दुष्यंत कुमार ने कहा था-हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। देश में बेरोजगारी एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान न होने से युवा सपनों पर अंधेरा छाया हुआ है, जो एक पीड़ा है, एक समस्या है। जिसका समाधान होना ही चाहिए। देश में 2017-18 में बेरोजगारी दर कुल उपलब्ध कार्यबल का 6.1 प्रतिशत रही, जो 45 साल में सर्वाधिक रही है। आम चुनाव से ठीक पहले बेरोजगारी से जुड़े आंकड़ों पर आधारित यह रिपोर्ट लीक हो गई थी और नरेन्द्र मोदी सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत में सरकार द्वारा जारी आंकड़ों में इसकी पुष्टि भी कर दी गई है। अब मोदी सरकार ने रोजगार पर कैबिनेट की एक समिति बनाई और कहा कि वह रोजगार पर बहुत बड़ा सर्वे करवाएगी जिसमें सभी काम-धंधे शामिल हो सकेंगे। अक्सर जब ऐसी बड़ी समस्याओं की भयावह तस्वीर सामने आती है तो इस तरह की समितियां बन जाती हैं। जो केवल तथ्यों का अध्ययन करती हैं कि कितने युवाओं को रोजगार मिला व कितने बेरोजगार रह गए। लेकिन प्रश्न है कि क्या यह समिति रोजगार के नये अवसरों को उपलब्ध कराने की दिशा में बिखरते युवा सपनों पर विराम लगाने का कोई माध्यम बनेगी?
मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों का चाहे जितना बखान करें, सच यह है कि आम आदमी की मुसीबतें एवं तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके बजाय रोज नई-नई समस्याएं उसके सामने खड़ी होती जा रही हैं, जीवन एक जटिल पहेली बनता जा रहा है। विकास की लम्बी-चोड़ी बातें हो रही हैं, विकास हो भी रहा है, देश अनेक समस्याओं के अंधेरों से बाहर भी आ रहा है। आम जनता के चेहरों पर मुस्कान भी देखने को मिल रही है, लेकिन युवा-चेहरे मुरझाए हुए हैं। देश में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, यह अर्थशास्त्रियों की मान्यता है। पर बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? एक और प्रश्न आम आदमी के दिमाग को झकझोरता है कि तब फिर विकास से कौन-सी समस्या घटती है?
भारत में भी विकास की बातें बहुत हो रही हैं, सरकार रोजगार की दिशा में भी आशा एवं संभावनाभरी स्वयं को जाहिर कर रही है। यह अच्छी बात है। लेकिन जब युवाओं से पूछा जाता है तो उनमें निराशा ही व्याप्त है। उनका कहना है कि बात केवल किसी भी तरह के रोजगार हासिल करने की नहीं है बल्कि अपनी मेहनत, शिक्षा, योग्यता और आकांक्षा के अनुरूप रोजगार प्राप्त करने की है। ऐसा रोजगार मिलना कठिन होता जा रहा है। उच्च शिक्षा एवं तकनीकी क्षेत्र में दक्षता प्राप्त युवाओं को सुदीर्घ काल की कड़ी मेहनत के बाद भी यदि उस अनुरूप रोजगार नहीं मिलता है तो यह शासन की असफलता का द्योतक हैं। डॉक्टर, सीए, वकील, एमबीए, ऐसी न जाने कितनी उच्च डिग्रीधारी युवा पेट भरने के लिये मजदूरी या ऐसे ही छोट-मोटे कामों के लिये विवश हो रहे हैं। उन्हें भी स्थायी के स्थान पर ठेका मजदूरी व अस्थायी मजदूरी के अवसर ही अधिक मिलते हैं। आॅटो चलाने या उद्योगों में चपरासी बनने में कोई बुराई नहीं है, पर ऐसा कोई युवा जिसने प्रशिक्षित रोजगार के लिए लंबे समय से मेहनत की है, वह इस तरह के काम करना कतई पसंद नहीं करेगा।
नये भारत को निर्मित करते हुए हमें शिक्षा एवं रोजगार के बीच संतुलित व्यवस्था स्थापित करनी होगी। सही गुणवत्ता के रोजगारों का पर्याप्त मात्रा में सृजन न होना शासन की एक बड़ी विफलता है। विफलता तो यह भी है कि आजादी के सत्तर सालों में हमने ऐसी उपलब्धियां हासिल नहीं की हंै कि अधिकतर युवाओं को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो। महंगे एवं निजी संस्थानों में किसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त कर भी ली तो रोजगार न मिलने से सब व्यर्थ गया। अब विवश होकर शिक्षित युवाओं को रोजगार के लिए भाग-दौड़ करनी पड़ती है। वे उच्च शिक्षा की डिग्रियों को एक तरफ रखकर जो भी रोजगार मिलता है, उसे पाने के लिये दौडधूप करते हैं। जब भी किसी भी सरकारी नौकरी चाहे वह पुलिस की हो, सुरक्षा गार्ड की हो, बागवान की हो, चपरासी की हो, क्लर्क की हो, उसके लिये आवेदन आमंत्रित किये जाते हैं, तो देश की यह उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी लाइन में लग जाती है। इसका उदाहरण वर्ष 2018 में उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग में चपरासियों व संदेशवाहकों के 62 पदों के लिए भर्ती का है, इन 62 पदों के लिए 93000 अभ्यर्थियों ने आवेदन किया जिनमें से 3700 पीएचडी, 28000 पोस्ट ग्रेजुएट व 50000 ग्रेजुएट थे। जबकि इन पदों के लिए न्यूनतम योग्यता पांचवीं पास थी।
इसी तरह जनवरी 2019 में मध्य प्रदेश में 8वीं पास योग्यता और 7,500 रुपए मासिक मानदेय वाली चपऱासी की नौकरी के 57 पदों के लिए प्राप्त होने वाले 60,000 आवेदन पत्रों में बड़ी संख्या में इंजीनियर, एमबीए और पीएचडी डिग्री वाले उम्मीदवार शामिल थे। यह ऐसी त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है जो हमारे तमाम विकास की उपलब्धियों को धुंधलाती है। हमारे विकास के तमाम दावों पर एक बदनुमा धब्बा है। हमारी शासन व्यवस्था का नकारापन है।
क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? चुनाव प्रचार करने हैलीकॉप्टर से जाएंगे पर उनकी जिंदगी संवारने के लिए कुछ नहीं करेंगे। वोट हासिल करने के लिये महिलाओं को मुक्त बस एवं मेट्रो में यात्रा की घोषणा करेंगे, लेकिन खाली पड़े सरकारी पदों को भरने के नाम पर उनके सामने आर्थिक बजट नहीं होगा। तब उनके पास बजट की कमी रहती है। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर ऐसे बहुत धब्बे हैं, गलत तत्त्व हैं, दोगलापन है। मानो प्रजातंत्र न होकर सजातंत्र हो गया। क्या इसी तरह नया भारत निर्मित होगा? राजनीति सोच एवं व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई गरीब युवक नमक और रोटी के लिए आत्महत्या नहीं करे। भारतीय शिक्षा व अर्थव्यवस्था को आज बड़े बदलावों की जरूरत है ताकि एक ओर तो अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा सभी छात्रों को मिले और दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में इसके अनुकूल रोजगारों का सृजन भी हो।
यह रोजगार सृजन नए क्षेत्रों में भी होना चाहिए, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बुनियादी क्षेत्रों से मुंह मोड़ लें। बीते कल में हमने क्या खोया, क्या पाया-इस गणित को हम एक बार रहने दें, अतीत को हम सीख बनायें। उन भूलों को न दोहराये जिनसे हमारी युवापीढ़ी के सपने जख्मी हैं, जो सबूत बनी है हमारे शासन के असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, सही सोच एवं सही योजनाओं के अभाव में मिलने वाली अर्थहीन परिणामों की। सार्थक एवं सफल प्रयत्न हो बेरोजगारी को दूर करने का, युवापीढ़ी के सपनों को नये पंख लगाने का। तभी मोदी को मिली ऐतिहासिक जीत की सफलता होगी, तभी संभावनाओं पर नये भारत का निर्माण होगा।
-ललित गर्ग
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