कश्मीर के हल के लिए बातचीत

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केन्द्र की मोदी सरकार ने अटल बिहारी बाजपेयी के फार्मूले पर वापिसी करते बातचीत द्वारा कश्मीर मसले को हल करने का फैसला लिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इस संबंधी नारा दे चुके हैं, ‘न गोली से, न गाली से, गले मिलने से हल निकलेगा’। इस कार्य के लिए पूर्व आईबी प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को बातचीत करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।

बातचीत का रास्ता लोकतंत्र व सद्भावना से जुड़ा है। अगर इस तरीके से बात किसी सही दिशा में चलती है तो यह सरकार की उपलब्धि होगी, लेकिन जहां तक पिछले तर्जुबे की बात है वह कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। पहले भी विभिन्न पार्टियों के सीनीयर नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर पहुंचा था लेकिन सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं ने घर के दरवाजे ही बंद कर दिए थे।

इस तरह यूपीए सरकार के समय भी बुद्धिजीवियों का एक प्रतिनिधिमंडल भेजा गया, जिसकी बातचीत तो सद्भावना भरे माहौल में हुई लेकिन मसले के हल के लिए शुरुआत तक न हो सकी। दरअसल कश्मीर मसले में कई पेचीदगीयां आ गई हैं। सख्ती और बातचीत दोनों तरफ से जरूरी है। आतंकवाद से निपटने के लिए सख्त एक्शन लिए बिना गुजारा नहीं है।

दूसरी तरफ जनता की सुरक्षा की बात है। पिछले वर्ष सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी की घटनाएं ही बड़ी चुनौती बन गई थी। बुरहान वानी जैसे आंतकवादी के मारे जाने के बाद प्रदर्शन भी होते रहे। आम जनता को गुमराह होने से बचाने के लिए सेना व जनता के बीच के रिश्ते को मजबूत करना होगा। जनता को आतंकवाद के खिलाफ खड़ा करना होगा।

युवा पीढ़ी को रोजगार व कल्याणकारी कार्यांे की तरफ लाने की मुख्य जरुरत है। जनता व अलगाववादिओं के मसले अलग-अलग हैं। अलगाववादी सीधे तौर पर पाकिस्तान की जय-जयकार कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ जनता के मसले सुरक्षा बलों व प्रशासन से संबंधित हैं। यह बात भी विचार योग्य है कि एक ही व्यक्ति अलग-अलग पक्षों से बातचीत कर कोई सांझी राय तैयार कर सकेगा।

वैसे केन्द्र द्वारा यह छूट दी गई है कि दिनेश्वर जिससे भी चाहें उससे बातचीत कर सकते हैं। नाजुक बने हुए हालातों को ठीक करने के लिए बातचीत का कोई भी प्रयास ठोस साबित हो तो मिशन की सार्थकता बनेगी। किसी भी उठाए गए कदम से सिर्फ समय की बर्बादी न हो, इसलिए दृढ़ इच्छा शक्ति को बरकरार रखना होगा।

 

 

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