शहीद उधम सिंह का साहस, देशभक्ति की भावना, शहादत व मानवता हर किसी को प्रेरणा देती है। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग के नृशंस हत्याकांड की टीस उन्होंने वर्षों तक सही। इस घटना के 21 साल बाद साम्राज्यवादी देश ब्रिटेन की राजधानी लंदन में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी के काक्सटन हाल में 13 मार्च, 1940 को आयोजित एक समारोह में माईकल ओडवायर, जो हत्याकांड के समय पंजाब का गवर्नर था, पर गोलियां दाग दी। ओडवायर की मौके पर ही मौत हो गई। उधम सिंह ने यहां अपनी गिरफ्तारी दे दी। मुकदमे में उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई, 1940 को उसे पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।
19वीं सदी के समाप्त होने और 20वीं सदी के शुरू होने में जब चार दिन शेष थे, यानी 26 दिसम्बर 1889 को माता हरनाम कौर व पिता टहल सिंह के घर में उधम सिंह का जन्म पंजाब के सुनाम में हुआ था। उनका बचपन का नाम शेर सिंह था। परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी। उधम सिंह जब तीन साल का भी नहीं हुआ था कि माता का देहांत हो गया। काम-धंधे की तलाश में टहल सिंह ने रेलवे में फाटकमैन की नौकरी की।
वहीं पर अपनी कोठड़ी के पास एक दिन एक भेड़िया आ गया और नन्हें से बालक शेर सिंह ने कुल्हाड़ी से भेड़िये पर वार कर दिया। लोगों ने शेर सिंह की बहादुरी की तारीफ की, लेकिन टहल सिंह इस घटना से डर गए कि यदि फिर से भेड़िया आ गया और बच्चों को खा गया, तो नौकरी का क्या करुंगा। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अमृतसर की ओर चल दिए। रास्ते में ही 1907 में पिता बीमारी से चल बसे।
इससे पूर्व उन्होंने अपने बेटे साधु सिंह व शेर सिंह की जिम्मेदारी सरदार चंचल सिंह को सौंप दी थी। चचंल सिंह ने उन्हें अमृतसर के एक अनाथालय में दाखिल करवा दिया। अनाथालय में मकैनिकल कामों में उसकी दिलचस्पी थी। यहीं पर 1917 में उसके बड़े भाई का भी निधन हो गया, जिससे जिंदगी के थपेड़े सहने के लिए उधम सिंह बिल्कुल अकेले हो गए। इन सभी दु:खद घटनाओं ने भी उधम सिंह को मजबूत बनाया और उनमें संघर्ष की क्षमता बढ़ गई।
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में इकट्ठे हुए हजारों निहत्थे लोगों पर अंग्रेजों ने गोलियां बरसा कर नृशंसता की सारी हदें पार कर दी। इस घटना से उधम सिंह का दिल दहल गया। उन्होंने हत्याकांड के दोषियों को सबक सिखाने की ठान ली। अगस्त 1927 में उसे अमृतसर से गैरकानूनी हथियार और गदरी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था और पांच साल जेल की सजा मिली थी। काक्सटन हाल की घटना के बाद जेल में उसने साहित्य पढ़ा। उधम सिंह गदर पार्टी के हीरो रहे करतार सिंह सराभा और भगत सिंह से प्रेरित थे।
उधम सिंह को आजादी की लड़ाई के संघर्षों में अनेक बार अपने नाम बदलने पड़े। जिस नाम से हम उन्हें जानते हैं, वह नाम तो उन्होंने 34 साल की उम्र में रखा। इसकी कहानी भी दिलचस्प है। 1927 में जब उन पर मुकद्दमा बना तो शेर सिंह, उदय सिंह व उदे सिंह नाम पुलिस रिकार्ड में आ गए थे। आखिर 20 मार्च, 1933 को लाहौर से उधम सिंह के नाम से पासपोर्ट बनवाया गया। तभी से शेर सिंह का नाम उधम सिंह हो गया। इसी नाम से अब हम उन्हें जानते हैं। उधम सिंह का सबसे पसंदीदा नाम था ‘मोहम्मद सिंह आजाद’ रहा। उन्होंने अपने बाजू पर इसी नाम का टैटू भी बनवाया था। ओडवायर की हत्या के बाद उन्होंने ब्रिटेन की पुलिस में जो नाम लिखवाया वह यही नाम था।
यह नाम यह भी दर्शाता है कि उधम सिंह सभी धर्मों की एकता एवं सौहार्द में यकीन करते थे। इस नाम से उनका धार्मिक संकीर्णता के प्रति विद्रोह स्पष्ट हो जाता है। शहीद उधम सिंह के व्यक्तित्व और बलिदान ने आबादी की लड़ाई के दौरान लोगों में आजादी का जोश भरा। उधम सिंह की शहादत युवाओं को सदा देश के लिए मर-मिटने और मजबूत इरादों का संदेश देती रहेगी।
उधम सिंह को आजादी की लड़ाई के संघर्षों में अनेक बार अपने नाम बदलने पड़े। जिस नाम से हम उन्हें जानते हैं, वह नाम तो उन्होंने 34 साल की उम्र में रखा। इसकी कहानी भी दिलचस्प है।
-अरुण कुमार कैहरबा
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