हमारे देश के हुक्मरान स्त्री-पुरुष के बीच असमानता को खत्म करने की बड़ी-बड़ी बातें करते हंै, लेकिन जमीनी हकीकत क्या है, इसे हाल ही में आई जेंडर गैप रिपोर्ट बयां करती है। लैंगिक समानता पर ह्यवर्ल्ड इकॉनोमिक फोरमह्ण यानी विश्व आर्थिक मंच द्वारा हर साल जारी होने वाली यह रिपोर्ट बतलाती है कि भारत इस सूचकांक पर बीते साल के 108वें स्थान से लुढ़ककर अब 112वें स्थान पर पहुंच गया है। यानी स्त्री-पुरुष के बीच समानता के मामले में हमारे यहां स्थिति सुधरने की बजाय और भी बदतर हुई है।
तमाम सरकारी, गैर सरकारी कोशिशों के बावजूद देश में स्वास्थ और आर्थिक भागीदारी के मामले में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता और भी बढ़ी है। इन मानकों पर भारत सबसे नीचे स्थान वाले पांच देशों में शामिल है। किसी समय बांग्लादेश और भारत दोनों एक ही स्तर पर थे, पर आज बांग्लादेश हमसे बहुत आगे निकल गया है। फिलवक्त बांग्लादेश, ग्लोबल रैंकिंग में 50वें पायदान पर है। वहीं इंडोनेशिया 85वें और नेपाल 101वें नंबर पर है। इससे ज्यादा चिंताजनक और शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि एशिया के कई छोटे एवं पिछड़े देश इस मामले में भारत से कहीं आगे हैं। खास तौर पर स्त्री-पुरुष के बीच असमानता की खाई को बांग्लादेश ने अपने यहां ज्यादा बेहतर तरीके से पाटा है। जबकि हमारे देश में स्त्री-पुरुष के बीच समानता की कोशिशें अभी भी नाकाफी हैं।
इस साल भी उत्तरी यूरो के तीन देश आइसलैंड, नार्वे और फिनलैंड स्त्री-पुरुष समानता के लिहाज से क्रमश: पहले, दूसरे और तीसरे नंबर पर रहे। विश्व आर्थिक मंच, साल 2006 से लगातार सालाना वैश्विक स्त्री-पुरुष असमानता रिपोर्ट जारी कर रहा है। जिससे यह मालूम चलता है कि दुनिया में लैंगिक समानता के स्तर पर क्या सुधार आया ? रिपोर्ट में खास तौर से यह देखने की कोशिश की जाती है कि विभिन्न देश अपने यहां स्त्री और पुरुष के बीच स्वास्थ, शिक्षा, राजनीतिक भागीदारी, संसाधन और अवसरों का वितरण किस तरह से करते हैं ? मंच ने अपनी हालिया रिपोर्ट में 153 देशों को शामिल किया है। डब्ल्यूईएफ की पहली रिपोर्ट के समय भारत 98वें स्थान पर था।
होना तो यह चाहिए था कि हर साल स्थिति सुधरती, लेकिन हुआ इसका उल्टा। आज आलम यह है कि चार में से तीन मानकों पर भारत की रैंकिंग काफी नीचे गिर गई है। शैक्षिक सुविधाओं के मामले में रैंकिंग 112वें, आर्थिक भागीदारी में 149वें, स्वास्थ और जीवन स्तर में 150वें स्थान पर है। लैंगिक समानता के मामले में भारत का 112वें स्थान पर आना, चैंकाने वाली बात नहीं है। इन संकेतकों को यदि छोड़ देंं, तो सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर भी कई स्तरों पर देश में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। देश में जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण जैसी आर्थिक नीतियां अमल में आईं, तो एक बारगी यह लगा कि अब महिलाओं की स्थिति सुधरेगी। उनको भी पुरुषों की तरह हर क्षेत्र में समानता का अवसर मिलेगा। श्रम का फेमिनाइजेशन होगा। लेकिन यह भ्रम बहुत जल्द ही टूट गया।
खासकर भूमंडीकरण के दौर के बाद हमारे यहां महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ी है। उदारीकरण का पिछले तीन दशकों का तजुर्बा हमें यह बतलाता है कि समाज में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता बढ़ी है। देश में तमाम क्षेत्रों में विकास की प्रक्रिया के दौरान महिलाओं के हिस्से में असमानता ही आई है। एक महŸवपूर्ण बात और, जिन क्षेत्रों में महिलाएं कार्यरत हैं वहां भी महिलाओं के लिए कार्य दशाएं उपयुक्त नहीं हैं। उन्हें वहां जरा सा भी सुरक्षित माहौल नहीं मिलता। उन्हें सरकार और समाज सुरक्षित माहौल मुहैया कराए, इसके उलट उन पर यह इल्जाम लगाया जाता है कि महिलाएं घर से बाहर काम नहीं करना चाहतीं। उनके संस्कार उन्हें घर के बाहर काम करने से रोकते हैं। जाहिर है कि इस बात में जरा सी भी सच्चाई नहीं। महिलाएं खुद चाहती हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़कर अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाएं।
महिलाएं घर के बाहर काम करना चाहती हैं, लेकिन कार्यस्थल पर उनके लिए जो सुरक्षित माहौल होना चाहिए, वह उन्हें नहीं मिलता। कार्यस्थल पर आते-जाते और कार्यस्थल में उन्हें काफी कुछ झेलना पड़ता है। उनके साथ मानसिक और शारीरिक यानी सब तरह की हिंसा की जाती है। राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और योजनाओं को ठीक ढंग से लागू करने में नौकरशाही की कोताही लैंगिक समानता के स्तर पर भारत के पिछड़ने की मुख्य वजह रही हैं। ऐसा नहीं कि यह स्थिति सुधर नहीं सकती। स्थिति सुधर सकती है, बशर्ते इस दिशा में सच्चे दिल से कोशिशें की जाएं। सबसे पहले समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा और अपराध को कम करना होगा।
उन्हें हर जगह सुरक्षित माहौल देना होगा। अगर सामाजिक शांति होगी, तो महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी भी बढ़ेगी। इसके अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य प्रणाली में भी क्रांतिकारी बदलाव जरूरी हैं। सभी महिलाओं तक शिक्षा और स्वास्थ की सुविधाएं पहुंचे। शिक्षा से जहां महिलाएं अपने अधिकारों को पहचानेगी, तो वहीं अपने लिए समानता की भी बात करेगीं।
स्वास्थ और जीवन स्तर में सुधार आएगा, तो वे मजबूती से हर क्षेत्र में खुद ही आगे निकलकर सामने आएंगी। शिक्षा मिलने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था, राजनीति, रोजगार में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो न सिर्फ देश में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता में कमी आएगी, बल्कि लैंगिक समानता का स्तर भी सुधरेगा। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट, सरकार और समाज दोनों के लिए आईना है। अब देखना यह है कि इस आईने में अपना अक्स देखकर, वे कितना कुछ बदल पाते हैं।
जाहिद खान
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