भारत व चीन ने सीमा पर अमन-शान्ति कायम रखने के लिए अपनी वचनबद्धता को दोहराया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग इस बात पर सहमत हो गए हैं कि अक्तूबर माह में चीनी रक्षा मंत्री भारत आएंगे। इसी तरह भारत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को चीन भेजेगा। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि दोनों देशों ने लगभग पिछले दो सालों से डोकलाम मामले में संयम व जिम्मेदारी से काम लिया है। चाहे सैनिक ताकत के दावे दोनों देशों ने अप्रत्यक्ष रूप से किए लेकिन ऐसी बयानबाजी सीमावर्ती मामलों के प्रसंग से बाहर रही है। चीन के सरकारी समाचार पत्र की भाषा भारत प्रति तलख रही है। फिर भी डिप्लोमेटिक स्तर पर तनाव से बचाव ही रहा है। आपसी बातचीत के बिना अब कोई चारा ही नहीं बचा होगा, शायद इसी कारण दोनों देशों के नेताओं में औपचारिक बैठकों का सिलसिला भी शुरू हुआ। चीन के पास सैन्य ताकत है। चीन के लिए भारत बड़ा बाजार है। फिर भी चीन की नीतियों में साम्राज्यवाद की झलक भारत के लिए चुनौती है। इसके बावजूद दोनों देशों में व्यापार बढ़ रहा है इसीलिए चीन को यह समझना होगा कि वह भारत से संबंध बिगाड़कर सीमा पर तनाव पैदा कर भारतीय बाजारों में अपने पैर नहीं पसार सकता। चीन को अपनी भारत विरोधी गतिविधियों का एहसास भी हो चुका है। पिछले सालों में चीनी माल की बिक्री का भारतीय जनता ने जबरदस्त विरोध किया, जिससे चीनी माल बाजारों से गायब हो गया। कुछ ही दिनों में चीनी अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज की गई थी। वैश्वीकरण के दौर में धौंस-पट्टी के लिए कोई जगह नहीं। इस बात का एहसास अमेरिका सहित कई अन्य देशों को भी है। सह-अस्तित्व की धारणा के बिना व्यापारिक सम्बन्धों का कोई आधार ही नहीं। भारत की चीन संबंधी नीति की यह एक उपलब्धि है कि इस पड़ोसी देश से बराबरी के बिना रिश्ते बनाए जा रहे हैं। चीन के वन रोड वन बेल्ट को भी भारत ने अस्वीकार कर अपनी पैंठ को बरकरार रखा है। चीन से नजदीकी बढ़ने से अब भारत की पाकिस्तान से निपटने की रणनीति भी मजबूत हुई है। युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं, विवादों को आपसी सहमति से ही सुलझाया जा सकता है। यह बात चीन नीतियों व पाकिस्तान के आम चुनावों में देखने को मिली।
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