किसानों की आय वृद्धि के लिए नीति निर्माण की आवश्यकता

देश में पिछले कुछ वर्षों से किसानों की ऋण माफी चुनाव जीतने का अचूक सूत्र बन गई है। पिछले दो वर्षों में हुए आठ राज्यों के विधानसभा चुनाव इसका जीवंत उदाहरण हैं। इन आठ राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसी पार्टी को बहुमत मिला जिसने किसानों की कर्ज माफी का आकर्षक वादा किया। कांग्रेस पार्टी ने अभी हाल ही में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसानों की ऋण माफी का चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था। जिसके कारण पार्टी को तीनों राज्यों में किसानों का अप्रत्याशित बहुमत मिला।

कर्जमाफी आज चुनाव जीतने का ट्रायल एंड टेस्ट फॉर्मूला बन गया है। इस फॉर्मूले से देश की राजनीतिक पार्टियों को जबरदस्त जीत मिल रही है ,लेकिन देश की अर्थव्यवस्था हार रही है। इस पर रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत तेरह अर्थशास्त्रियों ने चिंता व्यक्त करते हुए यह अपील की है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र में ऋण माफी जैसे लोकलुभावन वादे ना करें। अर्थशास्त्रियों ने लगातार ऋण माफी से अर्थव्यवस्था की रफतार धीमी होने की आशंका जताई है।

रघुराम राजन ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखकर भी कहा है कि कर्जमाफी जैसे मुद्दे चुनावी वादों में शामिल नहीं होने चाहिए। यह देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक पार्टियां, हर वह वादा कर देती हैं जो चुनाव जीतने के लिए जरूरी है। देश में चुनावी वादों को घोषणापत्र में जगह देने से पहले विशेषज्ञों से विचार-विमर्श नहीं किया जाता है। ऋण माफी के वादों का बोझ अर्थव्यवस्था पर ऐसे ही बढ़ता रहा तो देश की अर्थव्यवस्था का पहिया पूरी तरह जाम हो जाएगा। ऐसी स्थिति में पूरे देश को बड़े आर्थिक संकट से गुजरना पड़ सकता है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान जेडीएस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह अनुमान लगाया था कि राज्य के सभी किसानों का ऋण माफ करने के लिए लगभग 53,000 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इसके लिए कर्नाटक सरकार ने 44,000 करोड़ रुपए की ऋण माफी की घोषणा कर दी थी। लेकिन हकीकत यह है कि छह महीनों में राज्य सरकार केवल 800 किसानों के ही कर्ज माफ कर पाई है। क्योंकि कर्नाटक जैसे राज्य के लिए इतना कर्ज माफ करना असंभव सा है। वित्त वर्ष 2016 – 2017 के बजट में कर्नाटक सरकार की कुल आय 1,32,867 करोड़ रुपए थी। जबकि अभी वर्तमान में कर्नाटक के किसानों पर 53,000 करोड़ रुपए का कर्ज है।

इस हिसाब से राज्य के किसानों का ऋण कर्नाटक सरकार की कुल आय के 40 फीसद के लगभग है। अगर कर्नाटक सरकार 44,000 करोड़ रुपए का पूरा ऋण माफ करती है तो राज्य इससे गंभीर आर्थिक संकट में पड़ जाएगा। क्योंकि राज्य सरकार अपनी आय का 40 फीसद कर्जमाफी में लगा देती है तो बाकी के कार्यों के लिए बजट कहाँ से आयेगा? ऐसे में सरकार के पास किसानों के कुल कर्ज को माफ करने के तीन ही तरीके बचते हैं। पहला, सरकार अपने प्रशासनिक खर्च को बहुत कम कर दे। इसमें राज्य कर्मचारियों के वेतन का हिस्सा भी शामिल है। जाहिर है कर्मचारियों का वेतन से कटौती करना असंभव सा है। दूसरा, सरकार सामाजिक सुरक्षा और विकास योजनाओं पर होने वाले खर्च को कम कर दे। जिसमें चिकित्सा, सड़क, बिजली और पानी जैसी आधारभूत जरूरतें भी शामिल हैं।

राज्य के विकास की गति मंद होने के नुकसान के कारण ऐसा करना भी संभव नहीं है। तीसरा, सरकार राजकोषीय घाटे की पूर्ति के लिए जनता पर अतिरिक्त कर लगाए। यानी ऋण माफी के लिए तीनों ही उपाय असंभव से हैं। आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार देश में ग्यारह लाख करोड़ रुपए का होम ऋण, सत्तर हजार करोड़ रुपए का शिक्षा ऋण, दो लाख करोड़ रुपये का आॅटो व्हीकल ऋण और पांच लाख करोड़ रुपए का पर्सनल लोन ले रखा है। इतना ऋण माफ करना किसी भी सरकार के लिए असंभव है, लेकिन कल को कोई पार्टी चुनाव जीतने के लिए इस तरह के ऋण माफ करने का वादा करती है तब अर्थव्यवस्था का क्या होगा?

आजादी के बाद किसानों ने अपनी मेहनत से देश को खेती में आत्मनिर्भर बनाया है। आज हमारे देश की सरकारों को 135 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए किसी और देश की तरफ देखने की जरूरत नहीं है। इसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ देश के किसानों को जाता है। देश के लिए किसानों की निष्ठा अमूल्य है, लेकिन सरकारों ने किसानों को लोकलुभावन वादों के जाल में फंसाकर उनकी उन्नति के मार्ग में बड़ा रोड़ा खड़ा कर दिया है। आज भी देश की सरकारों के पास किसानों के समग्र विकास और आय बढ़ाने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है।

अश्विनी शर्मा 

 

 

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