राहत और आहत का मिश्रण है अंग्रेजी दवाइयां

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Hisar News: देश में सस्ती व जरूरी दवा उपलब्ध करवाना सबसे बड़ी चुनौती

दिल्ली हाईकोर्ट ने आॅनलाइन फामेर्सी द्वारा इंटरनेट पर दवाओं की बिक्री पर हालाँकि रोक लगा दी है मगर इससे आम आदमी की दिक्कतें कहीं कम नहीं हुई है। अंग्रेजी दवाइयों ने आम आदमी को राहत के साथ आहत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। यह ई-फार्मेसी और दवा दुकानदारों के वर्चस्व की लड़ाई है। आम आदमी आज तक अंग्रेजी दवाओं का मकड़जाल समझ नहीं पाया है। ये दवाइयां आम आदमी की समझ से बाहर हैं। स्वास्थ्य पर इनके दुष्प्रभाव से हम वाकिफ नहीं है। दवाइयों की कीमत भी गरीब के लिए जानलेवा है। बाजार में कैसी कैसी दवाइयां और उनकी किस्में है इसका पता या तो डॉक्टर को है या केमिस्ट को। आम आदमी को तो खरीदने से ही मतलब है।

दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन और न्यायमूर्ति वीके राव की पीठ ने उस याचिका पर अंतरिम आदेश दिया, जिसमें दवाओं की आॅनलाइन गैरकानूनी बिक्री पर रोक लगाने की मांग की गई। इन दवाओं में डॉक्टर के पर्चे पर लिखी गईं दवाएं भी शामिल हैं। अदालत ने इससे पहले इस याचिका पर केंद्र, दिल्ली सरकार, केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन, भारतीय फार्मेसी परिषद से जवाब मांगा। अदालत ने इस मामले में आगे की सुनवाई के लिए अगले साल 25 मार्च की तारीख तय की। डॉक्टर जहीर अहमद द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि दवाओं की आॅनलाइन गैरकानूनी बिक्री से दवाओं के दुरुपयोग जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

गौरतलब है इस साल सितंबर में स्वास्थ्य मंत्रालय ने दवाओं की आॅनलाइन बिक्री का एक ड्राफ्ट बनाया था। इसके मुताबिक, आॅनलाइन दवाओं की बिक्री के लिए ई फार्मेसी को एक केंद्रीय प्राधिकार के पास पंजीकरण करवाना होगा। इन कंपनियों को मादक द्रव्यों की बिक्री की अनुमति नहीं होगी। आॅनलाइन फार्मेसी को केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन के यहां पंजीकरण करवाना होगा। दवाइयों की आॅनलाइन बिक्री और प्रस्तावित ई-फार्मेसी कानून के खिलाफ देश के 8.5 लाख दवा दुकानदार बंद रखकर अपना विरोध जता चुके हंै। दवा दुकानदार ई-कंपनियों के खिलाफ कई तरह के तर्क दे रहे हैं लेकिन सरकार मानती है कि ई-फार्मेसी समय की मांग है।

दवा दुकानदारों की पहली आपत्ति दवा की पर्ची और दवाई के मिलान पर है। आॅनलाइन कंपनियां इसके लिए मुकम्मल व्यवस्था होने का दावा कर रही हैं। दवा दुकानदारों की आपत्ति नशीली दवाओं की बिक्री पर भी है, जबकि प्रस्तावित कानून में ऐसी दवाओं की आॅनलाइन बिक्री पर रोक है। साफ है कि दवा दुकानदारों को धंधे पर चोट दिख रही है लेकिन सरकार दवाओं की आॅनलाइन बिक्री को समय की जरूरत बता रही है। आम आदमी के समझ से बाहर होने के कारण अंग्रेजी दवाइयों ने खौफनाक ढंग से देश के बाजार पर अपना कब्जा कर लिया। इस दौरान नकली और घटियां दवाइयों का बाजार भी खूब फला फुला है। एक रुपए में बनने वाली टेबलेट 100 रुपयों में बेची गई।

जीवन रक्षक दवाइयों के दाम आसमान को छूने लगे। राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों ने इस लूट के खिलाफ कभी जोरदार आवाज बुलंद नहीं की। दवा कम्पनियाँ अपने राजनीतिक आकाओं के हित साधने लगी। बड़ी संख्यां में लोग मौत के मुहं में समां गए तब जाकर राज की निंद्रा टूटी। मगर आपाधापी की कार्रवाही के आगे कुछ नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद इस गड़बड़झाले को समझने का प्रयास अवश्य हुआ। दवाइयां कुछ हद तक सस्ती हुई मगर अभी भी आसमान काले रंग से रंगा हुआ है।

एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लगभग 200 बिलियन डॉलर का घटिया और नकली दवाओं एवं वैक्सीन का धंधा है। एशिया में बिकने वाली 30 प्रतिशत दवाएँ नकली या घटिया हैं। भारत में बिकने वाली हर पाँच गोलियों के पत्तों में में से एक नकली है। देश में 10,500 दवा कंपनियां हैं, लेकिन 1400 दवा कंपनियां ही डब्ल्यूएचओ जीएमपी सर्टीर्फाइड हैं। दवा एक केमिकल होता है।

रसायन होता है। दवा कंपनियां अपने मुनाफा एवं वितरण में सहूलियत के लिए इन रसायनों को अलग से अपना ब्रांड नाम देती है। जैसे पारासेटामल एक साल्ट अथवा रसायन का नाम है लेकिन कंपनिया इसे अपने हिसाब से ब्रांड का नाम देती हैं और फिर उसकी मार्केंटिंग करती हैं। ब्रांड का नाम ए हो अथवा बी अगर उसमें पारासेटामल साल्ट है तो इसका मतलब यह है कि दवा पारासेटामल ही है।

महंगी अंग्रेजी दवाइयों के कारण देश के 3 फीसद लोग गरीबी रेखा से नहीं ऊबर पा रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि भारत के लोग सालाना 82 हजार करोड़ रुपये की सिर्फ अंग्रेजी दवाई उपभोग कर रहे हैं। इतना ही नहीं एक शोध में यह भी कहा गया है कि आम भारतीयों को अपने स्वास्थ्य बजट का 72 फीसद केवल दवाइयों पर खर्च करना पड़ता है।

बाल मुकुन्द ओझा 

 

 

 

 

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