नक्सलियों का फन कुचलना जरुरी

Maoists need to crush the fun

नक्सलियों ने एक बार फिर दुस्साहस का परिचय देते हुए महाराष्ट्र राज्य के गढ़चिरौली जिले के जाम्बुरगढ़ क्षेत्र में खूनी खेल को अंजाम दिया है। उन्होंने आईडी विस्फोट के जरिए पुलिस की विशेष कमांडो फोर्स के 15 जवानों की जान ली है। इसके साथ ही इसी क्षेत्र में सड़क निर्माण में लगे 36 वाहन भी जला दिए हैं। इन घटनाओं से साफ है कि अभी नक्सलियों का फन पूरी तरह कुचला नहीं गया है जिसकी वजह से वे बार-बार जवानों को निशाना बना रहे हैं।

याद होगा अभी कुछ ही दिन हुए होंगे जब नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ राज्य के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा में भी खूनी खेल को अंजाम दिया था। तब उन्होंने भाजपा के काफिले को आइईडी विस्फोट से उड़ाकर विधायक भीमा मंडावी और उनके सुरक्षा में लगे चार जवानों की हत्या की थी। उचित होगा कि अब सरकार नक्सलियों के फन को पूरी तरह से कुचलने के लिए रणनीति बनाए ताकि भविष्य में वे खतरनाक हमले को अंजाम न दे सकें। आंकड़ों पर गौर करें तो विगत पांच वर्ष में नक्सली हिंसा की लगभग 6000 घटनाएं हुई हैं जिसमें 1250 नागरिक और तकरीबन 500 सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं। हां, यह सही है कि जवानों की सतर्कता के कारण पिछले कुछ समय से नक्सलियों पर नकेल कसी है और उनकी आक्रामकता कुंद हुई है। पिछली कई मुठभेड़ों के दौरान वे भारी संख्या में मारे भी गए हैं।

लिहाजा उनका हौसला टूटा है। जवानों की सतर्कता के कारण ही नक्सल प्रभावित 10 राज्यों में से तीन राज्यों में हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई है और छत्तीसगढ़ को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में इसमें कमी आयी है। खासतौर पर झारखंड में नई सरकार बनने के बाद नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई तेज हुई है। तकरीबन डेढ़ दर्जन शीर्ष नक्सली पुलिस मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में इस साल नक्सली हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई। इसी तरह बिहार में भी कम हिंसक घटनाएं दर्ज हुई हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षाबलों को सफलता मिल रही है जिससे घबड़ाकर आक्रामक दिखने की कोशिश कर रहे हैं। याद होगा आज से 6 वर्ष पहले 25 मई, 2013 को भी झीरम घाटी में नक्सलियों ने कांग्रेस के काफिले पर हमला बोलकर 31 लोगों की जान ली थी। तब इस हमले में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनके पुत्र दिनेश पटेल, पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र वर्मा एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल की जान गयी थी। 2014 के चुनाव के पहले भी नक्सलियों ने दरभा के टाहकवाड़ा में सीआरपीएफ के दल पर हमला कर 15 जवानों की जान ली थी।
नक्सल प्रभावित जनता नक्सलियों की जबरन वसूली से तंग आ चुकी है और दाने-दाने को मोहताज है। अब जब सरकार द्वारा रोजगार कार्यक्रमों के जरिए उन्हें दो वक्त की रोटी की आस बंधी है तो वे नहीं चाहते हैं कि उनका निवाला नक्सली डकारें। दरअसल नक्सली एक खास रणनीति के तहत सरकारी योजनाओं में बाधा डाल रहे हैं। वे नहीं चाहते हैं कि ग्रामीण जनता का रोजगारपरक सरकारी कार्यक्रमों पर भरोसा बढ़े। उन्हें डर है कि अगर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी योजनाएं फलीभूत हुई तो आदिवासी नौजवानों को रोजगार मिलेगा और वे नक्सली संगठनों का हिस्सा नहीं बनेंगे।

यही वजह है कि नक्सली समूह सरकारी योजनाओं में रोड़ा डाल बेरोजगार आदिवासी नवयुवकों को अपने पाले में लाने के लिए किस्म-किस्म के लालच परोस रहे हैं। यही नहीं वे संगठन से जुड़ने वाले युवकों और युवतियों को सरकारी नौकरी की तरह नाना प्रकार की सुविधाएं मुहैया कराने का आश्वासन दे रहे हंै। नक्सली आतंक की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब वे कंप्युटर शिक्षा प्राप्त ऐसे नवयुवकों की तलाश कर रहे हैं, जो आतंकियों की तरह हाईटेक होकर उनके विध्वंसक कारनामों को अंजाम दें। नक्सली अब परंपरागत लड़ाई को छोड़ आतंकी संगठनों की राह पकड़ लिए हैं। अगर शीध्र ही सरकार उनकी खतरनाक विध्वंसक प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगाती तो उनके कंप्युटराइज्ड और शिक्षित गिरोहबंद लोग जंगल से निकलकर शहर की ओर रुख करेंगे और ऐसी स्थिति में उनसे निपटना कठिन होगा। पर अच्छी बात यह है कि इसके बावजूद भी केंद्र सरकार नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास कर रही है।

पर विडंबना है कि नक्सली अपनी बंदूक का मुंह नीचे करने को तैयार नहीं हैं। खतरनाक बात यह कि अब उनका संबंध आतंकियों से भी जुड़ने लगा है। पूर्वोत्तर के आतंकियों से उनके रिश्ते-नाते पहले ही उजागर हो चुके हैं। पूर्वोत्तर के आतंकी संगठन पीएलए द्वारा नक्सलियों के प्रशिक्षण की बात देश के सामने उजागर हो चुकी है। गौरतलब है कि पीएलए पूर्वोत्तर का एक हथियार बंद आतंकी संगठन है जिसका उद्देश्य संघर्ष के माध्यम से मणिपुर को स्वतंत्र कराना है।

लेकिन नक्सलियों से उनकी निकटता से साफ है कि उनका उद्देश्य महज मणिपुर की स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है। वे नक्सलियों से हाथ मिलाकर देश में अराजकता कायम करना चाहते हैं। याद होगा गत वर्ष पहले आंध्र प्रदेश पुलिस बल और केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों ने एक संयुक्त कार्रवाई में आधा दर्जन ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया था जो नक्सलियों को लाखों रुपए मदद दिए थे। खबर तो यहां तक थी कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ नक्सलियों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए अंडवर्ल्ड की मदद से उन्हें आर्थिक मदद पहुंचा रही है। यह तथ्य है कि कि नक्सलियों के राष्ट्रविरोधी कृत्यों में नेपाली माओवादियों से लेकर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी संगठन भी रुचि ले रहे हैं। गत वर्ष पहले आइएसआइ और नक्सलियों का नागपुर कनेक्शन देश के सामने उजागर हो चुका है। नक्सलियों के पास मौजूद विदेशी हथियारों और गोला बारुदों से साफ है कि उनका संबंध भारत विरोधी शक्तियों से है। आज की तारीख में नक्सलियों के पास रुस-चीन निर्मित अत्याधुनिक घातक हथियार मसलन एके छप्पन, एके सैंतालिस एवं थामसन बंदूकें उपलब्ध हैं। इसके अलावा उनके पास बहुतायत संख्या में एसएलआर जैसे घातक हथियार भी हैं।

याद होगा कुछ साल पहले नक्सलियों ने बिहार राज्य के रोहतास जिले में बीएसएफ के शिविर पर राकेट लांचरों से हमला किया था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर नक्सलियों को ऐसे खतरनाक देशी-विदेशी हथियारों की आपूर्ति कौन कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बुद्धिजीवी ही उनकी मदद कर रहे हैं? इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आश्चर्य तब लगता है जब इन बुद्धिजीवियों द्वारा दलील दिया जाता है कि नक्सलियों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई को रोककर ही नक्सल समस्या का अंत किया जा सकता है। पर वे यह नहीं बताते हंै कि जब सरकार द्वारा बातचीत के लिए आमंत्रित किया जाता है तो वे सकारात्मक रुख क्यों नहीं दिखाते हैं? विडंबना यह भी कि नक्सली समर्थक बुद्धिजीवी जमात नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने के प्रयास के बजाए इस बात पर ज्यादा बहस चलाने की कोशिश करता है कि नक्सलियों के साथ सरकार अमानवीय व्यवहार अपना रही है।

यही नहीं वे नक्सली आतंक को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई बता देश को खतरे में डालने का काम रहे हैं। दुखद यह है कि इन बौद्धिक जुगालीकारों को विद्रूप, असैद्धांतिक और तर्कहीन नक्सली पीड़ा तो समझ में आती है लेकिन नक्सलियों द्वारा बहाए जा रहे निदोर्षों के खून और हजारों करोड़ की संपत्ति का नुकसान उन्हें नहीं दिखायी देता है। जब भी अर्द्धसैनिक बलों द्वारा नक्सलियों को मुठभेड़ में मार गिराया जाता है तो यह बुद्धिजीवी जमात अपनी छाती धुनना शुरू कर देते हैं। वे न सिर्फ मुठभेड़ को फर्जी ठहराते हैं बल्कि सुरक्षाबलों को मानवता का दुश्मन भी करार देते हैं। लेकिन अदालत द्वारा साईबाबा को मिली उम्रकैद की सजा से इन बुद्धिजीवियों का देशविरोधी और आतंकी चेहरा उजागर हो गया है।

अरविंद जयतिलक

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