विद्यालयी शिक्षा में सुधार की आवश्यकता

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हाल ही में शिक्षा की निगरानी के बारे में यूनेस्को द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2.8 मिलियन बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। 11 मिलियन बच्चे माध्यमिक स्तर से शिक्षा छोड़ देते हैं और 47 मिलियन बच्चे उच्च माध्यमिक स्तर से विद्यालय छोड़ देते हैं। सच यह है कि देश के कुल बच्चों में से एक चौथाई माध्यमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते हैं। देश में 266 मिलियन वयस्क और 33 मिलियन युवा लिख या पढ़ नहीं सकते हैं और भारत जैसे उच्च आर्थिक वृद्धि दर वाले देश के लिए यह बड़े दु:ख की बात है। इस मुद्दे को बार-बार उठाया जाता है कि शिक्षा पर बहुत कम खर्च किया जाता है और यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3.8 प्रतिशत है जिसके चलते शिक्षा की यह स्थिति बनी हुई है।

साथ ही अध्यापकों में कर्तव्य निष्ठा और समर्पण का अभाव है और शिक्षा से संबंधित कल्याण योजनाओं की निगरानी भी नहीं की जाती। वस्तुत: ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर शिक्षा अवसंरचना बड़ी दयनीय स्थिति में है। विद्यालयों में शौचालय, पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं, विद्यालय भवन आदि की दयनीय स्थिति के कारण भी बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते हैं। शहरी क्षेत्रों में बडेÞ-बड़े प्राइवेट स्कूलों में छात्रों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और इसके चलते देश में विद्यालयी शिक्षा के सभी पहलुओं की समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है। विद्यालयी शिक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। विद्यालयी शिक्षा की समस्याएं, शिक्षण का स्तर, विद्यालयों में अनुशासन, पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता, छात्रों के साथ व्यवहार आदि हैं।

विभिन्न सर्वेक्षणों से पता चला है कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आयी है और इसका कारण अध्यापकों की उदासीनता है। नए कानूनों के अनुसार अध्यापक छात्रों को अनुशासित करने के लिए उनकी पिटाई नहीं कर सकते हैं। मुख्य मुद्दा अध्यापकों की गुण्वत्ता और अध्यापन के प्रति कर्तव्य निष्ठा है। रिपोर्ट के अनुसार 1297 गांवों में पाया गया कि 24 प्रतिशत ग्रामीण अध्यापक विद्यालय के निरीक्षण के दौरान अनुपस्थित थे। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि छह राज्यों में 619 विद्यालयों के निरीक्षण के दौरान 18.5 अध्यापक अनुपस्थित थे, जिनमें से 9 प्रतिशत छुट्टी पर थे। 7 प्रतिशत अन्य आधिकारिक कार्यों में लगे थे और 2.5 प्रतिशत बिना किसी सूचना के अनुपस्थित थे।

इस बात को सब स्वीकार करते हैं कि अधिकतर सरकारी स्कूलों में अध्यापन का स्तर बहुत खराब है, हालांकि दक्षिणी राज्यों में इसमें कुछ सुधार आया है। रिपोर्ट के अनुसार प्रभावी नीतिगत कदमों के कारण अध्यापकों की अनुपस्थिति प्रभावित हुई है जिसमें विद्यालय से दूरी, छात्र-अध्यापक अनुपात और कार्य की खराब दशाएं प्रमुख हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि प्राइवेट ट्यूशन की प्रवृति बढ़ती जा रही है और इससे छात्रों पर शैक्षिक भार बढ़ता जा रहा है। व्यक्तिगत ट्यूशन या उपचारात्मक कक्षाओं से छात्र को लाभ हो सकता है किंतु इस पर खर्च होने वाली राशि से छात्र का कल्याण प्रभावित होता है और अध्यापकों पर दबाव बढ़ता है।

प्राइवेट ट्यूशन की प्रवृति बढ़ती जा रही है। माता-पिता भी सोचते हैं कि प्राइेवट ट्यूशन के बिना उनके बच्चे का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहेगा और अब तो कक्षा 2 और 3 के छात्रों को भी प्राइवेट ट्यूशन लेते हुए देखा जा सकता है। अब तक शिक्षा के स्तर में गिरावट का एक कारण विद्यालयों में अनुशासन का अभाव भी है। अध्यापक छात्रों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने से डरते हैं, जबकि छात्र अपने गृह कार्य करने की परवाह तक नहीं करते हैं। यही नहीं कुछ राज्यों में आठवीं कक्षा तक फेल न करने का निर्णय किया गया है जिससे छात्र पढ़ाई में रूचि ही नहीं लेते हैं। कुछ छात्रों में अच्छे अंकों के साथ पास होने की ललक रहती है।

किंतु विद्यालयों में राजनीति के प्रवेश से वातावरण और खराब हुआ है। अनुशासन भंग हुआ है, छात्रों को अनुशासित करने के लिए पिटाई बंद करने से छात्र अनुशासनहीन हो गए हैं। शिक्षाविद् इस बारे में बहस कर रहे हैं कि क्या छात्रों को अनुशासित करने के लिए दंड आवश्यक है। कुछ का मानना है कि छात्रों द्वार पढ़ाई न करने, गृह कार्य न करने और कक्षा में ध्यान न देने के लिए दंड आवश्यक है। दूसरी ओर छात्रों को प्यार और स्रेह न मिलने के कारण वे अध्यापकों की अवज्ञा करते हैं और उनका सम्मान नहीं करते हैं। संप्रेषण एक कला है और अध्यापक तब तक छात्रों के मन में अपनी पैठ नहीं बना सकते, जब तक वे इस कला में सिद्धहस्त न हों।

पाठ्यक्रम भी महत्वपूर्ण है। अधिकतर राज्य शिक्षा बोर्डों का पाठ्यक्रम पुराना है तथा राज्य स्तर पर पाठ्यक्रम में बदलाव के बारे में कोई विचार नहीं किया जाता है। कुछ राज्यों में पहले पर्यावरण विज्ञान को पढ़ाया जाता था किंतु अब दो-तीन साल से यह भी बंद कर दिया गया है। इन बातों से पता चलता है कि विद्यालयी शिक्षा के प्रति लोगों की निष्ठा नहीं है। चाहे वह विद्यालयों में समुचित सुविधाओं का विकास करना हो या पाठयक्रम विकास हो। इसके लिए पर्याप्त बजट प्रावधान नहीं किया जाता है जिसके चलते ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यालयों में सुविधाओं का अभाव है।

हाल ही में ऐसी खबरें भी आई थी कि विद्यालयों में शौचालय उपयोग लायक नहीं हैं या छात्रों के शौचालय में पानी नहीं है। विद्यालयों के सामने जल जमाव से छात्रों को विद्यालय पहुंचने में दिक्कत होती है और आशा की जाती है कि प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत सभी विद्यालयों में शौचालय बनाए जाएंगे। विद्यालयी शिक्षा की अनेक समस्सयाएं हैं तथा इनका समाधान आसान नहीं है। किंतु शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए कुछ कदम अवश्य उठाए जा सकते हैं और इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि सभी सरकारी विद्यालयों में अध्यापकों पर कड़ी निगरानी रखी जाए।

इसके लिए सरकार अध्यापकों के कार्य निष्पादन और छात्रों के प्रति उनके दृष्टिकोण की निगरानी के लिए सेवानिवृत सरकारी अधिकारियों की सेवाएं ले सकता है और इसके लिए उन्हें मानदेय में छोटी सी राशि देनी पड़ेगी और ये अधिकारी जिला मजिस्टेÑट को अपनी त्रैमासिक रिपोर्ट दे सकते हैं। जिसमें वे किसी विकास खंड में विद्यालयों की समस्याओं और उनके निराकरण के लिए उपायों का सुझाव दे सकते हैं। चूंकि वे सेवानिवृत अधिकारी होते हैं इसलिए वे सरकार पर दबाव बना सकते हैं कि विद्यालयों की समस्याओं का निराकरण किया जाए।

देश में असमानता को दूर करने तथा देश के दीर्घकालीन विकास के लिए शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आवश्यक है। अधिक जनसंख्या का लाभ हम तब तक नहीं उठा सकते जब तक विद्यालयी शिक्षा में सुधार न किया जाए। प्राथमिक विद्यालयों में सुधार के लिए संसाधन चाहिए, किंतु जिला और विकास खंड स्तर पर विद्यालयों की निगरानी भी की जानी चाहिए जो वर्तमान में न के बराबर है। यदि 100 मिलियन बच्चे लिखना-पढ़ना भी न जानें तो एक परिपक्व अर्थव्यवस्था या लोकतंत्र के रूप में भारत का विकास संभव नहीं है।

-डा. ओइशी मुखर्जी