किसानों के प्रति महाराष्ट्र सरकार की उदारता

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किसानों के प्रति महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार ने जो उदार संवेदनशीलता दिखाई हैं, वह अनुकरणीय है। हालांकि महाराष्ट्र सरकार कर्जमाफी की घोषणा तो पहले ही कर चुकी थी, लेकिन अब एक कदम और आगे बढ़ते हुए राज्य के 90 प्रतिशत किसानों के ऋण माफ करने के द्वार खोल दिए हैं। अब किसानों का 1.5 लाख रुपए तक के ऋण माफ होंगे।

इसका फायदा महाराष्ट्र के 89 लाख किसानों को होगा। इनमें से 40 लाख किसान पूरी तरह कर्ज मुक्त हो जाएंगे और 49 लाख पर कर्ज का बोझ कम हो जाएगा। साथ ही सरकार नियमित रूप से कर्ज की किस्तें चुकाने वाले किसानों को भी अधिकतम 25000 रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में देगी। इससे सरकारी खजाने पर 34000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार पड़ेगा।

इसके लिए सरकार अपने खर्चों में तो कटौती करेगी ही, प्रदेश के सभी मंत्री और विधायक किसानों की मदद के लिए एक माह का वेतन देंगे। यदि यही अनुकरण प्रदेश के अधिकारी और कर्मचारी भी करें, तो किसानों को बड़ी राहत मिलना आसान हो जाएगा।

किसान जिस स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रहे थे, उसे भी सरकार लागू करेगी। यही रिपोर्ट किश्तों में अक्टूबर 2004 से 2006 तक 5 बार तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार के समक्ष पेश की जा चुकी थी, लेकिन एक दशक से भी ज्यादा का समय बीत जाने के बावजूद इस रिपोर्ट की किसी भी प्रावधान पर अमल नहीं लाया गया।

संप्रग सरकार ने 18 नबंवर 2004 को राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था। इसका अध्यक्ष कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन को बनाया गया था। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के 50 प्रतिशत किसानों के पास महज 3 फीसदी खेती योग्य भूमि है। साथ ही देश की शेष 50 फीसदी कृषि योग्य भूमि मात्र 10 प्रतिशत किसानों के पास है।

आयोग की सिफारिशों में किसान आत्महत्या की समस्या के सामाधान के लिए राज्य स्तरीय किसान आयोग बनाने, सेहत सुविधाएं बढ़ाने और वित्त बीमा की स्थिति मजबूत करने पर जोर दिया गया है। समर्थन मूल्य, औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा रखने की सिफारिश की गई है, ताकि छोटे किसान भी बड़े और सक्षम किसानों की बराबरी कर सकें।

आयोग ने किसान कर्ज की ब्याज दर 4 प्रतिशत घटाने की सिफारिश की है। साथ ही सलाह दी है कि कर्ज वसूली में जब तक नरमी बरती जाए, तब तक किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में न आ जाए। प्रकृतिक आपदा की हालात में कृषि राहत निधि बनाई जाए। प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता बढ़ाने की दृष्टि से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधारों की सलाह दी गई है।

सामुदायिक खाद्य सुरक्षा और जल बैंक बनाने की बात भी रिपोर्ट में है, क्योंकि पर्याप्त और पौष्टिक आहार नहीं मिलने से गरीब बच्चों में कुपोषण लगातार बढ़ रहा है। इसे खाद्य सुरक्षा से ही दूर किया जा सकता है।

आयोग की रिपोर्ट से जाहिर होता है कि उनकी चिंता वैसी खाद्य सुरक्षा बनाने में है, जैसी अंग्रेजों के आने से पहले तक भारत में थी। भारत में खेती का रकबा दुनिया में सबसे ज्यादा है। कुल भूमि में से 60 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है। जितने प्रकार के अनाज, दालें, चावल, फल, सब्जियां और वस्पतियां हमारे यहां होती हैं, उतनी दुनिया के अन्य किसी देश में नहीं होती।

ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमें कुदरत ने बारिश और धूप भरपूर दी है। कुदरत के इस करिश्मे को हमारे पूर्वजों ने बखूबी समझा और खाद्य वस्तुओं के उत्पादन की एक पूरी श्रृंखला बनाई। इन फसलों के उत्पादन और देशज तकनीक से उनके सह उत्पादनों के लिए लघु उद्योगों का ढांचा भी खड़ा कर दिया था। इसीलिए हमारे यहां गांव-गांव तेल के कोल्हू और गन्ने से गुड़ बनाने की चरखियां थीं। दूध से दही, मठा, मख्खन और घी घरों की महिलाएं चलते-फिरते बना लेती थीं। हथकरघों से वस्त्र बनते थे।

खेती के लिए हल, कुरे और गांड़िया स्थानीय संसाधानों से बना लिए जाते थे। कुओं से सिंचाई के लिए रेंहट और चरस थे। मोची जूते-चप्पल और स्वर्णकार सोने-चांदी के आभूषण बनाने में दक्ष थे। किंतु अंग्रेजों को भारत में मशीनों से चलने वाले उद्योग लगाने थे, इसलिए उन्होंने हमारी इस लघु उद्योग परंपरा को चौपट कर दिया।

किसान को केवल खेती से जोड़े रखा और उससे वह खेती कराई, जो उनके उद्योगों के लिए जरूरी थी। इसीलिए जब अंग्रेजों ने भारतीय कपास से वस्त्र बनाने की शुरूआत की तो किसान से डंडे के बल पर कपड़ा रंगने के लिए नील की खेती कराई। दुर्भाग्य से हमारे नीति नियंता इस पहलू को आजादी के 70 साल बाद भी ठीक से समझ नहीं पाए। इसी का परिणाम है कि हमने किसान को पूरी तरह बाजार का बंधक बना दिया है।

किसान के बाजार का बंधक बनने के बाद यह साफ हो गया है कि सरकारों ने उद्योगपतियों के लाभ के लिए ऐसे नीतिगत हालात उत्पन्न किए कि किसान पूरी तरह नगद मुद्रा पर आश्रित हो गया। जबकि 70 के दशक तक जीवन यापन की सभी जरूरी वस्तुएं गांव में ही अनाज के बदले मिल जाया करती थीं।

विनिमय की इस प्रणाली के चलते किसान को शहरों में स्थित बाजार का मुंह नहीं ताकना पड़ता था। खेती भी परंपरागत तरीकों से होती थी। किसान गाय, बैल, भैंस पालते थे। उनसे दूध तो मिलता ही था, बैलों को हलों में जोतकर किसानी के काम भी पूरे कर लिए जाते थे। मवेशियों से जो गोबर और मूत्र मिलते थे, उनसे जैविक खाद तैयार कर लिया जाता था।

आज दुनिया के सभी कृषि वैज्ञानिक कह रहे हैं कि जैविक खाद से उत्तम दूसरा कोई खाद नहीं है। किंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भ्रमजाल में आकर सरकारों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों को तो किसानों तक कर्ज के जरिए पहुंचाया ही, ट्रेक्टर जैसा वह कृषि उपकरण भी पहुंचा दिया, जो किसान के लिए सफेद हाथी साबित हुआ।

हैरानी इस बात पर भी है कि केंद्र और राज्य सरकारें किसान को सीधे सब्सिडी देने की बजाय खाद, कीटनाशक और कृषि उपकरण उत्पादक कंपनियों को सब्सिडी देती हैं। नतीजतन कंपनियों ने बैंक और राजस्वकर्मियों के साथ मिलकर ऐसा जाल बुना कि एक तरफ तो किसान बैंक का कर्जदार बनता चला गया, दूसरी तरफ परंपरागत खेती छोड़कर किसानी से जुड़ी हरेक वस्तु खरीदने के लिए बाजार का बंधक बन गया।

ऐसी विरोधाभासी स्थिति उत्पन्न कर दिए जाने के बावजूद कृषि उत्पादनों के दाम उस अनुपात में नहीं बढ़े जिस अनुपात में अन्य जरूरी वस्तुओं और सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान बढ़े? इस कारण किसान और किसानी से जुड़ा मजदूर लगातार आर्थिक विषमता के शिकार होते चले गए। 1960-70 के दशक तक 1 तोला सोना करीब 2 क्विंटल गेहूं में आ जाया करता था।

लेकिन आज इतने ही सोने के दाम 20 क्विंटल गेहूं के बराबर हैं। 1970 से 2016 के दौरान गेहूं के मूल्य में वृद्धि महज 19 गुना हुई है, जबकि इसी अवधि के दौरान सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान 120 से 150 गुना तक बढ़ाए गए हैं।

महाविद्यालयों के प्राध्यापक और शासकीय विद्यालय के शिक्षक के वेतनमानों में वृद्धि 200 से ज्यादा गुना तक सांतवें वेतनमान के जरिए हुई है। इसके अलावा इन लोगों को 108 प्रकार के भत्ते भी मिलते हैं।

इतने बेहतर वेतनमानों के दुष्परिणाम यह निकले कि इन शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों ने अपने बच्चों को निजी संस्थानों में पढ़ाना शुरू कर दिया और अपनी संस्था में रुचि लेकर पढ़ाना तक बंद कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि किसान के बच्चे आज गांव में रहकर ठीक से प्राथमिक शिक्षा भी नहीं ले पा रहे हैं। डिजिटल इंडिया भी वंचित समाज को और वंचित बनाने का काम कर रहा है।

इन उपायों से जाहिर है कि सरकारों के नीतिगत उपायों में गांव की चिंता गायब है, जबकि उत्पादक ग्रामों की बुनियाद पर ही शहर अथवा स्मार्ट शहर का अस्तित्व टिका है। इन विरोधाभासी उपायों के चलते देश का अन्नदाता लगातार संकट में है। नतीजतन हर साल विभिन्न कारणों से 8 से लेकर 10 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

-प्रमोद भार्गव

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