फिल्मी अभिनेता सुशांत सिंह की कथित खुदकुशी का मामला चर्चा में है। मामले की सीबीआई जांच चल रही है। मीडिया में जिस प्रकार इस मामले को खींचा गया, इससे यही प्रतीत होता है कि मीडिया इस मामले में जांच एजेंसी से प्रतिस्पर्धा करके मीडिया ट्रायल चला रही है। सोशल मीडिया पर मामले की कवरेज संबंधी व्यंग्य कसे जा रहे हैं। हाल यह है कि किसी भी मामले में आरोपी बनने के एक या दो महीने पहले ही मीडियो उसे दोषी बना देता है। जज के फैसले से पहले मीडिया फैसला सुना देता है। किसी भी मामले की जानकारी देना मीडिया का कर्तव्य है लेकिन एक मामले पर केंद्रित होकर रह जाना मीडिया की जिम्मेदारी और नैतिकता पर सवाल उठाता है।
प्रत्येक मुद्दे की अपनी महत्वता होती है जिससे उसकी कवरेज भी जुड़ी होती है लेकिन ज्यादातर यही होता है कि मीडिया का एक वर्ग किसी घटना को देश का एकमात्र मुद्दा बनाकर पेश करता है। इससे मीडिया अपनी जिम्मेदारी से भटककर अहम मुद्दों को अनदेखा कर देता है। आज मीडिया कवरेज को देखकर ऐसा लगता जैसे देश में कृषि की बदहाली, किसानों की आत्महत्याएं, बेरोजगारी गिरती अर्थव्यवस्था कोई मुद्दा नहीं है। इस तरह कई राज्यों के लाखों लोग बाढ़ की चपेट में हैं। कोरोना महामारी के कारण रोजगार की कमी और शिक्षा व्यवस्था का चरमरा जाना कोई राष्ट्रीय मुद्दा बनता नजर नहीं आता। बेमौसमी बरसात ने लाखों किसानों की मेहनत पर पानी फेर दिया है। ऐसे में किसानों की दुर्दशा राष्ट्रीय मुद्दों के रूप में मीडिया से गायब है।
देश की आर्थिकता भी कोई मुद्दा नहीं रहा। बंद पड़ीं फैक्टरियां भी समस्या नहीं रही। किसी फिल्मी अभिनेता द्वारा कोई सब्जी बनाने की खबर को राष्ट्रीय खबर की तरह पेश करने वाले मीडिया कर्मियों को महंगाई व सब्जी नहीं खरीद सकने वाले गरीबों की मजबूरी नजर नहीं आती। बेहतर हो यदि ऐसा मीडिया देश के उन लोगों की समस्या को भी प्रमुखता से उठाए, जिनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए वह बड़े-बड़े दावे करता है। बॉलीवुड के सिवाय भी देश में लोग रहते हैं, खबर न होते भी खबर बनाने की सोच खबर के साथ अन्याय है। खबर को खबर ही रहने दो, खबर ढूंढने की जरूरत है न कि खबर गढ़ने का इंतजार करो। सब्र रखो-खबर से पहले खबर न चलाई जाए, देश में समस्याओं के अंबार हैं।
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