जब बारिश होती है तो मूसलाधार होती है। इस वर्ष बारिश के कारण देश के अनेक राज्यों में बहुत बर्बादी हुई है। ये राज्य आपदा क्षेत्र की तरह लगते हैं क्योकि बाढ के कारण अनेक गांव डूब गए हैं, सड़कें टूट गयी हैं, फसलों को नुकसान पहुंचा है, कई लोग बह गए हैं, रेल सेवाएं बाधित हो गयी हैं, हवाई अड्डे बंद करने पड़े हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गयी है तथा ऐसा लगता है कि सब कुछ थम गया है।
जिसके चलते आम जनता की परेशानियां बढ गयी हैं। बुरी खबरें बढती जा रही हैं। बाढ से अब तक 370 से अधिक लोग मर चुके हैं, 10 लाख से अधिक बेघर हो गए हैं और हजारों घर डूब गए हैं तथा ऐसा लगता है कि आपदा प्रबंधन स्वयं आपदा बन गया है। बाढ के कारण दक्षिण केरल, कर्नाटक, पश्चिमी महाराष्ट्र और गुजरात सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। अकेले केरल में 1 लाख 90 हजार लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। कर्नाटक में लगभग 7 लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है तथा विश्व विरासत स्थल हम्पी जलमग्न हो गया है। मध्य प्रदेश में बाढ़ से 52 और गुजरात में 69 लोगों की मौत हो चुकी है और फसल को भारी नुकसान पहुंचा है। बाढ के कारण हजारों एकड़ फसल को नुकसान हुआ है तथा सड़क और रेल लाइनों को भारी नुकसान पहुंचा है।
किंतु इन सबके बावजूद सरकार का दृष्टिकोण आपराधिक उदासीनता – कामचलाऊ है। हमेशा की तरह सरकार ने राहत और बचाव के लिए स्थानीय अधिकारियों के साथ सेना, नौसेना और वायु सेना के जवानों की तैनाती की है। प्रत्येक आपदा प्रभावित परिवार को 10 हजार रूपए की वित्तीय सहायता और मुआवजा दिया गया है। किंतु बाढ से निपटने के लिए हमारे नागरिक निकायों का तैयार न रहना दु:खद है जिसके चलते यह समस्या और बढ जाती है। नालों की सफाई नहीं की जाती है, पेड़ों की छंटाई नहीं की जाती है, सड़कें खुदी पड़ी हैं और हमारी अवसंरचना पहली बारिश को झेलने के लिए भी तैयार नहीं होती है। सरकार और प्रशासन तब हरकत में आता है जब जनजीवन थम जाता है और लोगों की जानें चली जाती हैं।
बाढ की विभीषिका को ईश्वर की मर्जी कहा जा सकता है किंतु इसके कारण हो रहा नुकसान निश्चित रूप से मानव निर्मित है और मानव की गलती से हो रहा है और कोई इस ओर ध्यान नहीं देता है और एक तरह से यह राष्ट्रीय षड़यंत्र की तरह दिखता है। इस समस्या के समाधान के लिए स्थायी और दीर्घकालीन समाधान ढूंढने के बजाय केन्द्र ने अल्पकालिक उपाय किए हंै जिससे समस्या और बढती है और इसका मुख्य कारण यह है कि हमारी नीतियां खराब भू-प्रबंधन और बाढ़ नियंत्रण रणनीति पर आधारित है।
हमारे राजनेता यह क्यों मानते हैं कि कुछ 100 करोड़ रूपए स्वीकृत करने से समस्या हल हो जाएगी। वे यह क्यों नहीं समझते हैं कि लोगों की सहायता करने के लिए दी गयी धनराशि का उपयोग राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन के बजाय अन्य चीजों पर खर्च करती हैं और कई बार अधिकारियों की जेब गर्म हो जाती है। यहां तक कि पाइप बिछाने के लिए सड़कें बरसात में खोदी जाती हैं। यह बताता है कि हमारा देश आपदा नियंत्रण के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। केन्द्रीय आपदा नियंत्रण प्राधिकरण और राज्य आपदा प्रबंधन बोर्ड किसी भी परियोजना को ढंग से लागू नहीं करते हैं।
नियंत्रक महालेखा परीक्षक की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 2007-2016 के बीच 517 परियोजनाएं स्वीकृत की गयी। उनमें से केवल 57 प्रतिशत पूरी हुई और इसका कारण धन राशि जारी करने या परियोजना प्रस्ताव प्रस्तुत करने या धन की कमी रही है। कुछ मामलों में धन राशि का अन्यत्र प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए असम, हिमाचल और तमिलनाडू में 36.50 करोड़ रूपए उन कार्यों पर खर्च किए गए जिन्हें स्वीकृत नहीं किया गया था।
बिहार में 24 परियोजनाएं 10 से 75 माह के विलंब से चल रही हैं। इसके अलावा नदियों का क्षेत्र लगातार बदल रहा है और इसमें कई बार ऐसी परियोजनाएं निष्प्रभावी हो जाती हैं। साथ ही अधिकतर बांधों के पास आपदा कार्य योजना नहीं है। बांध विकासकतार्ओं ने नदी प्रवाह नियंत्रण को ध्यान में नहीं रखा न ही बांध के फाटकों के पास तटबंध बनाए गए हैं।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना आपदा प्रबंधन के कार्य को राष्ट्रीय राज्य और जिला तीन स्तरों पर संचालित करने के लिए किया गया था और इस संबंध में दिशा-निर्देश और नीतियां बनायी गयी थी। कागजों में यह ठीक है किंतु जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है। नियंत्रक महालेखा परीक्षक की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पास राज्यों में चल रहे आपदा प्रबंधन कार्यों के बारे में न तो सूचना है और न ही कार्य की प्रगति के बारे में उसका कोई नियंत्रण है। यही नहीं प्राधिकरण के पास विशेषज्ञों की सलाहकार समिति भी नहीं है जो कि आपदा प्रबंधन के विभिन्न पहुलओं के बारे में उसे सलाह देती।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के एक अधिकारी के अनुसार प्राधिकरण का विफल होना अवश्यंभावी है क्योंकि इसमें शीर्ष स्तर पर कई अधिकारी नियुक्त किए गए हैं और आपदा के संबंध में विशेषज्ञ नहीं हैं। साथ ही प्राधिकरण कई कार्य आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के अनुसार नही कर रहा है। दीर्घकालीन रणनीति नहीं बनायी गयी है। ऐसे में किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और किसे सजा दी जाएगी?
इसलिए समय आ गया है कि सरकार इस दिशा में प्रभावी कदम उठाए और एक बेहतर बाढ़ चेतावनी प्रणाली विकसित करे। लोगों को अपने घरों को बाढ के प्रकोप से सहने लायक बनाने के बारे में जागरूक किया जाए। बाढ के स्तर से ऊंचे स्थानों पर घरों का निर्माण किया जाए, जलवायु परिवर्तन पर ध्यान दिया जाए, दलदल वाले स्थानों का संरक्षण किया जाए, वृक्षारोपण किया जाए और नदियों से छेड़छाड़ न की जाए। साथ ही जल संरक्षण क्षेत्र बनाए जाएं और बाढ़ से निपटने के उपायों पर व्यय बढ़ाया जाए। वनीकरण युद्धस्तर पर किया जाए क्योंकि वन अतिरिक्त जल को सोख लेते हैं। बाढ़ के पानी को दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए बांध, जलाशय, धाराएं आदि का निर्माण किया जाए।
बाढ़ से निपटने के लिए राहत केन्द्रित उपाय करने के बजाय तैयारी केन्द्रित उपाय किए जाएं और बाढ़ भविष्यवाणी नीति बनायी जाए। लोगों का बचाव सुरक्षित स्थानों पर करने की नीति बनायी जाए। राज्यों को भी त्वरित प्रतिक्रिया के लिए क्षेत्रीय पारस्परिक सहायता केन्द्र बनाने चाहिए ताकि संसाधनों की बर्बादी न हो। साथ ही यदि बाढ़ भविष्यवाणी और मैपिंग सही हो तो विनाश कम हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण स्थिति जटिल होती जा रही है क्योंकि पहले जिन स्थानों पर बाढ़ नहीं आती थी अब वहां अभूतपूर्व वर्षा हो रही है। निश्चित रूप से मोदी सरकार अब तक इस बारे में प्रभावी कदम उठाती रही है। केवल दिखावा करने से काम नहीं चलेगा।
पूनम आई कौशिश