर उद्योग का ढांचा कम पूंजी के सहारे खड़ा किया जा सकता है और इसका उत्पादन प्राय: घर के सदस्यों के सहयोग से ही हो जाता है, इसलिए इस तरह के उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक लोकप्रिय रहे हैं। कम लागत में अधिक मुनाफा देने के अलावे यह परिवारों को आत्मनिर्भर भी बनाता है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि में लघु उद्योगों का महत्वपूर्ण योगदान है। महात्मा गांधी ने गांवों के विकास में लघु एवं कुटीर उद्योग की भूमिका को स्पष्ट करते हुए कहा था-‘जब तक हम ग्राम्य जीवन को पुरातन हस्तशिल्प के सम्बंध में पुन: जागृत नहीं करते, हम गांवों का विकास एवं पुनर्निर्माण नहीं कर सकेंगे।’अत: स्थानीय हस्तशिल्प कला एवं उत्पाद को सहेजने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

उत्तर प्रदेश में ओडीओपी योजना के जरिए स्थानीय शिल्प के संरक्षण एवं विकास पर विशेष बल दिया जा रहा है। प्रतिभाशाली शिल्पकारों को आर्थिक सहायता देकर उसकी दक्षता में वृद्धि करना भी योजना का महत्वपूर्ण मकसद है। इससे स्थानीय कला एवं तकनीक का विस्तार तो होगा ही। इससे शिल्पकारों तथा कारीगरों की आय में वृद्धि के साथ बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन का सृजन भी किया जाएगा। संरक्षण और प्रोत्साहन के अभाव में कई उत्पाद व कलाएं दम तोड़ देती हैं। इस तरह की योजना से उसे पुनर्जीवित किया जा सकेगा। इससे स्थानीय उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार एवं उससे जुड़े कारीगरों की दक्षता में वृद्धि होगी। स्थानीय उत्पादों को पर्यटन से जोड़ना तथा उसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाना आसान होगा।

आजादी के बाद आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता के विकास के लिए लघु उद्योगों के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। गौरतलब है कि 1948 ई. में देश में कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई तथा प्रथम पंचवर्षीय योजना(1951-56) में इन उद्योगों के विकास हेतु 42 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई, इसके पश्चात भी कई पंचवर्षीय योजनाओं और औद्योगिक नीतियों के माध्यम से कुटीर उद्योगों को संवारने की कोशिशें की गईं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जनपद स्तर पर विख्यात उत्पादों एवं शिल्प कला को प्रोत्साहन देने की यह योजना अत्यंत प्रगतिशील और रचनात्मक प्रतीत होती है। इस तरह की योजना राष्ट्रीय स्तर पर लागू हों, तो विलुप्त होने के कगार पर पहुंचे स्थानीय एवं परंपरागत उद्योगों को संवारने की कवायद तेज हो सकेगी।

सुधीर कुमार

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