आखिर एक माह बाद राजस्थान की कांग्रेस सरकार का संकट समाप्त हो गया है। दिग्गज नेता मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इस संकट को टालने में सफल रहे हैं और विजेता बनकर उभरे हैं। पार्टी में दूसरे गुट सचिन पायलट ने बिना किसी मांग के सुलह कर ली है। कांग्रेस के लिए यह सुखद बात रही कि उसने कर्नाटक और मध्यप्रदेश को राजस्थान में दोहराने नहीं दिया। फिर भी जिस प्रकार दोनों गुटों के विधायक, होटलों में ठहराए गए और एक दूसरे से बचाने की कोशिश की गई, वह राजनीति के पतन की मिसाल है। यह भी दुख वाली बात है कि सत्तापक्ष ने इस खींचतान में महीने के करीब समय बर्बाद कर दिया।
कोरोना महामारी के कारण पहले ही सरकारी कार्य प्रभावित चल रहा है, ऊपर से सरकार की आंतरिक गुटबाजी ने पूरे सिस्टम को ठप्प कर दिया, जो जनता के हित में नहीं है। अब राजनीतिक पार्टियों के लिए आत्ममंथन करने का समय है। पार्टी में तालमेल और अनुशासन केवल एक पार्टी का ही मामला नहीं बल्कि यह जनता के लिए नुक्सानदायक है। भले ही सत्तापक्ष हो या विपक्ष राजनीति में पद की लालसा देश के विकास में रुकावट है। विशेष रूप से सत्तापक्ष में खींचतान के साथ राजनीतिक अस्थिरता की समस्या पैदा होती है। पिछले माह से पार्टियों में लोकतंत्र की समस्या भी चर्चा में रही है। सरकार की कमियां बताने वाले सत्तापक्ष के नेता को बागी कहकर दुत्कारा जाता है।
वरिष्ठ नेता को सार्थक विरोध को दबाना भी नहीं चाहिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि वास्तविक लोकतंत्र तब आएगा, जब आम व्यक्ति की आवाज सुनी जाएगी। दरअसल राजनीतिक पार्टियों ने ही वोटरों तक पहुंच बनाने के लिए यूथ विंग स्थापित कर लिए हैं और उन्हें पद भी दिए जाते हैं लेकिन जब जनता की सेवा पर पद की इच्छा भारी पड़ जाए तब तकरार पैदा हो जाती है। अधिकतर नेता सत्ता का मोह या पद के लिए भागदौड़ करते हैं और मौका देखकर दूसरी पार्टी में घुस जाते हैं। भले ही कांग्रेस ने सरकार बचा ली, लेकिन पार्टी को एक राजनीतिक संस्कृति भी पैदा करनी होगी, जिसकी कमी के कारण ही कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिर गई।
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