बिहार और असम में कुदरत के कहर ने मानवता को कराहने पर विवश कर दिया है। सैकड़ों लोग अभी तक अपनी जान गंवा चुके हैं। सैकड़ों लोग लापता है, हजारों करोड़ की संपत्ति का नुकसान हो चुका है। बहरहाल, जो लोग बाढ़ की विभीषिका से बच गए हैं, उनका हृदय अपनों को खोने के बाद तड़प रहा है। क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी को प्रलय का एहसास हो रहा है। कई दिनों से पानी के बीच रहकर भी लोग प्यास से तड़प रहे हैं। जाति धर्म से परे सभी लोग इसका दंश झेलने को मजबूर हैं। जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका है और ना जाने कब तक लोग इस दर्द को झेलते रहेंगे। जिन्होंने अपने स्वजनों और आसपास के लोगों को खोया है, उनके आंसू शायद ही कभी बंद हों। दु:खों के इस पहाड़ टूटने की घड़ी में सेना, एनडीआरएफ की टीम, प्रशासन, समाजसेवी और जनप्रतिनिधि बचाव कार्य में लगे हुए हैं, वह काबिले तारीफ है।
नदियों का छोटा होता बेसिन, नदारद होते तटबंध और प्रवाह क्षेत्र में मानवीय अतिक्रमण बाढ़ के रूप में बड़ी समस्या बनकर उभरते हैं। अकेले बाढ़ से पिछले 20 सालों में 547 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ। इतने में देशभर में ढाई लाख से ज्यादा स्कूल खोले जा सकते थे। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1953 से 2017 के बीच बाढ़ की वजह से गुजरे 64 सालों में 1,07,487 लोगों की जान चली गई। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, सच तो यह है कि हम इस तरह के हादसों को देखने के आदी हो चुके हैं। सरकारें बचाव कार्य और राहत पहुंचाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। बाद में सब भूल जाते हैं। इस साल बिहार और असम इस समस्या से जूझ रहा है, अगले साल किसी दूसरे राज्य के लोग अपनी खुशियां तबाह करने मजबूर होंगे? फिर सरकारी खजाने से लोगों को मदद पहुंचाई जाएगी। यह समय नसीहत देने और बयानबाजी का नहीं है। लेकिन फिर भी ऐसी प्राकृतिक आपदाएं हमारे विकास रूपी माथे पर कलंक हैं।
ये सही है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता लेकिन मानव जीवन और धन हानि को प्रयासों से नियंत्रण में किया जा सकता है। पहले देश में बड़े-बड़े अकाल होते थे जिसमें लाखों लोग अपनी जान गंवा देते थे। वह भी प्राकृतिक आपदाएं ही रहती थी। हमारी सरकारों ने अथक प्रयास कर अकाल जैसी परेशानियों पर विजय प्राप्त कर ली है। ऐसे ही अगर हम सच्चे मन के प्रयासों से इस कार्य में जुटेंगे तो हम इस मुसीबत से भी निजात पा लेंगे। जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देश की बड़ी नदियों को आपस में जोड़ने की तत्परता दिखाई थी। लेकिन किन्ही कारणों से यह योजना सफल नहीं हो सकी। बाढ़ से बचने के लिए केवल नदियों को जोड़ना एकमात्र हल नहीं होगा। इसके लिए बहुत बड़े स्तर पर तैयारियां करनी होंगी।
दरअसल, नियंत्रण और बचाव का प्रयास एक दिन में संभव नहीं। देश में चर्चा सिर्फ बाढ़ के बाद हुई तबाही के दौरान ही होती है, जबकि पूरे साल अगर इससे निपटने के उपायों पर चर्चा के साथ योजनाएं बनें तो काफी कुछ हासिल हो सकता है। बाढ़ सिर्फ चुनौती के रूप में नहीं ली जानी चाहिए। चुनौती तो यह सरकारी कुप्रबंधन से होती है। सरकारें बाढ़ से निपटने के लिए चुनिंदा विशेषज्ञों से राय ले समस्या से निपटना चाहती हैं जबकि बाढ़ संभावित क्षेत्र की जनता से भी संवाद होना चाहिए। प्रयास हो कि कृषि प्रधान भारत में बाढ़ चुनौती के बजाए संभावना का सबब बने। यदि समय रहते उससे निपटने के उपाय तलाश लिये जाएं तो पानी उतर जाने के बाद उपजाऊ क्षेत्र का अधिकाधिक इस्तेमाल हो सकता है।
-देवेन्द्रराज सुथार
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