प्रकृति के प्रकोप के आगे बेबस मानव

Manless before nature's wrath

आज मानव भले ही कितनी भी वैज्ञानिक प्रगति कर चुका हो और सूचना-तकनीकी की दृष्टि से कितना भी सक्षम हो गया हो लेकिन फिर भी वह प्रकृति के प्रकोप के आगे बेबस और लाचार नजर आता है। अभी ऐसी ही बानगी इंडोनेशिया में देखने को मिली जहाँ पर सुनामी के प्रकोप से तकरीबन 400 से अधिक व्यक्ति काल के गाल में समा गए। इस सुनामी के पीछे ज्वालामुखी विस्फोट को कारण बताया जा रहा है। प्राकृतिक आपदायें पहले भी आती रही हैं और भविष्य में भी आती रहेंगी। प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो अपने पीछे तबाही का मंजर अवश्य छोड़कर जाती हैं। अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इन आपदाओं से क्या सीख लेते हैं और भविष्य में इसके प्रति क्या योजना बनाते हैं। आदिकाल से ही जो प्राकृतिक आपदाएं मानवता को समय-समय पर झकझोरती आई हैं उनमें से सुनामी भी एक है। यदि हम सुनामी की बात करें तो इसे प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक संहारक माना जाता है।

विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में अपार उपलब्धियों के बाद भी हमारे वैज्ञानिकों के पास कोई ऐसी प्रणाली नहीं है जिसके माध्यम से इसका पूवार्नुमान लगाया जा सके। वैसे तो प्रशांत महासागरीय तटों को ही सुनामी की दृष्टि से संवेदनशील माना जाता है लेकिन भारतीय तटों को सूनामी के दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा सुरक्षित नहीं माना जा सकता है क्यूंकि 2004 में आई सूनामी हमें चेता चुकी है । आज के भौतिकवादी एवं प्रगतिशील युग में प्राकृतिक आपदाओं का आना कोई नयी बात नही है। भयंकर बाढ़, भूस्खलन, बादल फटना, सूखा, चक्रवात, भूकम्प, सुनामी, समुद्री तूफान जैसी घटनाएं अब आम हो चली है। अब सबसे बडा प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर पाने में सक्षम है। यह तो सत्य है कि मनुष्य प्राकृतिक आपदाओं को तो नही रोक सकता परंतु पूर्व तैयारियों के आधार पर उससे बच जरूर सकता है। अभी हाल ही में जारी की गयी डिजास्टर मैनेजमेन्ट इन इण्डिया नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत का 85 प्रतिशत भाग एक या एक से अधिक प्राकृतिक आपदाओं के दायरे में आता है। 40 मिलियन हेक्टेयर जमीन बाढ़ के दायरे में आती है तथा देश के कुल भू-क्षेत्र का 8: चक्रवात और 68: सूखे के दायरे में आता है। पिछले कुछ दशकों में भारत में प्राकूतिक आपदाओं की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

इससे न केवल जीवन को भारी क्षति हो रही है, बल्कि पुनर्वास तथा पुननिर्माण के लिए अथाह धन व्यय करना पड़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार देश को सकल घरेलू उत्पाद का 3.28 प्रतिशत तथा कुल राजस्व का 13.7 प्रतिशत की हानि प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं के कारण उठानी पड़ती है। रिपोर्ट में इन आपदाओं का कारण भौगोलिक परिस्थितियों के अलावा संसाधनों की कमी, आपदाओं के पूर्व प्रबन्धन में कमी तथा आपदाओं के पश्चात् सक्रियता में विलम्ब आदि को बताया गया। अब प्रश्न यह है कि किस प्रकार इन आपदाओं से जन और धन की क्षति को कम किया जाय? इन आपदाओं का पूर्व प्रबन्धन किस प्रकार किया जाय? प्राय: आपदाओं के आने के बाद उनके प्रबन्धन की बात की जाती है, परन्तु अब चाहे प्राकृतिक आपदा हो या मानवीय उनके आने के पहले ही हमें उनके द्वारा होनेवाली क्षति का पूवार्नुमान लगाकर कार्य योजना तैयार करनी होगी। आपदा प्रबंधन की तकनीकी द्वारा भविष्यवाणियों के आधार पर सभी प्रकार की अग्रिम तैयारियों के साथ अपार जन-धन की हानि को कम किया जा सकता है तथा जन-जीवन को सामान्य स्तर पर लाया जा सकता है।

आपदा प्रबंधन की तैयारियों के सन्दर्भ में हमें परम्परागत विश्लेषण से हट कर आधुनिक उन्नत एवं अतिशीघ्र चेतावनी देने वाली प्राणलियों का प्रयोग करना होगा; क्योंकि आपदा आने के पश्चात राहत कार्य शुरू करने में कम से कम समय लगना चाहिए और यदि पहले से ही चेतावनी मिल जाय तो तैयारी पहले से ही की जा सकती है। हमारे सामने इसका प्रत्यक्ष उदाहरण-जापान है, जहॉं भूकम्प बहुतायत मात्रा में आते रहते है। अत: वहॉ के मकानों में भूकम्परोधी आधुनिक प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए वहां के नागरिकों के जीवन एवं सम्पत्ति पर इसका प्रभाव न के बराबर पडता है। भारत में भी इन्ही आपदा अवरोधी आधुनिक प्रणालियों को अपनाने की आवश्यकता है।

यहॉ पर प्रश्न यह उठता है कि इन प्रणालियों लागू क्यों नही किया जा रहा है? लातूर भूकम्प 1993 के बाद गठित बीके राव समिति ने सुझाव दिया था कि किसी विशेषज्ञ के नेतृत्व में एक एजेन्सी का गठन किया जाय जो खतरे की आशंका को कम करने तथा विनाश के विस्तार को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने तथा पहले से होने वाली तैयारियों के सम्बन्ध में सुझाव दें। यह बात और है कि बी. के. राव समिति की संस्तुतियों को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। 26 दिसम्बर 2004 को प्रशान्त महासागर में सुनामी ने राष्ट्रीय नेतृत्व को आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में कुछ विशेष करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई।

इस दिशा में पहला प्रयास करते हुए केन्द्र सरकार ने 23 दिसम्बर 2005 को आपदा प्रबंधन अधिनियम पारित किया। विधेयक प्रावधानों के अनुसार इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया है, किन्तु आपदा प्रबंधन की मूलभूत कमियों को दूर नहीं किया गया। किसी भी योजना को सफल बनाने के लिए नीति नियंताओं के साथ-साथ नागरिकों का भी योगदान बहुत आवश्यक होता है। अत: आपदा प्रबंधन के आधारभूत तत्वों की जानकारी राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को होनी चाहिए, विशेषकर युवा वर्ग को ं, क्योेंकि आपदाओं के आने पर युवा वर्ग ही श्रेष्ठ स्वयंसेवक बन कर सरकारी और गैरसरकारी आपदा राहत संस्थानों के साथ राहत और बचाव कार्य को कर सकते है।

]कुल मिलाकर अपनी आपदा प्रबंधन सम्बंधी तैयारियों को पूर्ण बनाना होगा। कागजी घोड़ो की पीठ पर सवार होकर प्राकृतिक आपदाओं की वैतरिणी को पार करने की अभिलाषा अव्यावहारिक ही नही, निराधार भी हैै। मूल प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाता है कि इस दिशा में पहल कौन करेगा? सम्पूर्ण राष्ट्र को इस दिशा मे पहल करनी होगी तथा आपदा प्रबंधन की आवशयकता को समझना होगा। इसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति एवं दायित्वों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित करना होगा, तभी हम एक सशक्त एंव विकासोन्मुख राष्ट्र की कल्पना को साकार कर पायेंगे।

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