भारत में कोरोना के प्रचंड स्वरूप के बीच पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम बीते 2 मई को सामने आए। कमोबेश स्थितियां कहीं परिवर्तन वाली तो कुछ पहले जैसी रही । गौरतलब है कि असम में भाजपा अपनी सरकार बचाने में जहां कामयाब रही वहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने तमाम राजनीतिक अवरोधों के बावजूद भाजपा को दहाई पर ही समेटने में कामयाब रही और उनकी पार्टी टीएमसी 292 सीटों के मुकाबले जीत की डबल सेंचुरी लगाते हुए सारे अनुमान चकनाचूर कर दिये ।
हालाकि टीएमसी की मुखिया ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव हार गई, अब वो पांच मई को शपथ ले रही हैं। तमिलनाडु में सत्ता बदली एआईएडीएमके से सत्ता डीएमके व कांग्रेस गठबंधन की ओर गई जबकि केरल में व्यापक जीत के साथ लेफ्ट ने एक बार फिर अपनी कुर्सी बचाने में कामयाबी हासिल की । और पुदुचेरी में भाजपा का परचम लहराया । पांचों राज्यों के परिणाम को देखा जाए तो यह साफ दिखता है कि सभी राज्यों में पूर्ण और स्पष्ट बहुमत की सरकारें बन रही हैं।
भारतीय राजनीति कुछ बदली सी भी दिखती है और कुछ यथावत। सबसे दिलचस्प बात यह है कि पश्चिम बंगाल में आए नतीजों से विरोधियों की बांछें खिली हुई है उन्हें यह लगता है कि मोदी के सामने ममता बनर्जी के रूप में एक मजबूत चेहरा मिल गया है। दरअसल जिस तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल को जीतने का प्रयास किया था और तमाम समस्याओं मसलन बढ़ते कोरोनावायरस के बीच जिस प्रकार भाजपा की ओर से प्रचार-प्रसार को लेकर व्यापक तत्परता देखने को मिली थी साथ ही रैलियों पर रैलियां लगातार जारी थी उसे देखते हुए सियासी बिसात पर कोई बड़े बदलाव का संकेत तो था मगर ममता के आगे एक न चली।
दरअसल भारतीय राजनीति में यह दर्शन आ चुका है कि सत्ता पर पूरी तरह काबिज होते हुए विरोधियों को नेस्तनाबूद कर दिया जाए। पश्चिम बंगाल में भाजपा को जिस तर्ज पर जीत मिली वह भी काबिले तारीफ है । 2016 में 3 सीटों के मुकाबले 77 सीट तक की पहुंच बड़ी जीत कही जाएगी मगर दो सौ सीट जीतने के हुंकार के मुकाबले इसे मुट्ठीभर कहना आतर्किक न होगा। जबकि ममता बनर्जी की 200 से अधिक सीटों की जीत यह बताती है कि उसे छोटा या स्थानीय नेता मानने की जो भूल मोदी से लेकर अमित शाह ने की वह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक त्रुटि थी। इस जीत के साथ ममता बनर्जी विरोधियों के लिए प्राणवायु बन रही है ।
गौरतलब है भारत में प्रधानमंत्री मोदी के सामने कोई कद्दावर नेता नहीं है जिसका लाभ सीधा भाजपा को मिलता रहा है और विरोधी हाशिए पर रहे । मगर बंगाल की शेरनी की बेमिसाल सियासी बिसात पर जो बड़ा बदलाव हुआ है उसे देखते विरोधी भी अब इस बात की आस रखने लगे होंगे कि हो न हो मोदी को हराने के लिए ममता का सहारा लिया जा सकता है । इसमें कोई दुविधा नहीं की मौजूदा स्थिति में ममता बनर्जी एक बहुत बड़ी विरोधी नेता के रूप में स्वयं को न केवल उभारा है बल्कि भारतीय राजनीति में विरोधियों का ध्रुवीकरण उन्हीं की ओर झुकता हुआ दिखाई दे रहा है।
भारत में चुनाव किसी विराट उत्सव की तरह होते हैं लेकिन यह दौर कोविड-19 की भयावह लहर के चलते इतना प्रभावशाली नहीं रहा। जश्न मनाने की मनाही निर्वाचन आयोग ने पहले ही कर दी थी। और चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी ने भी इसे रोकने की बात की। यह अच्छा भी है । पांच राज्यों में चुनाव महत्वपूर्ण होते हुए भी कोई उत्सव का माहौल नहीं दिखा संकट और शोक के ऐसे माहौल में उत्सव की कल्पना भी भला कैसे की जा सकती है।
भारत में कोरोना के समय 4 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में हुए चुनाव अपने आप में एक लोकतांत्रिक सफलता के साथ एक बड़ी चुनौती भी थी। दो टूक कहें तो इस चुनाव में कुछ कीमत भी चुकाई है। इसी दौर में कोरोना से पीड़ितों की संख्या 4 लाख से ऊपर और मरने वालों की तादाद ने रिकॉर्ड स्तर को प्राप्त किया। फिलहाल भारत के सियासी मैदान में चुनाव का शोरगुल रुक गया है। जानकारों की मानें तो इस चुनाव में ममता बनर्जी ने शानदार जीत हासिल कर विपक्ष को एक मजबूत नेता के रूप में स्वयं को पेश किया है।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट का खाता नहीं खुला जबकि असम और केरल में वह मुकाबला करते हुए दिखाई देते है, और तमिलनाडु में डीएमके के साथ सरकार में आना एक शुभ संकेत है मगर कांग्रेस अपने बूते पर अब भारतीय राजनीति में ओझल-सी होती जा रही है हालांकि कुछ राज्यों में उसकी सत्ता शेष है मगर आने वाली राजनीतिक चुनौतियों का यदि मजबूती से मुकाबला करना है तो कांग्रेस को भी कुछ ना कुछ मजबूत और सुधारात्मक कदम उठाने ही पड़ेंगे।
फिलहाल पश्चिम बंगाल में तीसरी बार सत्ता तय है कि ममता बनर्जी ही संभालेगी। नंदीग्राम हारने के बावजूद भी उनके कद को कम नहीं आंका जा सकता। तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी यह साबित करने में नाकाम रही कि उसके पास ममता बनर्जी से बेहतर नेता है और बंगाल की जनता ने भी बीजेपी पर वह भरोसा नहीं किया जैसा जताया जा रहा था। अब देखना यह होगा कि क्या आने वाले दिनों में ममता बनर्जी पर एक विरोधी नेता के तौर पर भरोसा बढ़ेगा। वैसे मौजूदा स्थिति में तो यही लगता है कि ममता बनर्जी विरोधियों के लिए एक प्राणवायु के रूप में उभरी है जिसने न केवल चुनावी जीत को बेमिसाल तरीके से हासिल की बल्कि स्वयं में एक मिसाल साबित हुई है।
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