20 जुलाई से 11 अगस्त तक चलने वाला यह मानसून सत्र मणिपुर और अविश्वास प्रस्ताव के लिए ही जाना जाएगा इसमें सकारात्मक दृष्टि से कोई बड़ी पहल शायद ही संभव हुई हो। लोकतंत्र में यह रहा है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत से जनहित को सुनिश्चित करने वाले कानून और कार्यक्रम की उपादेयता सुनिश्चित होती है पर संसद अगर शोर-शराबे की ही शिकार होती रहेगी तो ऐसा सोचना बेमानी होगा। पूरे मानसून सत्र में हुए शोर-शराबे से तो यही लगता है कि गैर मर्यादित भाषा और तनी हुई भंवों के बीच पक्ष और विपक्ष दोनों पानी-पानी तो हुए मगर देश की प्यास बुझाना मुश्किल बना रहा। Monsoon Session
गौरतलब है कि मणिपुर हिंसा का मुद्दा लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव तक पहुंचने के बाद सरकार और विरोधी पक्ष के बीच संसद के बाहर और भीतर घमासान जारी रहा। विदित हो कि बीते मई की शुरूआत से ही मणिपुर वर्ग संघर्ष में कहीं अधिक हिंसा से लिप्त रहा जिसे लेकर विपक्ष मुखर था। यह रार तब और पेचीदा हुआ जब विपक्षी गठबंधन ने अविश्वास प्रस्ताव को बहस से पहले संसद में बिना चर्चा किए विधेयक सत्र के शुरू में ही पारित करा लिया। जाहिर है विपक्ष ने ऐतराज करते हुए सरकार पर संसदीय नियमों और परम्पराओं को तोड़ने का आरोप लगाया। 303 सीट वाली अकेले बीजेपी और गठबंधन सहित 350 का आंकड़ा रखने वाली बीजेपी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा क्यों हुई यह नए सिरे से चिंतन का विषय है। Monsoon Session
हालांकि अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष का एक औजार है और कई मौकों पर इसका उपयोग होता रहा है। वजह जो भी हो फिलहाल विरोधियों को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था। देखा जाए तो मणिपुर से मानसून सत्र सराबोर था। विपक्षी नेता राहुल गांधी की लगभग साढ़े चार महीने बाद एक बार सदन में एंट्री हुई। गौरतलब है देश की शीर्ष अदालत ने उनकी सजा पर रोक लगाते हुए राहुल गांधी को सदन तक पहुंचाया। सत्ता को अपनी छवि बचाने का पूरा ध्यान था। मानसून सत्र तमाम आरोप-प्रत्यारोप की बाढ़ लिए हुए था। इसमें जनता को क्या फायदा है यह विचारणीय जरूर है कि सत्र आते हैं और बिना खास प्रदर्शन के अगले की बाट जोहने को मजबूर कर देते हैं।
अविश्वास का प्रस्ताव एक संसदीय प्रस्ताव है जिसे पारम्परिक रूप से विपक्ष द्वारा संसद में एक सरकार को हराने या कमजोर करने की उम्मीद से रखा जाता है। आमतौर पर जब संसद अविश्वास प्रस्ताव में वोट करती है या सरकार विश्वास मत में विफल रहती है तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है या संसद को भंग करने और आम चुनाव की बात शामिल रहती है। फिलहाल इसके आसार दूर-दूर तक नहीं थे क्योंकि 543 सदस्यों वाली लोकसभा में अकेले भाजपा 300 के पार हैं और गठबंधन के साथ यह आंकड़ा कहीं अधिक बढ़त लिए हुए है ऐसे में अविश्वास को लेकर बहस बड़ी हो सकती थी पर सरकार को हिलाया नहीं जा सकता था और हुआ भी यही।
अविश्वास तथा निंदा जैसे प्रस्ताव विपक्षियों के औजार हैं पर इसे कब प्रयोग करना है इसे भी समझना बेहद जरूरी है। इसके पहले साल 2018 के बजट सत्र में भी मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की मांग तेज हुई थी। देखा जाए तो यह दूसरा मौका है जब विरोधी अविश्वास प्रस्ताव को लेकर सजग दिखाई दिए मगर दोनों स्थितियों से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं था। पड़ताल बताती है लोकतंत्र के संसदीय इतिहास में सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ यह प्रस्ताव अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने रखा था लेकिन इसके पक्ष में केवल 52 वोट पड़े थे जबकि प्रस्ताव के विरोध में 347 वोट थे।
गौरतलब है कि मोदी सरकार के विरूद्ध पिछले नौ सालों में दूसरी बार अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने की बात हो रही है जबकि इन्दिरा गांधी सरकार के खिलाफ सर्वाधिक 15 बार तथा लाल बहादुर शास्त्री और नरसिम्हाराव राव सरकार को तीन-तीन बार ऐसे प्रस्तावों का सामना करना पड़ा है। नेहरू शासनकाल से अब तक 25 बार अवश्विास प्रस्ताव सदन में लाए जा चुके हैं जिसमें 24 बार ये असफल रहे हैं।
1978 में ऐसे ही एक प्रस्ताव से सरकार गिरी थी। वैसे मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ दो अविश्वास प्रस्ताव रखे गए थे पहले में तो उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई परन्तु दूसरे प्रस्ताव के समय उनकी सरकार के घटक दलों में आपसी मतभेद थे। हालांकि उन्हें अपनी हार का अंदाजा था और मत विभाजन से पहले इस्तीफा दे दिया था। देखा जाय तो विपक्ष में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी भी एक बार इन्दिरा गांधी के खिलाफ और दूसरी बार नरसिंह राव के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रख चुके हैं।
गौरतलब है कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए नोटिस तभी स्वीकार किया जाता है जब उसके समर्थन में 50 सदस्य हों। मुख्य विपक्षी कांग्रेस के पास कुल 52 का आंकड़ा तो है। हालांकि जिस प्रकार विरोधी इन दिनों इण्डिया के बैनर तले एकजुटता दिखाई गई उससे मनोबल तो बढ़ सकता है मगर बहुमत से भरी सरकार को रौंदा नहीं जा सकता था। मुद्दा यह है कि अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले के पास जब चंद आंकड़े जुटाना भी मुश्किल था तो बड़ी कूबत वाली सरकार की कुर्सी कैसे हिला पाते। खीज के चलते कांग्रेस समेत वामपंथ या अन्य सरकार के विरोधी हो सकते हैं पर इनकी स्थिति भी बहुत दयनीय है। वैसे भाजपा तथा उनके सहयोगियों में सब कुछ अच्छा ही चल रहा है पूरी तरह कहना कठिन है पर सरकार बचाने में उनका मत सरकार के साथ न हो यह भी नहीं हो सकता था।
फिलहाल अविश्वास प्रस्ताव एक विरोधी संकल्पना है जिसका उपयोग किया जाना कोई हैरत वाली बात नहीं। संदर्भित बात यह है कि सदन का कीमती वक्त रोज हंगामे की भेंट चढ़ता रहा भारी-भरकम पूर्ण बहुमत वाली सरकार का बीते नौ सालों में कोई भी ऐसा सत्र नहीं रहा जिसमें विरोधियों ने सरकार को न घेरा हो। सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक भी यहां काम नहीं आ रही है। एक-दूसरे की लानत-मलानत और छींटाकशी में वक्त बीतता गया। जबकि 2024 मुहाने पर है जहां 18वीं लोकसभा का एक बार फिर गठन होना है। देश के राजनेता जो राजनीति करें वही जनता को देखना होता है चाहे अच्छा करें या अच्छा न करे।
फिलहाल विपक्ष सत्ता की परछाई होती है। विरोधियों की आपत्ति भी जनहित में काम आती है और सरकार की नीतियां भी हित सुनिश्चित ही करती हैं। ऐसे में भाषा की मर्यादा, जन भावनाओं का सम्मान के साथ ही संसद के भीतर शोर करने की बजाय शान्ति और खुशहाली से जुड़े नियोजन पर काम किया जाए तो सरकार और विपक्ष दोनों के लिए अच्छा रहेगा। आगे यह ध्यान देना कहीं अधिक जरूरी है कि सत्ता और विपक्ष दोनों संयम का भी पालन करें और सरकार के मंत्री विरोधियों के मामले में दुश्मन की तरह पेश न आएं। यह लोकतंत्र है यहां जनता की ताकत से नेताओं को कूबत मिलती है। सदन कोई जंग का मैदान नहीं है। Monsoon Session
डॉ. सुशील कुमार सिंह, वरिष्ठ स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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