जनसंख्या वृद्धि पर एक नीति बनाने की जरूरत

Population Growth

आज पृथ्वी बढ़ती मानव आबादी के चलते अतिरिक्त बोझ का अनुभव कर रही है। यह संख्या इसी अनुपात में बढ़ती रही तो एक दिन आजीविका के संसाधन लुप्त होने के चरम पर पहुंच जाएंगे। नतीजतन इंसान, इंसान के ही अस्तित्व के लिए संकट बन जाएगा। यह स्थिति भारत समेत दुनिया के देशों में उत्पन्न न हो, इस हेतु कारगर उपायों की जरूरत है। भारत में जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए परिवार नियोजन को तो आजादी के बाद से ही प्रोत्साहित किया जा रहा है, लेकिन ये उपाय धार्मिक वर्जनाओं को आधार बनाकर समान रूप से लागू नहीं हो पा रहे हैं।

इसलिए जनसंख्या वृद्धि दर पर अंकुश लगाने के लिए एक समान नीति को कानूनी रूप दिया जाना आवश्यक है। हालांकि यह कानून बनाया जाना आसान नहीं है। क्योंकि जब भी इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखा जाएगा तब इसे कथित बुद्धिजीवी और उदारवादी धार्मिक रंग देने की पुरजोर कोशिश में लग जाएंगे। बावजूद देशहित में इस कानून को लाया जाना जरूरी है, जिससे प्रत्येक भारतीय नागरिक को आजीविका के उपाय हासिल करने में कठिनाई न हो।

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में आयोजित संघ के कार्यक्रम में सर संघचालक मोहन भागवत ने दो टूक शब्दों में कहा था कि जनसंख्या वृद्धि पर एक नीति बने, जिसमें दो बच्चों के कानून का प्रावधान हो। यह नीति सबके विचार व सहमति से बने। क्योंकि जनसंख्या एक समस्या भी है और एक साधन भी बन सकती है। इस बयान को लेकर खूब हाय-तौबा मची थी, जबकि ऐसा नहीं है कि जनसंख्या नियंत्रण पर संघ ने अपनी मंशा पहली बार जताई हो। इसके पहले रांची में संघ की अखिल भारतीय कार्यकरिणी समिति में जनसंख्या नीति का पुनर्निधारण किया गया था। जिसमें नीति को समान रूप से क्रियान्वित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट को लेकर चिंता जताई थी। इससे लगता है कि संघ और भाजपा सुनियोजित ढंग से अपने एजेंडे को अमल में लाने के लिए सक्रिय हैं। भाजपा के घोषणा-पत्र में भी यह मुद्दा शामिल है। संघ हिंदूओं की आबादी घटने पर कई बार चिंता जता चुका है।

भारत में समग्र आबादी की बढ़ती दर बेलगाम है। 15वीं जनगणना के निष्कर्ष से साबित हुआ है कि आबादी का घनत्व दक्षिण भारत की बजाए, उत्तर भारत में ज्यादा है। लैंगिक अनुपात भी लगातार बिगड़ रहा है। देश में 62 करोड़ 37 लाख पुरुष और 58 करोड़ 65 लाख महिलाएं हैं। शिशु लिगांनुपात की दृष्टि से प्रति हजार बालकों की तुलना में महज 912 बलिकाएं हैं। हालांकि इस जनगणना के सुखद परिणाम यह रहे हैं कि जनगणना की वृद्धि दर में 3.96 प्रतिशत की गिरावट आई है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.7 प्रतिशत रही, जबकि 2001 की जनगणना में यह 19.92 फीसदी थी। वहीं 2011 की जनगणना में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि दर 19.5 प्रतिशत रहीए वहीं 2001 की जनगणना में यह वृद्धि 24.6 प्रतिशत थी। साफ है, मुस्लिमों में आबादी की दर हिंदुओं से अधिक है।

इस बाबत यहां असम के डॉ. इलियास अली के जागरूकता अभियान का जिक्र करना जरूरी है। डॉ. अली गांव-गांव जाकर मुसलमानों में अलख जगा रहे हैं कि इस्लाम एक ऐसा अनूठा धर्म है, जिसमें आबादी पर काबू पाने के तौर-तरीकों का ब्यौरा है। इसे अजाल कहा जाता है। इसी बिना पर मुस्लिम देश ईरान में परिवार नियोजन अपनाया जा रहा है। यही नहीं इसकी जबावदेही धर्म गुरुओं को सौंपी गई है। ये ईरानी दंपत्तियों के बीच कुरान की आयतों की सही व्याख्या कर लोगों को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित कर रहें हैं। डॉ. इलियास चिकित्सा महाविधालय गोहाटी में प्राध्यापक हैं। वे प्रकृति से धार्मिक हैं। उनसे प्रभावित होकर असम सरकार ने उन्हें खासतौर से मुस्लिम बहुल इलाकों में परिवार नियोजन के क्षेत्र में जागरूकता लाने की कमान सौंपी है। डॉ इलियास के इन संदेशों को पूरे देश में फैलाने की जरूरत है। जिससे भिन्न धर्मावलंबियों के बीच जनसंखयात्मक घनत्व औसत अनुपात में रहे।

आबादी नियंत्रण के परिप्रेक्ष्य में हम केरल राज्य द्धारा बनाए गए कानून वूमेन कोड बिल-2011 को भी एक आदर्श उदाहरण मान सकते हैं। इस कानून का प्रारूप न्यायाधीश वीआर कृष्ण अय्यर की अघ्यक्षता वाली 12 सदस्यीय समिति ने तैयार किया था। इस कानून में प्रावधान है कि देश के किसी भी नागरिक को धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर परिवार नियोजन से बचने की सुविधा नहीं है। हालांकि दक्षिण भारत के राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर संतुलित रही है, क्योंकि इन राज्यों ने परिवार पियोजन को सुखी जीवन का आधार मान लिया है। बावजूद आबादी पर नियंत्रण के उपाय तभी सफल हो सकते हैं, जब सभी धर्मावलंबियों, समाजों, जातियों और वर्गो की उसमें सहभागिता हो। हमारे यहां परिवार नियोजन अपनाने में सबसे पीछे मुसलमान हैं।

देश में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और बांगलादेशी मुस्लिमों की अवैध धुसपैठ, अलगावादी हिंसा के साथ जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ने का काम भी कर रही है। कश्मीर से 1988 में आतंकी दहशत के चलते मूल कश्मीरियों के विस्थापन का सिलसिला जारी हुआ था। इन विस्थापितों में हिंदूए डोंगरे, जैन, बौद्ध और सिख हंैं। उनके साथ धर्म व संप्रदाय के आधार पर ज्यादती हुई और निदान आज तक नहीं हुआ। हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा धारा-370 हटाए जाने के बाद घाटी में हालात तेजी से बदल रहे हैं। लिहाजा उम्मीद की जा रही है कि विस्थापितों का अपने पुराने रहवासों में जल्द पुनर्वास की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। जबकि इन्हें न्याय दिलाने की बात तो दूरए इनकी वापसी में जम्मू-कश्मीर की फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और गुलाम नबी आजाद सरकारों ने कभी रुचि ही नहीं ली थी। बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने कश्मीर स्थित इनकी जायदाद पर कब्जा कर लिया है। कश्मीर में यह स्थिति बिगड़ने के कारणों में एक कारण जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ना है। जिसका दुष्परिणाम लोग अपने ही देश के एक हिस्से से खदेड़े गए शरणार्थी के रूप में भोग रहे हैं।

इधर असम क्षेत्र में 4 करोड़ से भी ज्यादा बांगलादेशियों ने नाजायज घुसपैठ कर यहां का जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ दिया है। नतीजतन यहां नगा, बोडो और असमिया उपराष्ट्रवाद विकसित हुआ। इसकी हिंसक अभिव्यक्ति अलगाववादी अांदोलनों के रूप में देखने में आती रहती है। 1991 की जनगणना के अनुसार कोकराझार जिले में 39.5 फीसदी बोडो आदिवासी थे और 10.5 फीसदी मुसलमान। किंतु 2011 की जनगणना के मुताबिक आज इस जिले में 30 फीसदी बोडो रह गए हैं, जबकि मुसलमानों की संख्या बढ़कर 25 फीसदी हो गई है।

यहां गौरतलब है कि असम समेत समूचा पूर्वोत्तर क्षेत्र भारत से केवल 20 किलोमीटर चौड़े एक भूखण्ड से जुड़ा है। इन सात राज्यों को सात बहनें कहा जाता है। यह भूखण्ड भूटान, तिब्बत, म्यांमा और बांगलादेश से घिरा है। इस पूरे क्षेत्र में ईसाई मिशनरियां सक्रिय हंैं, जो शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के बहाने धर्मांतरण का काम भी कर रही हैं। इसी वजह से इस क्षेत्र का नागालैंड ऐसा राज्य है, जहां ईसाई आबादी बढ़कर 98 प्रतिशत के आंकड़े को छू गई है। बावजूद भारतीय ईसाई धर्मगुरू कह रहें हैं कि ईसाईयों की आबादी बीते डेढ़ दशक में घटी है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। चर्चों में होने वाली प्रार्थना सभाओं में इस संदेश को प्रचारित किया जा रहा है। इस पर कोई हंगामा खड़ा नहीं होता है। जबकि संघ या भाजपा से जुड़ा कोई व्यक्ति आबादी नियंत्रण की वकालत करता है तो तत्काल हो-हल्ला शुरू हो जाता है। जबकि इस संवेदनशील मुद्दों को संजीदगी से लेने की जरूरत है।

                                                                                                                 -प्रमोद भार्गव

 

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