वर्तमान समय की शिक्षा व्यवस्था को देखकर महसूस होता हैं कि नीचे से लेकर ऊपर तक पूरे शिक्षा तंत्र को बदलने की जरूरत है। हम उपाधियां बांट रहे है मगर रोजगार नहीं है। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का अभाव है। लंबे समय से नई शिक्षा नीति की जरुरत महसूस की जाती रही हैं मगर इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है। आज के आधुनिक तकनीकी युग में कई पाठ्य सामग्री प्रासंगिक नहीं रह गई है। समय के साथ शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन होना भी जरूरी है।
गौरतलब है कि वर्तमान में जो शिक्षा नीति अमल में लाई जा रही है यह वर्ष 1986 में तैयार की गई थी, जो कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर आधारित थी उसमे सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता तथा समाजवादी समाज की स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। हालांकि 1992 में उसमे कुछ बदलाव जरूर किए गए लेकिन तब भी वह वर्तमान दौर की आवश्यकताओं की पूर्ण रूपेण पूर्ति कर पाने में सफल नहीं हो पाई है। वर्तमान केन्द्र सरकार ने के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में नई समिति का गठन तो किया लेकिन यह शिक्षा नीति धरातल पर नहीं लाई जा सकी है।
शिक्षा ही मानवीय मूल्यों की पुष्टि का प्रभावी उपादान है, विवेक को विकसित करने का माध्यम है और अधिकारों के प्रति जागरूकता के साथ कर्तव्य के प्रति निष्ठा और समर्पण का बोध है। शिक्षा नीति ही ‘राष्ट्र नीति ‘ होती है जो किसी भी राष्ट्र की दिशा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। किसी देश के विकास की पहली शर्त यही है कि उस देश के नागरिक सुशिक्षित हो। शिक्षा से ही व्यक्ति का विकास, समाज का विकास और राष्ट्र का निर्माण होता है। स्कूल और कॉलेज में दी गई शिक्षा समाज और देश का भविष्य तय करती है।
लम्बे समय से शिक्षा के ढांचे में व्यापक परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता महसूस की जाती रही है। सबसे बड़ी बात है नई पीढ़ी में नैतिकता कायम करना। शिक्षा समाज का प्रेरक बल है और शिक्षक उसकी प्रेरणा। इसलिए वर्तमान में नैतिक पतन के लिए कहीं न कहीँ हमारी शिक्षा पद्धति जिम्मेदार हैं। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में भौतिकता की अधिकता है और नैतिक मूल्यों का अभाव हैं।
शिक्षा ही मानवीय और नैतिक मूल्यों की स्थापना का सशक्त माध्यम है। जहाँ हमारी शिक्षा का दर्शन नैतिक और मानवीय होना चाहिए वहीँ दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा प्रणाली में अपसंस्कृति और असभ्यता इतनी हावी है कि हम दुष्कर्म, महिला अत्याचार, भेदभाव, शोषण आदि से समाज को डुबो रहे हैं। यह एक सीमा तक सही है कि हम रोजगारपरक शिक्षा से डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, उद्यमी तैयार कर रहे है मगर दूसरी तरफ घातक पहलू यह है कि इसी शिक्षा पद्धति से हम अपने संस्कारों और समाज के मूल्यों को गर्त में ले जा रहे है।
बदलते परिवेश में जरूरत है ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जो पूर्णतया शोषणमुक्त और न्यायसंगत समाज का निर्माण करने में सहायक हो। अब स्कूल और कॉलेज में नैतिक शिक्षा अनिवार्य किए जाने की जरूरत है। आज आ” से ‘आदर’ और “इ” से “इज्जत” सिखाने की उतनी ही आवश्यकता जितनी की “क” से “कम्प्यूटर” सिखाने की आवश्यकता है। हमे ऐसा समाज निर्माण करना होगा जिसमे भौतिकता के साथ नैतिकता, व्यावहारिक्ता और मानवीय गुणों का समन्वय हो। हमे यह नही भूलना चाहिए कि कोई भी समाज तब तक समृद्ध नही हो सकता जब तक वहां दी जाने वाली शिक्षा सामाजिक, लौकिक, व्यावहारिक और नैतिक न हो। संस्कारों और नैतिक मूल्यों के द्वारा सभ्य समाज की स्थापना करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
शिक्षा नीति तकनीक के साथ, नैतिकता, कौशल और रोजगार को बढ़ावा देने वाली होनी चाहीए। शिक्षा नीति में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की उपयोगी बातें ग्रहण करने के साथ ही हमारी परम्परा तथा सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश किए जाने की जरूरत है। वर्तमान में पाठ्यसामग्री में मानवीय मूल्यों की कमी, शिक्षण संस्थाओं में संसाधनों की अनुपलब्धता, शिक्षकों पर अतिरिक्त कार्य का दबाव और शिक्षण कौशल की कमी, शिक्षा क्षेत्र में राजनीति के अनावश्यक हस्तक्षेप आदि से जो शिक्षा का स्तर कम हुआ है उसके लिए परिवर्तन किए जाने की जरूरत है। शिक्षा में गुणवत्ता का प्रश्न हमेशा से पहले स्थान पर रहा है।
इसलिए शिक्षा में गुणवत्ता कायम रखने के लिए जमीनी वास्तविकताओं का अध्ययन करके, फिर उसके अनुसार नीति निर्माण और मॉनिटरिंग वाले सिस्टम को मजबूत बनाने की जरूरत है। शिक्षा पद्धति में सभी लोग अध्यापकों के प्रति सम्मान, सरकारी स्कूलों की घटती साख, निजीकरण, व्यापारिकरण, शोध, इनोवेशन, क्वालिटी और रोजगार आदि से जुड़ी समस्याओं का हल ढूंढना चाहेंगे। अब अंक नियंत्रित ज्ञान प्राप्त करने की व्यवस्था को समाप्त करके व्यक्तित्व विकास एवं कौशल विकास के पक्षों पर अधिक महत्व दिए जाने की आवश्यकता है।
अभी तक मूल्यों की शिक्षा का अभाव तथा सामान्य जीवन में उनके क्षरण के जो परिणाम सामने आए है अगर उनको ध्यान में रखकर नई नीति का निर्धारण हो तो ही यह सफल हो पाएगी। विद्यालयी शिक्षा और उच्च शिक्षा में शिथिलता भी शिक्षा व्यवस्था का एक बड़ा दोष है। सबसे बड़ी चुनौती शिक्षण संस्थाओं में उस वातावरण को तैयार करने की है जहां अध्यापक और विद्यार्थी ज्ञान के सर्जन और समझ का साथ साथ मिलकर आदान प्रदान करते है और सर्वजनहित में उसके उपयोग की संभावनाओं का आकलन करके इनोवेशन करते है। गौरतलब है कि विद्यार्थी, पाठ्यक्रम, विधा और शिक्षक ये शिक्षा के चार मुख्य अवयव है। इनमें ही सर्वप्रथम सुधार के प्रयास हो। विद्यार्थियों को पूरी तरह समझना, उसकी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानना, बच्चे के पूर्व ज्ञान और समझ का अनुमान लगाकर आगे बढ़ाना, रचनात्मकता के विकास और संकल्पनाओं को प्रोत्साहन, ये सभी बातें शिक्षा का आधार होनी चाहीए। कोशिश यह हो कि शिक्षा से बच्चों की कल्पनाशीलता, वैचारिक क्षमता, जिज्ञासा और सर्जनात्मकता को नए पंख मिलें।
पाठ्यक्रम में स्थानीयता को अधिक अवसर मिलें, अध्यापक स्वयं इसका निर्धारण करें और भाषागत समस्याएं न पैदा हो इसका भी ध्यान रहे। स्थानीयता से क्षेत्रीयता, फिर राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता का स्तर क्रमबद्ध और धीरे धीरे बढ़ाया जाए। अध्यापक-बालक सम्बन्ध सजीव, सजग एवं सतत रूप से हो। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि शिक्षण संस्थाओं में उचित अनुपात में शिक्षक हो, खेल एवं अन्य सहशैक्षिक गतिविधियों की भागीदारी अनिवार्य हो, स्कूलों में मिड डे मील में पोषकता हो और अध्यापक को एमडीएम सहित गैर शैक्षणिक गतिविधियों से मुक्त रखा जाए।
शिक्षकों की नियुक्ति पारदर्शी तरीके से हो, शिक्षक प्रशिक्षण आधुनिक विधि से सम्पन्न करवाए जाए। नई तकनीक, संचार और गैजेट का उपयोग अधिक से अधिक किया जाए, साथ ही साथ इसके दुरुपयोग के प्रति सजगता भी हो। मूलरूप से शिक्षा के माध्यम से आत्मगौरव, मूल्य चेतना और विवेक बोध आदि आवश्यक उद्देश्यों की आवश्यकता की पूर्ति के प्रयत्न होने चाहिए, जिससे कि आज शिक्षितों के नाम पर जो नैतिक मूल्य विहीन सुविधाजीवियों की कर्तव्यबोध विहीन भीड़ हो गई है उससे मुक्ति मिल सके। आज के युग में व्यावहारिक स्तर पर प्रमाणपत्रों और उपाधियों से अधिक योग्यता और गुणवत्ता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। वर्तमान शिक्षा को आर्टिफिशियल इंटेलिजन्स के साथ साथ टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से अधिक समग्र बनाने की जरूरत है और साथ ही साथ प्रोफेशनल कोर्स के माध्यम से रोजगार प्रदान करने लायक भी होनी चाहिए। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि नई शिक्षा नीति का मसौदा बने और वह देश की अपेक्षाओं और आज की आवश्यकताओं के अनुरूप बने।
नरपत दान चारण
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