दिल्ली की हवा पर एनजीटी की तलवार

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दिल्ली सरकार ने वायु प्रदूषण की जानलेवा भयानकता को देखते हुए एक बार फिर सम-विशम कारें सड़कों पर उतारने का फैसला लिया है। इसके मुताबिक सम और विशम नंबर वाले निजी वाहन एक-एक दिन के अंतराल से पांच दिन चलाए जाएंगे, लेकिन इस घोषणा के होते ही राश्ट्रीय हरित अधिकरण ने इस फैसले पर अजीबो-गरीब ढंग से रोक लगा दी।

एनजीटी ने कहा है कि दिल्ली सरकार के इस आदेश पर वह प्रतिबंध तो नहीं लगा रहा है, लेकिन इस फॉर्मूेले को उसकी अनुमति के बाद ही लागू किया जाए। अब इस द्विअर्थी इबारत का क्या अर्थ निकाला जाए ? एनजीटी की स्थापना बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने के लिए की गई थी, बावजूद उसने यह विरोधाभासी आदेश क्यों दिया यह समझ से परे है।

एनजीटी ने दिल्ली में हेलीकॉप्टर से पानी छिड़काव की सलाह भी दी है। लेकिन यह सुझाव खर्चीला होने के कारण अप्रासंगिक है। हालांकि दिल्ली सरकार ने फायर बिग्रेडों के जरिए पेड़ों की धुलाई शुरू कर दी है। जिससे पेड़ों की वायु प्रदूषण सोखने की क्षमता बढ़ जाए। लेकिन यह उपाय कितना कारगर साबित होगा, यह कालांतर में पता चलेगा।

पिछले साल भी दिल्ली में सम-विशम फॉर्मूला लागू किया गया था। तब केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण वोट ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ऐसे कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जो यह साबित करे कि सम-विशम योजना लागू करने से वायु प्रदूषण नियंत्रित हुआ हो ? दिल्ली सरकार के साथ संकट यह भी है कि जब भी वह प्रदूषण नियंत्रण के परिप्रेक्ष्य में पहल करती है तो दिल्ली के उपराज्यपाल आदेश में रोड़ा अटका देते हैं।

ऐसे में विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर सर्वोच्च न्यायालय भी यह दलील देता है कि उपराज्यपाल ही दिल्ली के संवैधानिक प्रमुख हैं। लिहाजा दिल्ली सरकार के लिए उनकी सहमति अनिवार्य है। अब सवाल उठता है कि क्यों नहीं कि जब दिल्ली में वायु प्रदूषण की भयानकता के चलते जब 20 प्रतिशत रोगियों की वृद्घि एकाएक हो गई हो, तब उपराज्यपाल पर भी क्यों नहीं यह जिम्मेवारी डाली जाती कि वे इस समस्या के निदान की दिशा में पहल करें।

यह तब और जरूरी हो जाता है। जब किसी महानगर के नागरिकों को घर से बाहर न निकलने की सलाह दी जाए। सारे विद्यालय बंद करना पड़ें। ऐसा अकसर सांप्रदायिक तनाव या युद्घ की स्थिति बनने पर होता है। लेकिन देश की राजधानी धुंआ-धुंआ हुई दिल्ली को प्रदूशित वायु के कहर बरप जाने के कारण झेलना पड़ रहा है। इसके फौरी कारण हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश के खेत में फसलों के जलाए जा रहे अवशेष बताए जा रहे हैं। डंठल जलाने कोई नई बात नहीं है, ये हजारों साल से चली आ रही परंपराए हैं।

इसलिए सारा दोष इन पर मढ़ना, मूल समस्या से ध्यान भटकाना है। असली वजह बेतरतीब होता शहरीकरण और दिल्ली में बढ़ते वाहन हैं। इन वाहनों से निकले धुंए की वजह से पहली बार पता चला है कि हम अपने पेड़-पौधों में कार्बन डाईआॅक्साइड सोखने की क्षमता खो रहे हैं। संयुक्त राष्टÑ के एक ताजा शोध से भी पता चला है कि वायु प्रदूशण के चलते दुनिया में 30 करोड़ बच्चों को जहरीली हवा में सांस लेनी पड़ रही है। इस स्थिति के चलते भारत में प्रति वर्श 25 लाख लोगों की मौतें हो रही हैं।

यही स्थिती बनी रही तो दिल्ली से लोग पलायन को मजबूर हो जाएंगे।जाड़ों के शुरू होने से पहले और दीवाली के आसपास पिछले कई सालों से यही हालात पैदा हो रहे हैं। जागरूकता के तमाम विज्ञापन छपने के बावजूद न तो आतिशबाजी का इस्तेमाल कम हुआ और न ही पराली जलाने पर अंकुश लगा। पराली जलाने पर तो जुर्माना वसूलने तक की बात कही गई थी। लेकिन ठोस हकीकत तो यह है कि किसानों के पास पलारी को जलाकर नश्ट करने के अलावा कोई दूसरा उपाय है ही नहीं।

यदि केंद्र व राज्य सरकारें विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च करने की बजाय पराली से आधुनिक ईंधन, जैविक खाद और मवेशियों का आहार बनाने वाली मशीनें धान की ज्यादा पैदावार वाले क्षेत्रों में लगवा देतीं, तो कहीं ज्यादा बेहतर था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने मन की बात कार्यक्रम में ठूंठ व कचरा नहीं जलाने की अपील की थी, लेकिन इस अव्यावहारिक नसीहत का कोई असर नहीं हुआ।

वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के नजरिये से पिछले साल राष्ट्रीय हरित पंचाट ने कई कड़े कदम उठाने के निर्देश दिए थे। उनमें से बाहरी ट्रकों के शहर में प्रवेश पर रोक लगाने की कोशिश की थी। निजी वाहनों के लिए प्रायोगिक तौर पर एक दिन सम और दूसरे दिन विशम कारें चलाने की योजना लागू की गई। ज्यादा डीजल खाने वाली नई कारों के पंजीयन पर आंशिक रोक लगाई गई थी।

प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों के खिलाफ भी सख्ती बरतने की बात कही गई थी। दस साल पुरानी कारों को सड़कों से हटाने के निर्देश दिए गए। लेकिन परिणाम शून्य रहा। यहां तक की वाहनों के बेवजाह इस्तेमाल की आदत पर भी अंकुश लगाना संभव नहीं हो सका। मसलन बीमारी को जान लेने के बाद भी हम उसका इलाज नहीं कर पा रहे हैं।

वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंचने की यही सबसे बड़ी विडंबना है। लिहाजा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार वायुमंडल में बढ़ रहा है।अब तक तो यह माना जाता रहा था कि वाहनों और फसलों के अवशेषों को जलाने से उत्पन्न होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने में पेड़-पौधों की अहम् भूमिका रहती है।

पेड़ अपना भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया में कार्बन डाइआॅक्साइड सोखते हैं और आॅक्सीजन छोड़ते हैं। यह बात सच भी है, मगर अब पहली बार देश और दुनिया में यह तथ्य सामने आया है कि बढ़ता प्रदूषण पेड़-पौधों में कार्बन सोखने की क्षमता घटा रहा है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के लिए जिस तरह से पेड़ों को काटा जा रहा है, इस कारण भी पेड़ों की प्रकृति में बदलाव आया है।

शहरों को हाईटैक एवं स्मार्ट बनाने की पहल भी कहर ढाने वाली है।वाहनों की अधिक आवाजाही वाले क्षेत्रों में पेड़ों में कार्बन सोखने की क्षमता 36़75 फीसदी कम पाई गई है। यह तथ्य देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान के ताजा शोध से सामने आया है। संस्थान की जलवायु परिवर्तन व वन आकलन प्रभाव विभाग के वैज्ञानिक डॉ हुकूम सिंह ने ‘फोटो सिंथेसिस एनालाइजर‘ से कर्बन सोखने की स्थिति का पता लगाया गया है।

लैगेस्ट्रोमिया स्पेसियोसा नाम के पौधे पर यह अध्ययन किया गया। इसके लिए हरियाली से घिरे वन अनुसंधान संस्थान और वाहनों की अधिक आवाजाही वाली देहरादून की चकराता रोड का चयन किया गया है। बाद में इन नतीजों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद उपरोक्त स्थिति सामने आई।संस्थान के परिसर में पौधों में कार्बन सोखने की क्षमता 9़96 माइक्रो प्रति वर्गमीटर प्रति सेकेण्ड पाई गई।

जबकि चकराता मार्ग पर पौधों में यह दर महज 6़3 रही। इसके कारणों की पड़ताल करने पर ज्ञात हुआ कि पौधों की पत्तियां प्रदूषण से ढंक गईं। इस हालत में पत्तियों के वह छिद्र अत्याधिक बंद पाए गए।

जिनके माध्यम से पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेशण (फोटो सिंथेसिस) की क्रिया कर कार्बन डाइआॅक्साइड सोखते हैं। छिद्रो को खोलने के लिए पौधे से भीतर से दबाव भी डालते हैं। दबाव का यह उल्लघंन का ग्राफ भी वन परिसर के पौधों की तुलना में चकराता मार्ग के पौधों में तीन गुना अधिक रिकोर्ड किया गया।

यह अध्यन संकेत दे रहा है कि इंसान ही नहीं प्रदूशित वायु से पेड़-पौधे भी बीमार होने लग गए हैं। इसलिए जिस तरह पर्यावरण पर चौतरफा मार पड़ रही है, उसे सुधारने के लिए भी चहुंमुखी प्रयास करने होंगे। हर समस्या को लेकर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने या फिर जनहित याचिका न्यायालय के दिशा निर्देशों से भी कोई कारगार परिणाम निकलने वाले नहीं है।

-प्रमोद भार्गव