नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में 12 नवंबर को होने वाले मतदान के पहले चरण के 4 दिन पहले बड़ी वरदात करके लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया में दखल देने की एक बार फिर नाकाम कोशिश की है। इसके पहले 30 अक्टूबर को दंतेवाड़ा में पुलिस व मीडिया टीम पर हमला किया था, जिसमें तीन पुलिसकर्मियों के साथ दूरदर्शन समाचार चैनल के कैमरामेन को प्राण गंवाने पड़े थे। 27 अक्टूबर को बीजापुर जिले में बुलेटप्रूफ बंकर वाहन को उड़ाया, जिसमें सीआरपीएफ के चार जवान शहीद हुए और दो घायल हुए। अब दंतेवाड़ा जिले के बचेली इलाके के खदान क्षेत्र में एक बस को आईइडी धमाका करके उड़ा दिया। जिसमें एक सीआरपीएफ जवान के साथ चार नागरिकों की मौत हो गई। पिछले 15 दिन में हुए ये हमले इस बात की तस्दीक हैं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र मजबूत है और पुलिस व गुप्तचर एजेंसियां इनका सुराग लगाने में नाकाम हैं। क्योंकि ताजा हमला उस वक्त हुआ है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जगदलपुर में चुनावी सभा को 9 नवंबर को जाने वाले थे। नक्सलियों ने जिस निजी बस को निशाना बनाया है, वह राष्ट्रीय खनन विकास निगम के बैलाडिला खनन क्षेत्र में तैनात सीआईएसएफ दल को चुनाव ड्यूटी के लिए बचेली जा रहे थे। इस हमले में पांच जवानों की मौतें हुई हैं। ये सभी जवान सीआईएसएफ की 502 बटालियन कोलकाता के थे। साफ है, कि सरकारी अमला इस नक्सली क्षेत्र में जान जोखिम में डालकर चुनाव प्रक्रिया संपन्न कराने में लगा है।
इस हमले से यह सच्चाई सामने आई है कि नक्सलियों का तंत्र और विकसित हुआ है, साथ ही उनके पास सूचनाएं हासिल करने का मुखबिर तंत्र भी हैं। हमला करके बच निकलने की रणनीति बनाने में भी वे सक्षम हैं। इसीलिए वे अपनी कामयाबी का झण्डा फहराए हुए हैं। बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा है, जबकि राज्य एवं केंद्र सरकार के पास रणनीति की कमी है। यही वजह है कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य या चुनाव प्रक्रिया संपन्न होती है तो नक्सली उसमें रोड़ा अटकाते हैं। नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार दावा कर रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आंकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही हैं, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश लग रहा है , बल्कि अब छत्तीसगढ़ नक्सली हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य बन गया है। अब बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिल रहे हैं। बावजूद भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते हैं। जबकि दूसरी तरफ नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से दुश्मनी ठन गई। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे।
हालांकि जवानों, नागरिकों के साथ खतरा राजनैतिक दलों के लिए भी बना हुआ है। इस पूरे क्षेत्र में माओवादियों ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया हुआ था। इसे प्रचारित करने के लिए नक्सलियों ने बड़ी संख्या में पर्चे बांटे और गांव की दीवारों पर पोस्टर भी चस्पा कर दिए । हालांकि माओवादी ऐसा हरऐक चुनाव में करते हैं, बावजूद स्थानीय लोग मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इससे जाहिर होता है कि लोगों का विश्वास लोकतंत्र में हैं और वे नक्सलियों से असंतुष्ट है। माओवादियों के मनोवैज्ञानिक आतंक का असर मतदाताओं पर असर नहीं डालता, इसलिए माओवादी हिंसा और बारूदी विस्फोट का साहरा लेकर खून की इबारतें लिखने में लगे हैं। चुनाव निर्बाध रूप से संपन्न चुनाव आयोग ने 65 हजार अतिरिक्त सुरक्षाबलों की तैनाती कराई है। माओवादी मंशा को चकनाचूर करने की दृष्टि से केंद्रीय सुरक्षाबल हरेक नक्सलबहु क्षेत्र में तैनात है। पहले चरण में 18 विधानसभा सीटों पर मतदान होना हैं। सुरक्षाबलों की इतनी तैनाती इसलिए है, जिससे लोग घरों से आश्वस्त होकर निकलें और निर्भय होकर मतदान करें। मतदान का बड़ा प्रतिशत ही आतंक का सही जबाव है।
जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरुरी हो जाता है, कि उसे नेस्तानाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय उचित हों, उनका उपयोग किया जाए ? किंतु इसे देश की आंतरिक समस्या मानते हुए न तो इसका बातचीत से हल खोजा जा रहा है और न ही समस्या की तह में जाकर इसे निपटाने की कोशिश की जा रही है ? जबकि समाधान के उपाय कई स्तर पर तलाशने की जरूरत है। यहां सीआरपीएफ की तैनाती स्थाई रूप में बदल जाने के कारण पुलिस ने लगभग दूरी बना ली है। जबकि पुलिस सुधार के साथ उसे इस लड़ाई का अनिवार्य हिस्सा बनाने की जरूरत है। क्योंकि अर्द्धसैनिक बल के जवान एक तो स्थानीय भूगोल से अपराचित हैं, दूसरे वे आदिवासियों की स्थानीय बोलियों और भाषाओं से भी अनजान हैं। ऐसे में कोई सूचना उन्हें टेलीफोन या मोबाइल से मिलती भी है, तो वे वास्तविक स्थिति को समझ नहीं पाते हैं। पुलिस के ज्यादातर लोग उन्हीं जिलों से हैं, जो नक्सल प्रभावित हैं। इसलिए वे स्थानीय भूगोल और बोली के जानकार होते हैं।
दूरदर्शन के पत्रकार की हत्या से भी यह खुलासा होता है कि माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। हालांकि कैमरामेन की मृत्यु के बाद नक्सलियों ने घड़ियाली आंसू बहाते हुए कहा है कि उनकी मंशा पत्रकार को मारने की नहीं थी। लेकिन हकीकत तो यह है कि वे पत्रकार को मारकर इतनी बड़े समाचार की सुर्खियों में आना चाहते थे, जिससे पूरे छत्तीसगढ़ में दहशत के वातावरण का निर्माण हों और मतदाता मतदान करने केंद्रों तक पहुंचे ही नहीं। लेकिन भारतीय लोकतंत्र और उसकी जनता के इरादे इतने मजबूत हैं कि किसी भी प्रकार की खूनी हिंसा का जवाब वे जनमत से देना अच्छी तरह से जानते हैं।
प्रमोद भार्गव
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