नोटबंदी के संबंध में केंद्रीय कृषि मंत्री के बयान व मंत्रालय की रिपोर्ट अलग-अलग राय पेश कर रहे हैं। विभाग की रिपोर्ट के अनुसार नोटबन्दी के कारण साल 2016-17 में किसानों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था, जिस कारण किसान बीज नहीं खरीद सके और नोटबन्दी किसानों को बर्बाद कर गई। दूसरी तरफ मंत्री राधा मोहन सिंह ट्वीट कर दावा कर रहे हैं कि 2015-16 के मुकाबले नोटबन्दी वाले साल खाद व बीज की बिक्री ज्यादा हुई है।
नोटबन्दी दोषपूर्ण थी या नहीं लेकिन व्यवस्था की एक बड़ी कमी जरूर सामने आई है कि आखिर मंत्री व विभाग एकजुट क्यों नहीं। इस बात को हर कोई जानता है और यह ट्रेंड बन गया है कि कोई भी मंत्री अपने विभाग की जीरो उपलब्धि को भी हीरो बनाकर पेश करता है। इसी पैंतरेबाजी में मंत्री राधा मोहन सिंह भी ‘छक्का’ लगा गए हैं लेकिन उन्होंने तकनीकी गलती यह कर दी कि वह मंत्रालय की रिपोर्ट में किसी गलती का जिक्र नहीं कर सके। इसीलिए आम आदमी दुविधा में पड़ गया कि मंत्री या मंत्रालय में से सही कौन है?
कृषि प्रधान देश के कृषि मंत्री या मंत्रालय द्वारा की गई गलती किसानों व देश के साथ बेइन्साफी है। मंत्री या मंत्रालय को अपना पक्ष रखने के लिए जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए था जहां तक नोटबन्दी से हुए नफे-नुक्सान का संबंध है यदि कांग्रेस के विरोध को छोड़ भी दें तो कोई भी प्रसिद्ध अर्थशास्त्री यह नहीं कह रहा कि नोटबन्दी से देश को कोई फायदा हुआ है। नि:संदेह नोटबन्दी सैद्धांतिक तौर पर सरकार का अच्छा निर्णय हो सकता है और आम जनता ने इस संबंध में बैंकों की कतारों में खड़े होकर सहयोग भी दिया था
लेकिन नोटबन्दी का कोई फायदा नहीं दिखा। आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन सहित कई बड़े अर्थशास्त्री भी नोटबन्दी के लिए उस वक्त को उपयुक्त नहीं मान रहे हैं और अब तो बैंक अधिकारी यह भी कह रहे हैं कि नोटबन्दी का फैसला लम्बी-चौड़ी बैठकें करने की बजाय जल्दबाजी में लिया गया था इसीलिए केंद्रीय कृषि मंत्री नोटबन्दी को हर हाल में सरकार की उपलब्धि बताने की बजाय पहले मंत्रालय की रिपोर्ट का अध्ययन करें। यूं भी सरकार यह सिद्ध करने में कामयाब नहीं हो सकी कि नोटबन्दी कृषि के लिए वरदान थी? क्योंकि नोटबन्दी के बाद किसानों की आत्महत्याएं बडेÞ स्तर पर जारी हैं।
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