सरसा। भारत के इतिहास में कई गौरवशाली योद्वा और राजा रहे हैं, जो अपनी मातृभूमि पर संकट आने पर अपने प्राणों को न्यौछावर करने से भी पीछे नहीं रहे। देश के उन्हीं शूरवीरों में एक है महाराणा प्रताप। जिन्होंने कभी अपने राज्य को वापस पाने के लिए लगातार संघर्ष किया। वे कभी झुके नहीं और किसी कीमत पर समझौता नहीं किया। महाराणा प्रताप की पुण्यतिथि को लेकर अलग-अलग धारणाएं है।
विकिपीड़िया पर शो हो रही डेट से आज देशभर में लोग उन्हें याद कर रहे है। सोशल मीडिया में प्रताप के सिद्वान्तों को याद करते हुए उन्हें नमन किया जा रहा है। वहीं पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की बेटी ने ट्वीट कर महाराणा प्रताप सिंह की पुण्यतिथि को शत-शत नमन किया। उन्होंने लिखा कि जिनके शौर्य और स्वाभिमान की गाथाएं पूरा हिंदुस्तान गर्व से गाता है, उस वीर योद्धा, महाराणा प्रताप जी की पुण्यतिथि पर शत शत नमन।
जिनके शौर्य और स्वाभिमान की गाथाएं पूरा हिंदुस्तान गर्व से गाता है, उस वीर योद्धा, महाराणा प्रताप जी की पुण्यतिथि पर शत शत नमन। #MaharanaPratap
— Honeypreet Insan (@insan_honey) January 19, 2023
जन्म स्थान
महाराणा प्रताप के जन्मस्थान के प्रश्न पर दो धारणाएँ है। पहली महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि उनका जन्म के पाली राजमहलों में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता , भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे , भील अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारते है, इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे। लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न थे। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था।
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
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