Nazran da Noor: नजरां दा नूर

Nazran-da-Noor

अंधेरे को चीरती गोल रोशनी अपने गंतव्य की ओर भागी जा रही थी। रिटायर्ड मेजर सरदार गुलबाग सिंह। नियम और उसूलों के पक्के। सुबह चार बजे नहीं कि लेफ्ट-राइट शुरू। वह अपनी चाय बनाकर पी चुके हैं। खिड़की पर बूंदों की दस्तक ने सन्नाटा तोड़ा। निगाहें उस पार देखने का फिजूल प्रयास करने लगी। दून घाटी के सिर पर सजे मुकुटों के बीच बसा सिक्ख गुरु राम राय के डेरे का नगर – देहरादून। घड़ी ने साढेÞ चार बजाए। पहिए चरमराए। एक आवाज गूंजी, ‘….काठगोदाम-देहरादून एक्सप्रेस गाड़ी संख्या 14119 प्लेटफॉर्म नंबर एक पर आ चुकी है।’ तलाश को शायद यहीं मुकाम मिले। मन ने गवाही दी, ‘वाहे गुरु फतेह करेगा।’ नजरें नमन् भाव में मुंद गईं।

‘पैरी पैणा पाप्पा जी!’ आवाज ने तन्द्रा तोड़ी।

अनजाने शहर में अपनी सी आवाज। सपना नहीं, यह सच था। पैरों में नेपाली गोल्ड स्टार। उन्हे सहलाता गुलाबी बूटों वाला गर्म घाघर। कमर पर लिपटी मक्खन कलर की पंखी। फौजी-सी तनी हरी बास्कट के नीचे सोंधी खुशबू का आभास कराती फुल बाजू की कमीज। गले में लाकेट। नाक में नथुली और सिर पर आशिक पिछौड़ के बीच झांकती-बोलती दो आंखें। उम्र होगी, यही कोई 22-23 साल।

सरदार साब के होंठ बुदबुदाए, ‘खुश रह पुत्तर।’ ‘रिक्शा कुली…कुली चाइदा पाप्पा जी?’ रिक्शा कुली.. हां चाइदा ए….कित्थे है?

‘मैं हैंगिया। मेरा रिक्शा बाहर हैगा।’ ‘न नंबर बैज ते न यूनिफार्म हुह, रिक्शा कुली!’ सख्त अनुशासन का आदि फौजी दिमाग कुछ कहता, इससे पहले ही लड़की बोल उठी, ‘क्यूं मैं नी कार सकदी?’ सरदार साब को उसका यह सवाल पसंद आया; बोले, ‘क्यूं नी कार सकदी पुत्तर? हौसला बुलंद होय तां कुछ भी कार सकदी है।…दस, किन्ने पैहे?’

‘ओदी फिक्र न करो पापाजी। हक्क छड्डांगी नी। ज्यादा मैनु चाइदा नी है।…कित्थे चलना है?’ ‘सहारनपुर रोड, होटल ग्रांड लीगेसी…पैलेई बुक करता हैगा।’ एक ट्राली बेग और एक ब्रीफकेस। रिक्शा कुली आगे-आगे, सरदार साब पीछे-पीछे। तभी अचानक स्टेशन की बत्ती गुल हो गई। टेज्न की खिड़कियों से झांकती रोशनियों में आंखों ने नया नजारा देखा। जाने क्या हुआ कि रिक्शा कुली पलटी, उन्हे सामान थमाया और दौड़कर कोच में घुसती एक परछाई को पकड़कर गुत्थमगुत्था हो गई। बाहर आई तो उसके हाथों में एक स्मार्टफोन था। उसकी आंखें किसी को ढूंढ़ रही थी। उसने एक सफेद ओवरकोट पर थाप लगाई, ‘ओ मैडम जी। बॉबकट गर्ल ने पलटकर देखा। रिक्शा कुली ने उसकी हथेली में स्मार्टफोन थमाया, मैडम जी, यह देहरादून है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। बी एलर्ट

यह रिक्शा कुली का दूसरा रूप था। सरदार साब के मुंह से निकला, ‘ब्रेव गर्ल!’ बाहर अभी अंधेरा था। उसने एक हाथ से सामान थामा, दूसरे हाथ से सरदार साब की हथेली और अपने रिक्शा की ओर बढ़ गई। पता ही नहीं चला कि सहारनपुर रोड तक की दूरी जाने कब तय हो गई। छोटा कद, पर हिम्मत और ताकत..दोनों में किसी से कम नहीं। सरदार साब उसके ख्याल में ही खोए थे, ‘ऐदा दी कुड़ी नू फौज च होना चाइदा है। शी इज डिफरेन्ट!’

सायं…सायं की दो आवाजों ने झटका दिया। दौड़ लगाता तीसरा बाइकर सटता कि इससे पहले वह तैयार थे। फौजी हाथ चल गया। किंतु बदमिजाज जवानी को न उम्र का लिहाज था, न अनुशासन। बाइकर ने पलटवार को हाथ उठा दिया। किंतु रिक्शा कुली की लात चल चुकी थी। इस झड़प में मोटरसाइकिल और रिक्शा दोनो का बैलेंस बिगड़ गया। फिर क्या हुआ, सरदार साब को कुछ पता नहीं। होश आया तो खुद को हॉस्पीटल के बेड पर पाया। सामने दिखी बीवी प्रीतो। पति की आंखों में अपना अक्श देख प्रीतो की आंखें तरल हो आईं; हाथ आसमान की ओर उठ गए, ‘वाहे गुरु, तेरा लख-लख शुक्र है।’ प्रीतो ने आगे बढ़कर सरदार साब का हाथ चूम लिया। ‘मेजर…सर! जय हिंद!!’, अमरजीत पुत्तर ने कुछ इस अंदाज में सैल्युट ठोका कि सरदार साब के होंठ मुस्कराये बिना नहीं रह सके।

‘पापाजी, नो फ्रेक्चर। नो इंटरनल इंजरी। आॅल रिपोटर्स आर ओ के।…इज देयर एनी बॉडी पेन?’

‘महसूस ता नी होरया’, सरदार साब ने न में सिर हिलाया।  ‘वैरी गुड! डॉक्टर नू वी त्वाडे होश च ओण दा इंतजार सी। हुण कोई फिक्र दी लोड नी हैगी। नाउ यू आर आॅल राइट।’ सरदार साब के मन में उठते सवालों का बिना पूछे ही अंदाजा लगा अमरजीत ने पूरी रिपोर्ट पेश कर दी, ‘होटल ग्रांड तो किसी कुड़ी ने फोन कित्ता सी। एत्थे एडमिट बी ओन्ने इ कराया सी।….’ तब तक आ चुकी नर्स ने जोड़ा, ‘… हां जी, दवाई-सवाई लाने जो गई हो; जब तक आपकी फैमिली नहीं आ न गई जी, दो दिन वह यहां से हिली भी नहीं जी। मैंने कहा भी जी कि बेटी, अब चिंता की कोई बात नहीं है; बोली, नहीं जी, मैं ऐसे छोड़ के नहीं जा सकती जी। हॉस्पीटल के खाने तक को हाथ नहीं लगाया जी।…क्या लगती थी जी वो आपकी?….चलो जी, आपकी कोई भी लगती हो। बहुत अच्छी लड़की थी जी वो। क्या तो जी नाम था उसका…हां गौरी, गौरी नाम है जी उसका।’

‘सही कैंदे हो सिस्टर। बैग विच कई हजारां द माल सी। चाहन्दी ता सामान ई ले के भज जांदी। ओने सेवा भी कित्ती। उत्तो पैहे वी खर्च कित्ते। मैं देन दी बड़ी कोशिश कित्ती, पर ओने मना करता। अजकल एदां दी कुड़ी लक्खां च कोई इक होंदी हय। होर गल्लां वी कित्ती बढ़िया-मिट्ठियां करदी सी।…रब ओनू वदिया घार ते घरवाला दे।’

फौजी में गुस्सा और उदारता…दोनों भाव एक साथ मौजूद होते हैं। प्रीतो कहे जा रही थी, सरदार साब के दिमाग में एक योजना आकार ले रही थी। उन्होने रिश्ते वालों के यहां जाने से पहले, रिक्शा कुली से मिलने का निश्चय कर लिया। अगली सुबह प्रीतो व अमरजीत के जागने से पहले ही स्टेशन के लिए निकल पडेÞ़; अकेले, बिना किसी को बताए। इस फौजी अफसर ने उस रिक्शा कुली में जाने क्या देख लिया था। लगातार चार घंटे तक बैठे रहे; एकटक राह निहारते। अमरजीत फोन पर फोन कर रहा था और वह थे कि ‘बस थोड़ी देर और, थोड़ी देर और…’ किए जा रहे थे। आखिरकार वह आई। सरदार साब ऐसे लपके, जैसे वह कई जन्म के बिछुडेÞ हों।

‘रिक्शा कुली ई ई ई!’ – आवाज कुछ ज्यादा ही तेज थी। एक साथ कई निगाहें सरदार साब की ओर घूम गईं। तेज कदम रिक्शा कुली ने खु़द आगे बढ़कर सरदार साब को थाम लिया, ‘पैरी पैणा पाप्पा जी।… पाप्पा जी, मैनु माफ कर देओ। मेरी ई गल़ती सी, जेणा त्वानू ऐना कष्ट झेलना पैया। तुसी चंगे हो गए। मैनु संतोष हो गया।…होर दस्सो, एत्थे किवें?’
वह कहे जा रही थी; सरदार साब उसके सिर पर हाथ फिराये जा रहे थे, ‘होटल ग्रांड!…चाल गौरी पुत्तर, आओ चलिए।’

होटल पहुंचे तो प्रीतो और अमरजीत.. होटल के रिसेप्शन पर ही बेचैन से टहलते मिल गए। परिचय की जरूरत नहीं थी। गजब की खुद्दार लड़की थी गौरी। वहीं से विदा हो जाना चाहती थी। किसी तरह साथ नाश्ता करने के लिए राजी हुई। सरदार साब की रुचि उसका अतीत जानने में थी। नाश्ता आॅर्डर करने से लेकर खाने तक के बीच में सरदार जी ने उसके सामने अपनी सारी फैमिली हिस्ट्री खोलकर रख दी। ‘साडे पंजाब की कुड़ियां ऐ करदियां ने…वो करदियां ने।’ ये वो सुनाते-परोसते अमरजीत ने भी उसे कुछ ज्यादा ही खिला दिया।

अपने प्रति इतना भरोसा, इतना अपनापन और प्यार देख रिक्शा कुली खुद को रोक नहीं पाई। उसके अतीत की नदी उसकी जुबां के रास्ते बह निकली।  ‘अमरजीत जी त्वाडे पंजाब दी कुड़ी नहीं यां मैं। अल्मोडे़ दी हां मैं…पक्की पहाड़न! हां ते पापाजी, कम्म करन दी आदत ते मैन्नु शुरू तों ही हां। अपणे घार दी सब तों वड्डी संतान सी मैं। पंज पैणा ते इक प्रा हैंगेया असी। पापाजी पी.डब्लयू.डी. विच ओवरसियर सी। कदे इस शहर ते कदे दूजे। तद यू.पी. विच सी उत्तराखण्ड। ऐंवई एत्थे-उत्थे ही पढ़्या असी पैण-प्रा। चाचा, ओदे थल्ले… ऊधमसिंह नगर विच कोतवाल सी। ओन्ना रौब-दाब, वर्दी…मैं शुरू तों ही पुलिस अफसर बनना चोंदी सी; लेकिन ग्रेजुएशन होंदे ही पापाजी ने आपणे ई स्टॉफ दे इक ओवरसियर अंकल दे मुंडे नाल मेरा व्याह करता। उस वेले वो पी.सी.एस. दी कोचिंग लैरया सी। परवार ते ओन्ना दी वड्डा सी। अंकल ते वो इलाहाबाद ही रैंदे सी। व्याह तो बाद मेरा धारचूला…पिण्ड विच रहना होया।

ओत्थे ई ओन्ना दी मरण दी खबर आई। न मेल, न मिलाप…बस, इक एक्सीडेन्ट ते सब कुछ खत्म! छह महीने इच ई कुड़ी तो सुहागन ते विधवा… सब हो गई मैं।’ ‘पापा जी, कि दस्सां… मैं भतेरा मन नाल काम कित्ता। छोटे-वड्डे…सब दे कहे नू सिर मत्थे रखया। मेरी एही आदत, मेरी दुश्मन बण गई। सवेरे पंज वजे तों रात्ती सोण तक…जिनु वेखो गौरी ऐ करना, गौरी वो करना। मैन्नु ऐदे नाल कोई दिक्कत नई सी। मैं एही सोच्या सी कि बाकी सारी जिं़दगी वोही घार दी सेवा च कट दांगी। पर हाल ऐ हो गया कि चाहे तवीयत खराब हो च कुछ, लकड़ी फाड़ेगी ते गौरी, कांस ले आयेगी ते गौरी, खेतां नू जोतणा होवे ते कटणा होवे ते गौरी। जे गौरी नी करेगी ते दूजा कोई हत्थ वी नी लायेगा।

बर्दाश्त तों बाहर तद हो गया, जद मैन्नु दिन-रात कोसयां गया। जवान विधवा होना, नर्क विच होण जीवेम भोग्या मैं।….मैं वी सोच लया कुछ वी करना पये, हुण ऐत्थे नी रैहवांगी। पापाजी ते कोल वी ओदों ही जावंगी, जदो ओना दे उत्ते बोझ नी, ओन्ना लय गर्व करन लायक हो जावंगी।….ऐस वास्ते एनी दूर भज आईं हां, जित्थे मैन्नू कोई पहचांणे नई।….होर आज वेखो जिद्दा वी हां, त्वाडे सामने हां।’

प्रीतो के चेहरे पर लाड उभर आया था। सरदार साब ने एक नजर अमरजीत पर डाली। वह भी बड़ी तल्लीनता से सब सुन रहा था। सरदार साब ने गौरी को फिर कुरेदा, ‘पुत्तर, मैं वी तैनू कोई रिक्शा कुली मन के थोड़ी न ले आया सी एत्थे। तैनू वेख के लग्या कि तू आमजेही कुड़ी तो नहीं ही हैगी। दिल विच होया कि जानना चाइदा ए। एस वास्ते लाया एत्थे।….. पुत्तर, मैनु जानना है कि अग्गे की होया? अग्गे की सोचया है? ऐवंई जिंदगी कटनी हय या कुछ करना वी है?.. हां, जे भरोसा न होय तां बिल्कुल न दसीं। मैं जोर नी पावंगा।’

रिक्शा कुली ने लंबी सांस छोड़ी, ‘कारना है पापाजी; भतेरा कुछ कारना है। वखाना है दुनिया नूं कि विधवा होन दा मतलब कूड़ा होन नी है। औरत दा कल्ला वी.. अपना कोई वजूद होंदा है ते मैं तां फिर वीं पहाड़ दी कुड़ी हां। पापाजी कि मैं जद घर छड्या ते कुल सात सौ रुपए सी मेरे हत्थ च। नौकरी दी तलाश च वी भत्तेरे दिन धूल चट्टी मैं। नौकरी देन आले वी मिल्ले, दया दिखाण वाले वी; लेकिन ओना विच अच्छी निगाह वाला इक वी नी मिल्या।…होर की है कि मैं मर वी सकदियां ते मार वी सकदियां, लेकिन बुरी नजरां बर्दाश्त नहीं कर सकदी।

किसी होर दी दया विच रहना ते मैन्नु बिल्कुल वी मंजूर नी।….तां मैं कि कित्ता कि किराए ते रिक्शा चलोन दा फैसला कर लेया।…हुण खाना बाहर खा लेन्नी अं। राती नेधेरे चार बजे ही नहा-धो के फ्रेश हो जान्नियां। पहले स्टेशन दी सवारी, फेर स्कूल दे बच्चे, फेर सवारी…कुल मिलाकर दुपहर तक कमन्नियां। दुपहर तो बाद आराम करदियां। शाम नू कोचिंग लैण जान्नियां; रात नू पढ़ाई। बस, ऐदा ही चल रह्या है। अज ते संडे है; इस वास्ते त्वाडे नाल रुक गई।’

‘घर दी याद नहीं ओंदी?’ इस बार प्रीतो ने टोका।

‘ओंदी है मम्मी जी, भतेरी ओंदी है। मैनु पता है के वो बडे़ परेशान होणगे; लेकिन हुण ता प्लेटफॉर्म ही मेरा घार है ते रेलवे स्टाफ, नाल दे रिक्शा वाले…मेरे घार वाले हैं। लोक्कां नू वेख के एत्थे ई सिख्खी मैं कई बोलियां, भाषा ते तौर-तरीके। हुण मैं नी डरदीं किसी तों। हजे दो साल ही तां होए ने मैन्नु। पता है पापाजी, इक गल दसां तां तुसी खुश हो जाणा है। प्री पास कर लयां। इंतजार कि कदों यू.के.पी.सी.एस मेन्स दा रिजल्ट आवोगा, अग्गे कदों इंटरव्यू पास करांगी, कदों अल्मोडे मुडंगी ते कदों पापाजी नू तसल्ली दांगी कि ओ सिर चख के कह सकदे कि मिस्टर हरपाल सिंह एैरी दी कुड़ी विधवा है, पर बोझ नई।’

‘प्रीतो, सुनया तूं?’ ‘हां, ब्होत प्यारी कुड़ी है। सरदार साब, ऐदां दी कुड़ी बोझ नहीं होंदी, किसी किस्मत वाले के घार दा नूर होंदी है।’ सरदार साब ने अपने बेटे अमरजीत की तरफ निगाह घुमाई। उसकी निगाह में भी वह अब रिक्शा कुली नहीं रह गई थी; गौरी हो गई थी; एक बहादुर लड़की! आंखों ही आंखों में एक सहमति हुई।

कहने को हम 21वीं सदी का भारत हैं। किंतु आज भी वैधव्य को इतनी बड़ी कमी समझा जाता है कि बेटी के सारे सद्गुण हल्के मालूम होने लगते हैं। दहेज, इसका एक कारण है; यदि वर विधुर न हो अथवा उसमें कोई कमी न हो, तो विधवा विवाह प्रस्ताव पर ज्यादातर का नाक-भौं सिकोड़ना, दूसरा कारण। किंतु जौहरी, हीरे का नूर देखते हैं, वह अब तक कहां और किस हाल में पड़ा था; यह नहीं। सरदार साहब ने बिना लाग लपेट के अपना प्रस्ताव रख दिया, ‘पुत्तर तूूं मेरा दिल खुश करता। मेरा देहरादून आना सफल हो गया। पता है, ऐ साडा पुत्तर है न, अमरजीत; ऐदे लई नूं दी तलाश च आया सी मैं।…त्वाडा कि विचार है ?’

गौरी चुप! अवाक!! उसने नजरें झुका ली। कहीं ना न कर दे। इस शंका के मन में आते ही अमरजीत टपका, ‘मैं पढ़्या-लिख्या हं। एसडीएम हं। ते पापाजी दा वी अच्छा-खासा फार्म हैगा हल्द्वानी विच। नौकर-चाकर हैं।….होर सुन, गौरी ऐदर वेख। ब्होत खुले ख्याल दे हैंगे मेरे मां-प्यो। मैं भी नीं रोकंगा। तू जो बनना चाहे, जो करना चाहे; वो करीं। तू कुमाऊं दी है, मैं सिक्ख हां। साडी फैमिली नू कोई फर्क नी पैंदा। तू मैनु पसंद है।’

अब प्रीतो की बारी थी, ‘मैन्नु वी पसंद है, पर गौरी नू वी तो तू पसंद होना चाइदा कि नहीं।…क्यूं गौरी ?’

गौरी की कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसका अतीत, उसके वर्तमान पर इतनी सहजता ने विश्वास करने से इंकार कर रहा था। किंतु वह खुश थी कि उसे उसका जौहरी मिल गया। विधवा का वैधव्य नहीं, गुण परखने वाले पारखी अभी जिंदा हैं। काश! हमेशा रहें। कहानी
-अरुण तिवारी

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।