बरसों से चल रहे प्रयास के फलस्वरूप आखिरकार केन्द्र सरकार ने बीते 29 जुलाई को नई शिक्षा नीति को मंजूरी दे दी। नई शिक्षा नीति में नये सपने और नई विशेषताएं देखी जा सकती हैं साथ ही कुल जीडीपी का 6 फीसद शिक्षा पर खर्च करने का इरादा भी झलकता है। जो पहले की तुलना में डेढ़ फीसद से अधिक है।
गौरतलब है कि ठीक इसके पहले 1986 में शिक्षा नीति लागू की गयी थी जिसमें 1992 में संशोधन किया गया था और तब से यही व्यवस्था अनवरत है। 34 साल बाद देश में एक नये प्रारूप की शिक्षा अमल में लाये जाने का बिगुल बज गया है। जिसका मसौदा पूर्व इसरो प्रमुख कस्तूरी रंजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने तैयार किया था। नई शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई परिवर्तन किये गये हैं। साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है। गौरतलब है कि एचआरडी मंत्रालय 1985 में गठित हुआ था। नई शिक्षा नीति कई नये आयामों से युक्त है जिसकी विशद् चर्चा लाजमी है। भाषा के स्तर पर इसमें उदारता और पाठ्यक्रम की दृश्टि से इसमें कहीं अधिक लोचशीलता भरी हुई है। इसका स्वरूप 10+2 के स्थान पर 5+3+3+4 कर दिया गया है।
चरणबद्ध प्रक्रिया में देखें तो अब भारत में शिक्षा की प्रारम्भिकी फाउंडेशन स्टेज से शुरू होगी जिसमें पहले तीन साल बच्चे आंगनबाड़ी में प्री स्कूलिंग करेंगे तत्पश्चात अगले दो वर्श अर्थात कक्षा एक और दो के लिए स्कूल जायेंगे जो नये पाठ्यक्रम के अंतर्गत होगा। जाहिर है इसका स्वभाव क्रियाकलाप आधारित शिक्षण से युक्त होगा। इसमें विद्यार्थी 3 से 8 साल की आयु के होंगे। यह पढ़ाई का पहला पांच साल का चरण है। दूसरा चरण तीन वर्षीय प्रेपेटरी स्टेज का है जिसमें कक्षा तीन से पांच और 11 वर्ष की आयु के विद्यार्थियों के बच्चों के लिए होगा। जबकि मिडिल स्टेज की पढ़ाई कक्षा छ: से आठ और उम्र 11 से 14 है। इसके बाद सेकेण्डरी स्टेज कक्षा नौ से बारहवीं तक का और विषय चुनने की यहां आजादी है। इसमें खास यह है कि 5वीं कक्षा तक मात्र भाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात है। विदेशी भाषा की पढ़ाई सेकेण्डरी लेवेल पर कही गयी है जिसे कक्षा आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। साफ है कि नई शिक्षा नीति में भाषा थोपने की स्थिति नहीं दिखती है।
उच्च शिक्षा स्तर पर भी कई बदलाव किये गये हैं। डिग्री कार्यक्रम में कई संदर्भ निहित है। मसलन जो छात्र शोध में जाना चाहता है उसे चार साल का स्नातक और एक साल का परास्नातक करना होगा जबकि जो नौकरी में जाना चाहता है उनके लिए यही कार्यक्रम तीन वर्ष का होगा। रिसर्च अर्थात् पीएचडी में सीधे प्रवेश यहां एमफिल की जरूरत खत्म कर दी गयी है। हालांकि वर्तमान में भी पीएचडी से पहले एमफिल की कोई अनिवार्यता नहीं थी। देखा जाय तो उच्च शिक्षा भी लोचशीलता से युक्त है और पढ़ाई छूटने और फिर जोड़ने के अलावा भी कई सुविधायें देखी जा सकती हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भी दरवाजे खुलते दिखाई दे रहे हैं। बदलाव जमीन पर जल्द उतर पायेगा कहना मुश्किल है मगर भारत में शीर्ष 200 विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए द्वार खुलने से यहां की उच्च शिक्षा का स्तर भी बढ़ने की सम्भावना है साथ ही प्रतिभा पलायन को भी ब्रेक लग सकता है।
वैसे यहां एक खास बात यह भी है कि यूपीए सरकार के समय विदेशी शिक्षण संस्थाओं पर लाये गये रेगुलेशन ऑफ़ एन्ट्री एण्ड ऑपरेशन बिल 2010 को लेकर बीजेपी विरोध में थी। लेकिन अब इसके लिए दरवाजा खोलने की सरकार बात कर रही है। हालांकि इसे सही करार दिया जाना चाहिए क्योंकि हर साल साढ़े सात लाख से अधिक भारतीय 6 अरब डॉलर खर्च करके विदेश में पढ़ते हैं। इस दृश्टि से इस पर न केवल विराम लगेगा बल्कि आर्थिक मुनाफा भी देश को हो सकता है। सवाल यह भी है कि भारत के शैक्षणिक वातावरण को देख कर क्या विदेशी विश्वविद्यालय यहां काम करने का रूख करेंगे। ऐसे में तब जब नई शिक्षा नीति में अधिकतम फीस की सीमा भी तय करने की बात कही गयी है। खास यह भी है कि उच्च शिक्षा में 2035 तक 50 फीसद ग्रॉस इन्रोलमेंट रेशियो पहुंचाने का लक्ष्य है। फिलहाल 2018 के आंकड़े को देखें तो यह 26 फीसद से थोड़ा ज्यादा है। फिलहाल उच्च शिक्षा में करोड़ों नई सीट जोड़ने की बात भी है।
भारत की नई शिक्षा नीति कई ऐसे सवालों का भविष्य में एक बेहतर जवाब हो सकती है। वैसे दुनिया में कई देश शिक्षा की स्थिति और प्रगति को लेकर नये प्रयोग करते रहे हैं। अमेरिका में स्कूल व्यावहारिक समझ और अतिरिक्त पाठ्यचर्या गतिविधियों पर अधिक जोर देते हैं। यहां प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालय की श्रेणी देखी जा सकती है। चीन की शिक्षा प्रणाली में भी चार चरण है। पहले बेसिक शिक्षा फिर पेशेवर शिक्षा और उसके बाद उच्च शिक्षा और अन्तत: व्यस्क शिक्षा शामिल है। खास यह है कि यहां 6 से 15 वर्ष के चीनी बच्चों के लिए शिक्षा जरूरी और मुफ्त है। यहां औसतन एक कक्षा में 35 विद्यार्थी और किसी भी तरह का कोई आरक्षण नहीं है साथ ही चीन में बच्चों का 6 साल की उम्र के बच्चों का दाखिला स्कूल में होता है।
एजुकेशन इन स्विट्जरलैण्ड यह शब्द अपनेआप में एक अलग तरह की जिन्दगी है। यह प्रारम्भिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लिए विख्यात है। यूरोप के कई देश मसलन स्विट्जरलैण्ड, नीदरलैण्ड, जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ्रांस व इटली समेत कई देश शिक्षा के मामले में काफी ताकत बना चुके हैं। नीदरलैण्ड की शिक्षा को काफी किफायती माना जाता है। शिक्षा के साथ कई देशों में पार्ट टाइम जॉब करने की भी छूट मिलती है। इसके अलावा भी कई सुविधाएं देखी जा सकती हैं।
नई शिक्षा नीति अनेक सुधारों और योजनाओं को शिक्षा के क्षेत्र में योगदान अवश्य देगी। जिससे भावी पीढ़ी को लक्ष्य के अनुसार मानसिक और बौद्धिक रूप से तैयार किया जा सकेगा। वैसे स्वतंत्रता के बाद से शिक्षा को लेकर कई आयोग और समितियों का गठन हुआ। स्वतंत्रता से पहले की शिक्षा पद्धति में व्यापक परिवर्तन भी होते रहे हैं। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा यह संदर्भ उजागर करती है कि 1954 की लॉर्ड मैकॉले की इंगलिश शिक्षा का दौर आगे उस पैमाने पर नहीं रहेगा। 1964, 1966 और 1968 तथा 1975 में शिक्षा सम्बंधी आयोगों का गठन हुआ साथ ही 10+2+3 की शिक्षा पद्धति को 1986 में पूरे जोश, खरोश के साथ लागू किया गया जिसे अब 5+3+3+4 के रूप में परिवर्तित करते हुए नई शिक्षा नीति 2020 नई विशिष्टता को प्रदर्शित कर रहा है।
बुनियादी स्तर पर परिवर्तन के साथ उच्च शिक्षा तक के बदलाव इस नीति में समाहित हैं। इतना ही नहीं विचारों और मान्यताओं का इसमें पुर जोर समर्थन दिखता है। देखा जाय तो वर्तमान शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार कराने का जिम्मा स्मृति ईरानी ने उठाया था। पूर्व कैबिनेट सचिव सुब्रमण्यम स्वामी की अध्यक्षता में कमेटी का गठन भी हुआ बाद में एचआरडी मंत्री प्रकाश जावड़ेकर बने जिन्होंने इसे डॉ0 कस्तूरी रंगन की अध्यक्षता में समिति बनाकर उन्हें सौंप दिया जिसकी सिफारिशें काफी समय तक मंत्रालय में पड़ी रही। 2019 के मोदी सरकार की दूसरी पारी में डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक को एचआरडी मंत्री बनाया गया और अब नई शिक्षा नीति देश के सामने है।
गौरतलब है कि शिक्षाविद् डॉ. मुरली मनोहर जोशी के समय में भी नई शिक्षा पर प्रयास हुए थे। फिलहाल नई शिक्षा नीति नई आशा और नई किरण से भरी लगती है। बावजूद इसके शिक्षा में आसमान के तारे कब जमीन पर उतरेंगे यह सवाल कहीं गया नहीं है। बस प्रयास यह रहना चाहिए कि संरचना, प्रक्रिया और बेहतर व्यवहार के आभाव में इसका प्रकाश कमतर न रहे।
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