लद्दाख में दोनों देशों की सेनाओं की वापसी की प्रक्रिया जारी है। चीन गलवान, हॉट स्प्रिंग्स और गोगरा के विवादास्पद क्षेत्रों से पीछे हट रहा है। देश विदेश में हर कोई भारत को चीनी सेना के पीछे हटने पर नजर रखने की सलाह दे रहा है और उनका कहना है कि चीन के वायदों पर भरोसा मत करें क्योंकि वह वायदे पूरे नहीं करता है।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चीन भारत के भूभाग में आया और वह किस सीमा तक वापस हट रहा है। भूमि हड़पने वाले चीन की रणनीति रही है कि वह दो कदम आगे बढ़कर एक कदम पीछे हटता है और फिर इस बारे में बातचीत करता है। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य ने भी भ्रम की स्थिति पैदा की है कि हमारे भूभाग में कोई नहीं आया और हमारी चोटियों पर कोई विदेशी सैनिक नहीं हैं। आलोचकों का मत है कि गलवान वार्ता में भारत ने अवसर खो दिया। पूर्वी लद्दाख में चीनी अतिक्रकण के बारे में मोदी ने वही किया जो नेहरू ने किया। तनाव कम करने के लिए भारत एकदम झुक गया और इतिहासकार मोदी का उल्लेख एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में करेंगें जो बिना लड़े चीन से हार गया।
कट्टरवादियों के अनुसार चीन ने डेपसांग वाई जंक्शन और गलवान के पेट्रोल प्वाइंट 14 पर अतिक्रमण किया। नियंत्रण रेखा के भारत की ओर के भूभाग में बफर जोन तथा गलवान और श्योक नदियों के संगम के पश्चिम की ओर गश्त करने के लिए सहमत होकर भारत व्यावहारिक रूप से गलवान घाटी से बाहर हो गया है और इसीलिए चीन पूरी गलवान घाटी पर अपना दावा कर रहा है। किंतु सरकार समर्थक मीडिया चीन द्वारा पीछे हटने को बढा-चढाकर पेश कर रहा है। उसका कहना है कि भारत ने चीन को बिना गोली चलाए भारतीय भूभाग से खदेड़ा है और यह प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में सबसे बड़ी जीत है।
लद्दाख के नीमू में हमारे सैनिकों को संबोधित प्रधानमंत्री के भाषण की गूंज न केवल बीजिंग में सुनाई दी अपितु इससे भूटान और म्यांमार जैसे छोटे देश भी चीनी तानाशाह शी जिनपिंग की ओर आंख उठाने लग गए हैं। एक राष्ट्रवादी और बहुलवादी के रूप में साम्यवादी और नव साम्राज्यवादी चीन को मैं भी पसंद नहीं करता हूं और मैं भी इससे खुश हूं और एक चैनल पर चर्चा में मैंने इसी तरह अपने विचार भी व्यक्त किए। किंतु साथ ही मैंने यह भी कहा कि लद्दाख चीन की वर्चस्ववादी चाल का एक छोटा सा हिस्सा है। चीन अपने लगभग सभी पड़ोसी देशों के भूभागों पर दावा करता है और उसने तिब्बत तथा झिनजियांग जैसे स्वतंत्र देशों को हड़पा है।
भारत के लगभग 53 हजार वर्ग किमी पर उसका कब्जा है। हमारा उद्देश्य उस भूमि को वापस लेना और तिब्बत को स्वतंत्र करना तथा भारत और चीन के बीच तिब्बत को बफर जोन बनाना होना चाहिए और उसी के बाद हम खुश हो सकते हैं। मैं जानता हूं कि यह बहुत बड़ी बात है किंतु असंभव नहीं है। यह बात सुनने में बेतुकी लग सकती है किंतु विश्व के बुद्धिमान लोगों ने कहा है जो व्यक्ति बेतुकी बातें करने का प्रयास करते हैं वही असंभव को संभव बनाते हैं। तथापि सोवियत संघ की तरह एक दिन चीनी साम्राज्य का भी पतन होगा चाहे भारत चीन के विघटन की दिशा में कार्य करे या न करे किंतु यह अवश्यंभावी है और यह भारत के हित में होगा कि वह चीन के विघटन की प्रक्रिया में सहायता करे।
एक कहावत है कि एक बार की गलती मजाक बन जाती है। दूसरी बार की गलती से उपहास होता है और तीसरी बार की गलती से त्रासदी झेलनी पड़ती है। मोदी ने अपने छह साल के कार्यकाल में डोकलाम और लद्दाख दो गलतियां कर दी हैं और यदि वे चीन के साथ संबंधों को यथावत रखते हैं तो उन्हें त्रासदी झेलनी पड़ेगी। चर्चा में वैश्विक भू राजनीति से अनजान एक महिला ने कहा कि हम किसी देश के विघटन के पक्ष में नहीं हैं। पाकिस्तान का विघटन एक संयोग था किंतु उन्होंने साम्राज्य शब्द पर ध्यान नहीं दिया। हम चीन द्वारा अवैध रूप से कब्जाई गई भूमि और विदेशों को चीन से मुक्त करना चाहेंगे न कि मुख्य भूमि चीन का विभाजन करना चाहेंगे। अपनी भूमि और तिब्बत को मुक्त करना हमारा दीर्घकालीन लक्ष्य होना चाहिए और किसी से लड़ाई चीन के खेमे में जाएगी।
डोकलाम के बाद मोदी ने चीन के साथ संबंध सुधारने का प्रयास किया। वुहान और महाबलिपुरम में दो अनौपचारिक शिखर बैठकों के बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध मजबूत हुए। चीन से आयात बढा और हमारी अर्थव्यवस्था चीन आश्रित हुई। यह हमारी अदूरदर्शी रणनीति थी। चीन द्वारा भारत के साथ लगातार अमैत्रीवत व्यवहार के बावजूद व्यावसायिक संबंधों में मजबूती आई। मोदी की विदेश नीति में दो खामियां हैं। पहला, पाकिस्तान भारत का नंबर एक दुश्मन है और आतंकवाद के संबंध में पाकिस्तान का मुकाबला करना और कश्मीर को बचाना हमारी विदेश नीति के मुख्य तत्व रहे हैं। जबकि हमारा दुश्मन नंबर एक चीन होना चाहिए न कि पाकिस्तान क्योंकि पाकिस्तान चीन का पिट्ठू है।
कुछ लोगों का मत है कि पाकिस्तान विरोधी नीतियों और रूख से चुनावी लाभ मिला है। किंतु भाजपा यह समझने में गलती कर गयी कि कौन वास्तविक दुश्मन है। दूसरी खामी मोदी का यह कहना है कि भारत रणनीतिक मामलों में स्वायत्त है। भारत के प्रधानमंत्री विश्व के एक नेता हैं और यह उनकी नेहरूवादी सोच है। उसी नेता को विश्व नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है जो अपने देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाता है, राजनीतिक दृष्टि से विश्वसनीय बनाता है और साामजिक दृष्टि से स्थिर बनाता है। भारत लोकतंत्र और बहुलाद की दुहाई दे सकता है किंतु अर्थव्यवस्था के मामले में ऐसा नंही कह सकता है। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनाई किंतु 1971 में सोवियत संघ के साथ शांति और सुरक्षा संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ ही वह नीति धराशायी हो गयी। उन्होंने चीन पर विश्वास किया और सोवियत संघ पर आश्रित रहे। मोदी ने भी वैसा ही किया।
जब हमारा अधिकतर व्यापार अमरीका के साथ होता है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, अमरीका, दक्षिण कोरिया, जापान और इजराइल के साथ मेल खाती है जो हमारे लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमारे साथ खड़े रहने के लिए तैयार हैं तो हम सोवियत और चीन के जाल में फंस गए। हमारी दूसरी गलती सोवियत संघ से बड़े पैमाने पर हथियार खरीदना है क्योंकि वह चीन को भी वही हथियार देता है। इस विरोधाभास या मजबूरी का कारण क्या है? साथ ही हमारे जैसे विकासशील देश के लिए भारी संख्या में हथियार खरीदना समझदारी नहीं है। हम अकेले क्यों लडें जब अन्य लोग हमारी सहायता करने के लिए तैयार हैं। अपनी सर्वोच्च स्थिति बनाए रखने के लिए अमरीका हमारी सहायता करेगा। उसका चीन के साथ कोई सीमा विवाद नहीं है फिर भी उसने अपने दो विमानवाहक पोत दक्षिण चीन सागर में क्यों तैनात किए। वह ताईवान, फिलीपींस, दक्षिण कोरिया, जापान और अन्य देशों का साथ दे रहा है। उसने भारत की सहायता करने की भी घोषणा की है। फिर भारत ढुलमुल रवैया क्यों अपना रहा है?
लद्दाख गतिरोध के दौरान भारत के किसी बड़े नेता का विदेशी दौरा रूस का हुआ और वह भी हथियार खरीदने के लिए। विदेश मंत्री को इस मसले पर विचार करने के लिए अमरीका क्यों नहीं भेजा। यह बात तब समझ में आती जब भारत गुपचुप कूटनयिक प्रयास कर रहा होता, रणनीतिक गठबंधन बना रहा होता, रूस को खुश कर रहा होता और चीन के साथ तनाव को नहीं बढा रहा होता तथा हमला करने आदि के लिए समय ले रहा होता। किंतु आज के सेटेलाइट और हाईटेक जासूसी के युग में कुछ भी गोपनीय नहीं रह पाता है।
वस्तुत: भारत को चीन का मुकाबला करने के लिए आवश्यक औपचारिक रणनीतिक गठबंधन बनाने चाहिए और इसका लक्ष्य अक्सई चिन और साक्सगम सहित अपनी भूमि को वापस लेना होना चाहिए। नियंत्रण रेखा पर बार बार झड़पें और अरूणाचल प्रदेश पर चीन का दावा तभी समाप्त होंगे जब शी जिनपिंग के चीन को हिटलर की तरह धूल चटाई जाए। बहुत सारे हथियार जोड़ने के बावजूद भारत अकेले ऐसा नहीं कर सकता है। इसलिए अपनी शक्ति और सीमाओं की पहचान कर भारत को विभिन्न गठबंधन बनाने होंगे। अब रणनीतिक स्वायत्तता या गुटनिरपेक्षता या संतुलनकर्ता की भूमिका से काम नहीं चलेगा। ये अप्रसांगिक और अव्यावहारकि बन गए हैं। एक सुदृढ गठबंधन ढांचे में चीन के विरुद्ध अग्रलक्षी रणनीति ही भातर का नया अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण होना चाहिए।
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