राष्ट्रवाद को सच्चे अर्थों में समझने की जरुरत

Nationalism

वर्तमान दौर में जब राष्ट्रवाद की तुलना फासीवाद से हो रही है तथा राष्ट्रवाद को आधार बनाकर रामचन्द्र गुहा जैसे ख्यातिलब्ध इतिहासकार को भी देशद्रोही बता दिया जा रहा है, तब राष्ट्रवाद की अवधारणा पर विचार करना अति आवश्यक हो जाता है। क्योंकि बगैर राष्ट्रवाद की अवधारणा को समझे राष्ट्रवाद की तुलना फासीवाद से करना उतना ही गलत है, जितना रामचन्द्र गुहा को राष्ट्रवाद के नाम पर देशद्रोही कहना। राष्ट्रवाद की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं दी जा सकती, लेकिन सार रुप में कहा जाए तो राष्ट्रवाद उस सामूहिक आस्था का नाम है, जहां लोग स्वयं को एक साझा इतिहास, परम्परा, जातीयता, संस्कृति एवं भाषा इत्यादि के आधार पर एक मानते हैं।

ब्रिटिश दार्शनिक अर्नेस्ट गैलनर का मानना है कि राष्ट्रवाद मूलत: एक राजनैतिक सिद्धांत है, जो राजनीतिक एवं राष्ट्रीय एकता को सुसंगत बनाए रखता है। गैलनर के कथन को आधार मानकर हम यह कह सकते है कि राष्ट्रवाद राष्ट्र की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। मार्क्सवादी विचारकों ने राष्ट्रवाद को ऐसी छतरी माना है जिसके अंदर पूंजीवाद संवर्धित तथा सरंक्षित होता हैं। राष्ट्रवाद का विचार पूंजीवादी व्यवस्था को ही आगे बढ़ाता है। राष्ट्रवाद के इसी संदर्भ में कार्ल मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’का नारा देते हुए कहा था कि मजदूरों का कोई राष्ट्र नही होता, उनकी मूलभूत समस्याएँ सभी जगह एक जैसी हंै।

विश्व के सभी देशों में मजदूरों का शोषण एवं उत्पीड़न पूंजीपतियों द्वारा किया जा रहा है, एवं पूंजीपतियों को राष्ट्रवाद का संरक्षण प्राप्त है। अगर मार्क्सवादी मान्यता को निष्कर्ष रुप में कहें तो इसके अनुसार राष्ट्रवाद प्रभुत्वशाली वर्गों को एकजुट करके राजनीतिक समुदाय की एक भ्रामक अनुभूति पैदा करता है, जिससे वर्गीय हित के ऊपर राष्ट्रीय अस्मिता हावी हो जाती है। इस प्रकार, राष्ट्र के नाम पर पूंजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करता है।

दूसरी ओर एंडरसन ने राष्ट्रवाद को राजनीतिक विचारधारा के रुप में समझने की बजाए सांस्कृतिक व्यवस्था के संदर्भ में समझने की बात पर जोर दिया है। एंडरसन का मानना है कि राष्ट्रवाद एक ऐसी विचारधारा हैं, जिसके आधार पर वैसे लोग जो एक दूसरे से मिले भी नहीं, एक प्रकार का संबंध जोड़ लेते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि राष्ट्रवाद ऐसा चुम्बक है, जो सबको अपनी तरफ आकर्षित कर सभी हितों की बजाए राष्ट्रीय हितों के मुद्दे पर एक कर देता है। राष्ट्रवाद के वैचारिक विश्लेषण से यह तो स्पष्ट है कि राष्ट्र का विचार एक तरह से सामुदायिक पहचान का द्योतक हैं। हालांकि, राष्ट्रवाद पश्चिमी राजनैतिक अवधारणा है तथा इसका प्रादुर्भाव 16-17वीं सदी के बाद पुर्नजागरण तथा धर्मसुधार आंदोलन के बाद माना जाता है।

विश्व में जितने भी ऐतिहासिक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, उसमें राष्ट्रवाद की महत्ती भूमिका रही हैं। यह राष्ट्रवादियों की शक्ति का ही परिणाम था, जिसकी वजह से सन् 1688 में घटित गौरवपूर्ण क्रांति पूर्णतया सफल रही तथा इंगलैंड के सम्राट को राष्ट्रवादियों के सामने समर्पण करना पड़ा, तथा सिंहासन से अपदस्थ होना पड़ा। हालांकि, राष्ट्रवाद की प्रथम स्पष्ट अभिव्यक्ति 1789 ई० में फ्रांसीसी क्रांति के साथ ही मानी जाती है। स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व जैसे राष्ट्रवादी विचारों ने फ्रांसीसी जनमानस में व्यापक एकता की भावना का प्रसार किया।

यह राष्ट्रवाद का ही परिणाम था, जिसके कारण ऐतिहासिक फ्रांस की राज्य क्रांति सफल हुई तथा फ्रांस में राजतंत्र की समाप्ति हुई व उसके स्थान पर गणतंत्र की स्थापना हुई। यद्दपि नेपोलियन बोनापार्ट के काल में राष्ट्रवाद की भावना अपने उत्कर्ष पर थी तथापि 1815 में वियना काग्रेंस के माध्यम से राष्ट्रवाद की भावना को दबाने की भरपूर कोशिश की गई। फिर भी यूरोपीय जनता के दिलों में उफनती राष्ट्रवाद की धारा युरोप होते हुए सम्पूर्ण विश्व में मजबूती के साथ फैल गई।

राष्ट्रवाद की समान्य अवधारणा से इतर देखें तो भारत व पश्चिम के राष्ट्र संबंधी विचारों में कुछ मौलिक अंतर है। राष्ट्र के संबंध में भारत व पश्चिमी विचारों में सबसे मौलिक अंतर यह है कि अपने विकास क्रम के दौरान पश्चिम की राष्ट्र संबंधी अवधारणा एक समान भाषा, धर्म, नस्ल इत्यादि के आधार पर विकसित हुई, जबकि भारत में राष्ट्र अपनी विविध भाषाओं, अनेक धर्मो और भिन्न-भिन्न जातीयों एवं जनजातीयों के आपसी सौहार्द एवं एकता के परिणामस्वरूप विकसित हुआ। अर्थात भारत ने राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट अवधारणा विकसित की, जिसमें बहुजातीयता, धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता जैसे मूल्य सहज ही भारतीय राष्ट्रवाद के अंग बन गए।

यद्दपि राष्ट्रवाद एक प्रकार के समूहीकरण पर बल देता है तथा लोगों को एक समान अस्मिता प्रदान करने की कोशिश करता है तथापि यह विचार उस समय हिंसक तथा अशांति का कारण बन जाता है, जब कोई समूह अपनी पृथक पहचान के आधार पर एक निश्चित भूगोल प्राप्त करना चाहता है या फिर राष्ट्रवाद के विभिन्न तत्वों यथा इतिहास, धर्म, नस्ल, भाषा में से किसी आधार पर कोई समूह उग्र हो जाता है। राष्ट्रवाद की आलोचना करते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि अपने प्राकृतिक रुप में मानव समाज सह अस्तित्व की भावना पर आधारित होता है, इसलिए भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राष्ट्रवाद जैसी भावना के लिए कोई जगह नहीं होना चाहिए।

ऐसा नही हैं कि राष्ट्रवाद के सिर्फ नकारात्मक परिणाम ही हैं। एक विचारधारा के रुप में राष्ट्रवाद मूलत: लोगों को जोड़ने का काम करता है, जिसके चलते कई प्रकार के आंतरिक संघर्ष स्वत: ही समाप्त हो जाते है। इस रुप में राष्ट्रवाद का विचार मानवता के अधिक निकट प्रतीत होता है। राष्ट्रवाद का सकारात्मक स्वरुप तब और ज्यादा उभरकर सामने आता है, जब राष्ट्रवाद की सामुदायिक पहचान एकजुट होकर किसी दमनकारी तथा शोषणकारी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करती हैं। उपनिवेशवाद के अग्रेंजी सत्ता के विरुद्ध चले संघर्ष के सन्दर्भ में राष्ट्रवाद की शक्ति को हिन्दुस्तान ने महसूस किया है। निष्कर्षत : कहा जा सकता हैं कि राष्ट्रवाद प्रत्येक राष्ट्र के उत्थान एवं विकास का आधुनिक रॉल मॉडल हैं।

कुन्दन कुमार

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो।