रणनीति में बदलाव की आवश्यकता

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जलवायु परिवर्तन के कारण धरती के तापमान में वृद्धि और अन्य वातावरणीय समस्याएं लंबे समय से सुर्खियों में है। अब हाल ही में सरकारी वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा की गयी एक मूल्यांकन रिपोर्ट में कुछ बातों को स्पष्ट किया गया है जैसे कि भारत में औसत तापमान 40 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ेगा। हीट वेव भी चार गुणा बढ़ेंगी, चक्रवात बढ़ते जाएंगे और समुद्र का जल स्तर 30 सेंटीमीटर तक बढ़ेगा। यह सब पिछले दो-तीन दशकों की तुलना में इस सदी के अंत तक हो जाएगा।

इस रिपोर्ट का नाम भारतीय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का मूल्यांकन है और यह रिपोर्ट पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने तैयार की है तथा इसका संपादन इंडियन इंस्टिटयृट आॅफ ट्रापिकल मीटियोरोलॉजी, पूणे के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि किसी वर्ष में सबसे गर्म दिन और सबसे ठंडी रात के तापमान में 1986-2015 के बीच 0.63 डिग्री सेंटीग्रेड और 0.40 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है और इस सदी के अंत तक इन तापमानों में लगभग 4.7 डिग्री सेंटीग्रेड और 5.5 डिग्री सेंटीगे्रड की वृद्धि होने की संभावना है। इस रिपोर्ट में विभिन्न अध्ययनों का हवाला दिया गया है कि किस तरह मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में जलवायु परिवर्तन, शहरीकरण, समुद्री जल स्तर में वृद्धि और अन्य क्षेत्रीय कारकों के कारण बाढ़ आयी है।

इस संबंध में उत्तराखंड का उदाहरण दिया गया है जहां पर 968 ग्लेशियरों का तापमान बढ़ता जा रहा है और राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा 1912-2012 की अवधि के 100 वर्षों के जलवायु और वर्षा के आंकड़ों के आधार पर पाया है कि यहां पर औसत तापमान में 0.45 डिग्री सेंटीगे्रड की वृद्धि हुई है। हालांकि यह वृद्धि मामूली सी दिखती है किंतु लंबे समय से तापमान बढ़ रहा है। 1990 से तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। राज्य में पिथौरागढ़ में तापमान में सर्वाधिक 0.58 डिग्री सेल्सियस वृद्धि हुई है। उसके बाद चमोली में 0.54 डिग्री सेल्सियस, रूद्रप्रयाग में 0.5 डिग्री सेल्सियस और उत्तरकाशी में 0.51 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई और ये राज्य के सभी पर्वतीय जिले हैं।

पिछली सदी में वर्षा में 13.05 सेंटीमीटर की कमी हुई है और देश के अधिकतर भागों की यही स्थिति है। वर्षा में कमी विशेषकर जून से सितंबर के माहों में वर्षा में कमी बताती है कि राज्य में जलवायु तेजी से बदल रहीा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 20वीं सदी के मध्य से भारत में औसत तापमान में वृद्धि देखने को मिली है और मानसून में कमी आई है। तापमान और वर्षा में अत्यधिक वृद्धि देखने को मिल रही है। सूखा और समुद्र का जल स्तर का बढ़ रहा है, भीषण चक्रवात की संख्या बढी है। इसके अलावा मानूसन प्रणाली में अनेक बदलाव देखने को मिल रहे हैं।

इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि क्षेत्रीय जलवायु में इन बदलावों का कारण मानवीय कार्यकलाप हैं। मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी के दौरान भी जारी रहेगा। भविष्य में जलवायु के बारे में सटीक भविष्यवाणी के लिए आवश्यक है कि पृथ्वी प्रणाली की प्रक्रियाओं के ज्ञान में सुधार के लिए रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाया जाए और जलवायु मॉडल पर काम किया जाए। वैश्विक भविष्यवाणी और मात्रात्मक विश्लेषण में अग्रणी संस्था आॅक्सफोर्ड इकोनोमिस्ट ने पाया है कि भारत में जहां जनसंख्या अधिक है वहां पर तापमान में 0.5 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है और जहां तापमान लगभग 26 डिग्री सेंटीग्रेड है वहां पर सकल घरेलू उत्पाद के स्तर में वृद्धि हुई है।

इस अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण प्रति व्यक्ति आय के मामले में 75 प्रतिशत देशों की प्रति व्यक्ति आय में गिरावट आएगी। इस अध्ययन के अनुसार भविष्य में जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक देशों में लोगों की आजीविका प्रभावित होगी। जलवायु परिवर्तन परिदृृश्य का दूसरा पहलू कोरोना महामारी है। जिसके चलते प्रकृति की पारिस्थितिक प्रणाली बिगड़ी है हालांकि कोरोना महामारी के दौरान प्रदूषण स्तर में काफी गिरावट आयी है। इसी तरह मानव द्वारा प्रकृति के दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन हुआ है। रिपोर्ट मे कहा गया है न केवल भारत में अपितु 2014 के बाद संपूर्ण विश्व में पांच वर्ष सबसे गर्म रहे हैं। आर्कटिक क्षेत्र का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। वर्ल्ड मीटियोरोजिकल आर्गेनाइजेशन के आकलन के अनुसार 2016 से 2019 के बीच तापमान सर्वाधिक रहा है और इस वर्ष इसके और बढ़ने की संभावना है। हालांकि इस विषय पर काफी चर्चा हुई है किंतु इस संबंध में सरकार द्वारा कोई खास कार्यवाही नहीं की गयी। एक गरीब देश होने के नाते हम निवारात्मक उपाय नहीं कर सकते हैं।

इसी तरह बाढ और सूखा नियंत्रण के लिए दीर्घकालीन कदम उठाने की दिशा में भी ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हंै जिसके चलते देश में लगभग हर वर्ष बाढ और सूखे की स्थिति बनी रहती है। उदाहरण के लिए देश के 870 संरक्षित क्षेत्रों को लें जिनमें राष्ट्रीय पार्क, वन्य जीव अभयारण्य, संरक्षित अभयारण्य, संरक्षित वन सामुदायिक वन आदि शामिल हैं। हालांकि हाल के वर्षों में संरक्षित क्षेत्रों की घोषणा की जाती रही है किंतु उनके संरक्षण, प्रबंधन या उनको वित्तीय सहायता देने के लिए संस्थागत उपाय नहीं किए गए।

एक हाल की रिपोर्ट के अनुसार 100 वर्ग किमी के कम आकार के 65 प्रतिशत संरक्षित क्षेत्र हमारे पारितंत्र के लिए पर्याप्त नहंी हैं। हमारे देश में केवल 28 संरक्षित क्षेत्र 1000 वर्ग किमी आकार के हैं। शिकारियों और टिम्बर माफिया से संरक्षण के लिए प्रशिक्षित कर्मियों की कमी के कारण संरक्षित क्षेत्र में अतिक्रमण बढता जा रहा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि ये पार्क जीव जन्तुओं और वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों के लिए अपिरहार्य हैं। संरक्षित क्षेत्र मानव समाज के लिए पारिस्थितिकीय सेवाएं भी उपलब्ध कराते हैं। सरकार द्वारा प्रायोजित एक अध्ययन के अनुसार देश के 10 बाघ अभयारण्य लगभग 330 बिलियन रूपए मूल्य की जनसंवाएं उपलब्ध कराते हैं किंतु उनके संरक्षण के लिए वित्तीय सहायता पर्याप्त नहीं है जिससे उनके संरक्षण के लिएए वांछित उपाय नहीं किए जा रहे हैं।

धरती के तापमान में वृद्धि का भारत सहित अनेक देशों की आर्थिक वृद्धि पर बड़े पैमाने पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। इसलिए केवल बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाय हमें पर्याववरण के संरक्षण के लिए सुनियोजित रणनीति अपनानी होगी और जमीनी स्तर पर समुचित सुरक्षोपाय करने होंगे। हाल के समय में घटित अनेक घटनाएं इस बात की ओर इंगित करती हैं कि उद्योग आवश्यक सुरक्षोपायों का पालन नहीं करते हैं और राजनेताओं तथा प्रवर्तन एजेंसियों को पैसे देकर अनेक तरह के नियम-विनियमों का उल्लंघन करते हैं। पर्यावरण की निगरानी नियमों और विनियमों को सुदृढ बनाया जाना चाहिए ताकि जलवायु परिवर्तन की गति सीमित की जा सके और इसके चलते देश को होने वाले आर्थिक नुकसान से बचा जा सके। आर्थिक विकास के मार्ग को बदलना होगा। आर्थिक विकास की सतत नीति अपनानी होगी साथ ही प्रशासन को सुदृढ करना होगा ताकि देश के गरीब ग्रामीण लोगों को अनेक प्रकार की पर्यावरणीय आपदाओं से बचाया जा सके।

                                                                                                               -धुर्जति मुखर्जी

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