लोकतंत्र, राजनीतिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों की पैरवी और उन पर शोध करने वाले अमेरिका के एक प्रमुख थिंक टैंक फ्रीडम हाउस ने भारत की फ्रीडम रैकिंग को कम कर दिया है। भारत पहले ‘स्वतंत्र’ कैटगरी वाले देशों में शामिल था अब ताजा सूचि में भारत को ‘आंशिक स्वतंत्रता’ वाली कैटगरी में रखा गया हैं।
रिपोर्ट में फिनलैंड, नॉर्वे और स्वीडन को शत-प्रतिशत नंबर देते हुए कहा गया है कि इन देशों के नागरिक सबसे अधिक स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं। जबकि तिब्बत और सीरिया को सबसे निचले स्तर पर रखा गया है। थिंकटैंक का मानना है कि यहां के नागरिकों को अपनी आवाज उठाने का कोई अधिकार नहीं है। हालांकि भारत सरकार ने रिपोर्ट को भ्रामक, गलत और अनुचित करार देते हुए पूरी तरह से खारिज कर दिया है। सरकार ने कहा है कि देश में सभी नागरिकों के साथ बिना भेदभाव समान व्यवहार होता है तथा चर्चा, बहस और असहमति भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा है।
फ्रीडम हाउस दुनियाभर के देशों में दो दर्जन से अधिक बिंदूओं के आधार पर राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता का आंकलन कर अपनी रिपोर्ट जारी करता है। संस्था ने इस साल 195 देशों और 15 प्रदेशों में 1 जनवरी 2020 से 31 दिसंबर 2020 तक घटी घटनाओं को आधार बनाकर रिपोर्ट जारी की है। ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021’ के नाम से जारी रिपोर्ट में भारत पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि साल 2014 में भारत में सत्ता परिर्वतन के बाद मानवाधिकार संगठनों पर दबाव बढ गया है।
नागरिकों की स्वतंत्रता में गिरावट आई है तथा हिंदू राष्ट्रवादी सरकार में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा, पत्रकारों को धमकी और न्यायिक हस्तक्षेप के मामले बढ़े हैं। राजद्रोह कानून और मुसलमानों पर हमलों का उल्लेख करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में नागरिक स्वतंत्रता कम हुई है। जिस तरह से आंदोलकारियों, सामाजिक कार्यकतार्ओं और छात्र-छात्राओं पर गैर-कानूनी गतिविधियां ( रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे कानून का इस्तेमाल किया गया है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत में नागरिक स्वतंत्रता का दायरा सीमित हो गया है।
ट्रंप सरकार ने जिस तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ायी उसका उल्लेख रिपोर्ट में कहीं नहीं हैं। ट्रंप के कार्यकाल में शरणार्थियों के साथ अमानवीय व्यवहार को लेकर अमेरिकी मीडिया में जो खबरें आती रही हैं, उस पर रिपोर्ट में कुछ नहीं कहा गया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि कुछ मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक व रंगभेद के संघर्ष तथा मैक्सिकों सीमा पर दीवार बनाये जाने जैसे कदम क्या लोकतांत्रिक मुल्यों के दायरे में आते हैं? पिछले फरवरी माह में ही अमरीकी सीमा एजेंटों ने मैक्सिकों सीमा पर एक लाख से अधिक प्रवासियों को हिरासत में लिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुमाबिक इनमें बड़ी संख्या में नाबालिग भी हैं। कंही ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों की मनमानी व्याख्या और परिभाषा गढ़ने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका इस रिपोर्ट के जरिये भारत जैसे स्वतंत्र देशों पर दबाव बनाने की नीति पर काम कर रहा है।
सच तो यह है कि रिपोर्ट में सीएए, जेएनयू हिंसा, लॉकडाउन तथा प्रवासी मजदूरों को लेकर जिस तरह से सवाल उठाए गए है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह रिपोर्ट पूरी तरह से भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार को टारगेट कर तैयार की गयी है। कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए दुनिया की हर सरकार ने कड़े लॉकडाउन का सहारा लिया था। भारत में भी संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन लगाया गया। भारत सरकार के सख्त लॉकडाउन का ही परिणाम है कि दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाला देश होने के बावजूद कोरोना से मरने वालों की संख्या डेढ लाख से थोड़ी अधिक है। जबकि 1 करोड़ 12 लाख लोग संक्रमित हुए हैं। दूसरी ओर भारत से बहुत कम आबादी अमेरिका में 2 करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हुए हैं तथा 5 लाख से अधिक लोगों की मौतें हुई हैं।
कोई संदेह नहीं कि अचानक लिए गए लॉकडाउन के फैसले से प्रवासी मजदूरों और नागरिकों को बहुत सी तकलीफें उठानी पड़ी। पर संक्रमण की चेन को तौड़ने के लिए सरकार के यह कदम जरूरी भी थे। सरकार के इन फैसलों को आधार बनाकर यह कह देना कि देश के नागरिकों को पर्याप्त स्वंतत्रता नहीं हैं, उचित नहीं है। लोकतंत्र और मानवाधिकारों के नाम की डुगडुगी पीटने वाला अमेरिका जिस तरह से दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सरकारों पर दबाव बनाता है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। लोकतांत्रिक सरकारों की जगह तानाशाही शासन व्यवसथा की स्थापना और रंगभेद जैसी मानवता विरोधी परंम्पराओं को पोषित करना उसका पुराना शगल रहा है। बहुत थोड़े शब्दों में कहा जाए तो फ्रीडम हाउस की यह रिपोर्ट अमेरिका के वैचारिक साम्राज्यवाद का नया नमूना ही लगती है।
लेकिन स्थिति चाहे जो भी फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट पर संदेह जता कर उसे सिरे से खारिज कर देना भी ठीक नहीं है। सतारूढ दल और राष्ट्रवादीयों को बेचैन कर देने वाली इस रिपोर्ट के बाद हमारी बहस और हमारे विमर्श के केन्द्र में यह प्रश्न जरूर उभरने चाहिए कि किसी ग्लोबल एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले भारत की ऐसी छवि क्यों प्रस्तुत की। क्या सच में भारत के स्वतंत्र वातावरण में गिरावट आई है या भारत अब पहले की तरह आजाद नहीं रहा। लेकिन सवाल यह है कि इस रिपोर्ट को लेकर हम गंभीर होंगे या पहले की तरह विदेशी संस्थानों की रिपोर्ट को अविश्वसनीय मानकर उसे खारिज कर देने वाले व्यवहार पर कायम रहेंगे।
डॉ.एन.के. सोमानी
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