17वीं लोकसभा चुनावों के परिणामों ने बड़ी चर्चा छेड़ दी है। दरअसल राजनीति में किसी समय जितनी अहमियत मुद्दों को मिलती थी आज उससे कहीं अधिक ‘चुनाव इंजीनियरिंग’ को मिल रही है जो पार्टी इस इंजीनियरिंग पर जितनी अधिक दृृढ़ता से काम करती है उसे उतनी ही अधिक सफलता मिल रही है। पार्टियों की ताकत केवल मुद्दे ही नहीं बल्कि पार्टी संगठन की आंतरिक ताकत, एकता, अनुशासन जैसे तत्व भी बड़े अहम हो चले हैं। स्टार प्रचारकों का फैक्टर भी चुनाव इंजीनियरिंग में गौण हो गया है। इस मामले में भाजपा नंबर एक पार्टी बनकर उभरी है, जिसने नेताओं में दरार नहीं आने दी व अनुशासन और लक्ष्य को हासिल करने के लिए वर्करों में जुनून पैदा किया। यदि भाजपा मुद्दों या मोदी लहर के साथ ही जीती होती तब इसका प्रभाव पंजाब पर जरूर पड़ता।
यहां भाजपा पहले की तरह ही अपनी दो सीटें बरकरार रख सकी। पंजाब के मुख्यमंत्री व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कैप्टन अमरिन्दर सिंह का चुनाव इंजीनियरिंग-2014 की तरह ही इस बार भी प्रभाव दिखाई दिया है। राजनीति विशेषज्ञों के लिए पूरा भारत व पंजाब अब दो विश्लेषण के मुख्य बिंदु बन गए हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद भाजपा ने बाकी दलों के वोट पर झाड़ू फेर दिया है, परंतु पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने 2014 की 3 सीटों के मुकाबले पार्टी को 8 सीटों तक पहुंचा दिया। अब अगर मोदी लहर का प्रभाव होता तब पंजाब में इसका फायदा शिरोमणी-अकाली दल को भी मिलता जो कोटे की दस सीटों में से केवल 2 सीट ही जीत सका, संगरूर व लुधियाना में अकाली दल के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे।
यही बात दक्षिणी राज्यों पर भी लागू होती है। भाजपा के पास अपने गढ़ मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मजबूत नैटवर्क था, जिसे पूरी तरह सक्रिय कर पार्टी ने पूरा फायदा लिया। उड़ीसा और बंगाल में भाजपा के पास उपरोक्त राज्यों जैसा नैटवर्क नहीं था, जिस कारण इन राज्यों में पार्टी मध्य प्रदेश या राजस्थान जैसा रंग नहीं दिखा सकी। गैर-भाजपाई प्रदेश तामिलनाडु व अन्य राज्य भी इसके उदाहरण हैं। कांग्रेस अपना नैटवर्क कायम रखने की बजाय रैलियों की भीड़ व भाषणों में व्यस्त रही। मुद्दों पर अभी किसी भी पार्टी के पास कोई बड़े दावे नहीं। हारे हुए राजनीतिक दलों की हार संबंधी समीक्षा बैठक में ‘चुनाव इंजीनियरिंग’ शब्द चर्चा का मुख्य बिंदु बनेगा। आगामी लोकसभा या विधानसभा चुनावों में ‘चुनाव इंजीनियरिंग’ को पेशेवर राजनीति के रूप में स्वीकार किया जाएगा, इसकी संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
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