देश के वैज्ञानिक कोरोना की तीसरी लहर की आशंका जता रहे हैं, ऐसे में हिमाचल प्रदेश सहित अन्य पहाड़ी प्रदेशों में सैलानियों की भारी भीड़ जुट गई है। शिमला में तो इतनी भीड़ है कि वहां पीने को पानी भी नहीं मिल रहा। ट्रैफिक की समस्या तो विकराल है। मैदानी राज्यों के ये लोग मई में कोरोना की दूसरी लहर जब शिखर पर थी तो बुरी तरह दहशत में थे, तब अस्पतालों में कहीं बैड नहीं मिल रहे थे तो कहीं आॅक्सीजन की कमी थी, कहीं वेंटिलेटर की कमी। जून में कोरोना की लहर मंद पड़ी तो पाबंदियों में छूट मिलने लगी तो लापरवाही भी शुरू हो गई। लॉकडाउन दौरान ठप्प हुई अर्थव्यवस्था को दोबारा चलाने के लिए पाबंदियों में ढील आवश्यक थी, लापरवाही नहीं। ऊपर से वायरस के डेल्टा रूप की भयानकता की चर्चा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
तीसरी लहर खतरनाक होगी या कमजोर, यह तो पता नहीं लेकिन यह वास्तविक्ता है कि महामारी का प्रकोप कम हुआ लेकिन महामारी खत्म नहीं हुई। कई देश, जहां दूसरी लहर में कोरोना का कहर हमारे देश की अपेक्षा कम रहा है, वहां भी सभ्य तरीके से नियमों की पालना हो रही है। वहां लोग सावधानियां बरत रहे हैं और केवल जरूरी कार्यों के लिए ही घरों से बाहर निकलते हैं। फिलहाल स्कूल कॉलेज बंद हैं, दुख-सुख के कार्यक्रमों में गिनती निर्धारित की गई है, वैक्सीनेशन अभियान भी जोरों पर चल रहा है, मौतें अभी भी हो रही हैं। यह सब कुछ बताता है कि अभी सावधानियां बरतनी ही होंगी, लापरवाही भारी पड़ सकती है।
जहां तक पहाड़ी प्रदेशों का संबंध है इन राज्यों की सरकारें भी सैलानियों के पहुंचने को लेकर नियम बनाने में नाकाम रही हैं। सैलानियों की कोई संख्या तय की जाती तो लोग भी मानने के लिए मजबूर होते। अब कहीं ऐसा न हो कि जिस प्रकार पश्चिम बंगाल के चुनावों की रैलियां महंगी साबित हुई थीं उसी प्रकार अब पहाड़ों की सैर भी कहीं कहर न बन जाए। यूं भी सरकारों के लिए यह बात आम हो गई है कि पहले लापरवाहियां होने पर चुप रहती हैं फिर बात बिगड़ने पर दुहाई देती हैं। यदि सरकारें नहीं टोक रहीं तो लोगों को खुद भी सतर्क हो जाना चाहिए, क्योंकि जान है तो जहान है।
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