New Parliament : क्या सरकार-विपक्ष में दूर होंगे मतभेद

New Parliament

ऐसे अनेक संस्थाएं और क्षण होते हैं जो राजनीति से परे होते हैं (New Parliament) और लोकतंत्र का पावन मंदिर संसद उनमें से एक है। संसद के दोनों सदन लोक सभा और राज्य सभा चर्चा और बहस के केन्द्र हैं जहां पर लोगों की आवाज को उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से सुना जाता है और सरकार को जवाबदेह ठहराया जाता है। बीता रविवार एक सामान्य रविवार से अलग था। स्वतंत्र भारत में संसद के नव-निर्मित भवन का उद्घाटन किया गया और इसने काउंसिल हाउस के रूप में 1927 में औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत निर्मित वर्तमान संसद का स्थान ले लिया। यह एक ऐतिहासिक और भव्य अवसर था और इसने इतिहास पर एक अमित छाप छोड़ी है और आने वाली पीढियों के लिए भविष्य में पढने के लिए राष्ट्र की यात्रा का प्रतीक होगा। यह अतीत को वर्तमान से जोड़ने का एक सेतु है।

नव-निर्मित संसद भवन (New Parliament) की भव्यता और उसमें उच्च प्रौद्योगिकी युक्त सुविधाएं नए भारत की महत्वाकांक्षाओं और आत्मनिर्भरता को दशार्ते हैं तो इसके उद्घाटन के संबंध में तीव्र राजनीतिक मतभेद और विद्वेष, तीखे बयान, ट्वीट आदि उन महत्वाकांक्षाओं पर एक अंकुश सा लगाते हैं। नि:संदेह 19 विपक्षी दलों द्वारा नव-निर्मित संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार उसकी राजनीति को दशार्ता है। ये 19 राजनीतिक दल 11 राज्यों में शासन करते हैं और यह इन राजनीतिक दलों की तुच्छता, विश्वास के अभाव और मोदी सरकार के साथ गंभीर मतभेदों को दशार्ता है। उनकी नाराजगी थी कि प्रधानमंत्री के स्थान पर संवैधानिक प्रमुख के रूप में राष्ट्रपति को नव-निर्मित संसद भवन के उद्घाटन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया और इसको लेकर विपक्ष और सत्ता पक्ष में काफी तू- तू, मैं-मैं हुई। यह कहा गया कि लोकतंत्र की आत्मा को मार दिया गया, नए भवन का कोई महत्व नहीं है।

हमेशा की तरह मोदी सुर्खियों में रहना चाहते हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं और भावनाओं का ह्रास हो रहा है। मोदी अपने ब्रांड का हिन्दू राष्ट्रवाद थोप रहे हैं। साथ ही यह भी प्रश्न उठाया गया कि नव-निर्मित संसद भवन (New Parliament) के उद्घाटन की तिथि हिन्दू हदय सम्राट सावरकर के जन्म दिवस के दिन क्यों निर्धारित किया गया जिन्हें विपक्ष विभाजनकारी मानता है। कांग्रेस के राहुल गांधी ने इस नव-निर्मित भवन के उद्घाटन को मोदी का राजतिलक बताया तो राजद ने इस भवन को एक ताबूत बताया तो राकांपा के शरद पवार ने कहा कि वे खुश हैं कि उन्होंने इस समारोह में भाग नहीं लिया क्योंकि यह भारत को पीछे ले जाएगा।

प्रश्न उठता है कि साधुओं द्वारा पूजा प्रार्थना करना और उनकी उपस्थिति किस तरह पिछड़ापन है? क्या हमारे राष्टीय मूल्यों का अंग नहीं है? विपक्ष ने कहा कि वे नए संसद भवन का बहिष्कार कर रहे हैं न कि संसद का। किंतु संसद के अगले सत्र में वे इसी भवन में प्रवेश करेंगे और 2024 में इसी भवन में प्रवेश करने के लिए चुनावी दंगल लड़ेंगे। वे इसका अनिश्चितकाल के लिए बहिष्कार नहीं कर सकते हैं तो फिर इसके उद्घाटन को विरोध प्रदर्शन का प्रतीक क्यों बनाया गया? इस संबंध में नाराजगी व्यक्त करने और लोकतांत्रिक प्रकियाओं और पद्धतियों को बहाल करने के अनेक अन्य तरीके भी थे क्योंकि संसद जितनी सत्ता पक्ष की है उतनी ही विपक्ष की भी है।

वे इस कटु सच्चाई को भूल गए कि संसद मोदी के बाद भी रहेगी और इतिहास में दर्ज होगी कि (New Parliament) नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में विपक्ष उपस्थित नहीं रहा। जब नया संसद भवन राष्ट्र को समर्पित किया जा रहा था और जब भारत की संसदीय लाकतंत्र में एक नए अध्याय का निर्माण हो रहा था तो विपक्ष इसमें शामिल नहीं था। तब कोई नहीं पूछेगा कि वे क्यों अनुपस्थित थे। उद्घाटन समारोह में अनुपस्थित रहकर कांग्रेस का अधिक नुकसान होगा विशेषकर कर्नाटक की जीत के बाद जब लोग कांग्रेस को एक नई आशा के साथ देखने लगे थे। भाजपा ने न केवल कांग्रेस के नायकों पटेल, अंबेडकर, आजाद आदि को अपनाया अपितु कांग्रेस ने मोदी को ऐसा अवसर भी दिया जिसे वे भारत को नया संसद भवन देने का पूर्ण श्रेय ले सकते हैं।

नि:संदेह संसद (New Parliament) अपने वायदों को पूरा नहीं कर पायी और भाजपा द्वारा विपक्ष तक पहुंचने और उससे संवाद करने का प्रयास नहीं किया गया। आज यह ऐसा स्थान नहीं रह गया जहां पर राजनीतिक भावना की संकीर्णता समाप्त हो। लोक सभा और राज्य सभा की कार्यवाही में बाधा से लेकर बिना चर्चा और संसदीय समितियों को भेजे बिना कानून पास करना आम बात हो गयी है। इसके अलावा संसद में हमारे नेताओं की समृद्ध विरासत को देखते हुए इसे हमारे नेताओं के लिए एक आदर्श बनना चाहिए जहां से हम भविष्य की ओर देख सकें। हमारे नेताओं को हर स्थिति में निर्णय लेने में सावधान रहना चाहिए चाहे सदन में शोर-शराबा हो हल्ला, धक्का-मुक्की, कुर्सियां, माइक तोड़ना आदि ही क्यों न चल रहा हो या विपक्षी सदस्य बहिर्गमन क्यों न कर रहे हों। यदि संसद भवन में विचारपूर्वक बहस न हो और कानूनों की अच्छे से समीक्षा न हो तो नए संसद भवन का क्या उपयोग हैे?

इस लोक सभा में पिछले मानसून सत्र तक केवल (New Parliament) 13 प्रतिशत विधेयकों को समितियों को विचार के लिए सौंपा गया था। जबकि 16वीं लोक सभा में 27 प्रतिशत विधेयकों को समितियों के पास विचार के लिए भेजा गया था। 17वीं लोक सभा की पुनरावृति कोई नहीं चाहता क्योंकि इस लोक सभा में बिना चर्चा और बहस के कानूनों को पारित किया गया न ही 15वीं लोक सभा की पुनरावृति होनी चाहिए जो अब तक सबसे कम उत्पादक रहंी है। आज संसद के समक्ष तीन चुनौतियां हैं। पहली, विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच बढता मतभेद। संसद के पिछले कुछ सत्रों में सतत पक्ष और विपक्ष दोनों द्वारा कार्यवाहियों में बाधा डाली गयी। दोनों अपनी-अपनी विचारधारा और अपने-अपने रूख पर अड़े रहे। भाजपा का मानना है कि उसके लोकतांत्रिक जनादेश का अनादर किया जा रहा है और विपक्ष इसलिए परेशान है कि सरकार अपनी संख्या बल का उपयोग कानूनों को पारित करने और संसदीय प्रकिया को नजरंदाज करने के लिए कर रही है।

दूसरा, संसदीय प्रक्रिया को सुदृढ करने की आवश्यकता है (New Parliament)  क्योंकि इसका मुख्य कार्य सरकार द्वारा तैयार किए गए विधेयकों की जांच करना है। कानून निमार्ताओं को ऐसे उपायों पर विचार करना चाहिए जिससे दोनों पक्षों को मुद्दों को उठाने के लिए समय मिले और महत्वपूर्ण विधानों की जांच के लिए पर्याप्त अवसर मिले। तीसरा, संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन और दोनों सदनों की सदस्य संख्या बढाने के लिए 2026 की समय सीमा। नई लोक सभा में 888 और राज्य सभा में 384 सदस्य हो सकते हैं। वह दिन दूर नहीं जब इस संसद के चैंबरों में अधिक सदस्य बैठेंगे।

पहले ही इस बात पर आपत्ति व्यक्त की जा रही है कि यदि (New Parliament) जनसंख्या आधारित प्रतिनिधित्व दिया गया तो कुछ क्षेत्रों को नुकसान होगा। हमारे नेताओं को इस बात को समझना होगा कि संसद जनता की इच्छा की अभिरक्षक है और सरकार तथा विपक्ष के माध्यम से संसउदीय लोकतंत्र में उनकी सर्वोच्चता का प्रतीक है। दोनों पक्षों को जनता की खातिर अपने लिए अलग-अलग स्थान बनाने चाहिए और दृढ इच्छा शक्ति से जनता के मुद्दों को उठाना चाहिए। उन्हें संसद में ढांचागत सुधार करने चाहिए और मुद्दों को उठाने के लिए अलग से समय निर्धारित करना चाहिए।

हमारी संसद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का हृदय स्थल है और लोतांत्रिक शासन व्यवस्था को चलाने का प्रमुख साधन है। भारत एक महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है और वह अपनी जनसंख्या का लाभ उठा सकता है। हमारे राजनेता वर्ग को संकीर्ण स्वार्थों से उठाना होगा अन्यथा इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। उन्हें नई संसद को एक सार्थक संसद बनाना होगा क्योंकि भारत का लोकतंत्र बहुमूल्य है किंतु साथ ही यह नाजुक भी है।

पूनम आई कौशिश , वरिष्ठ लेखिका एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखिका के अपने विचार हैं)