प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब अपनी नई केबिनेट में विदेश सचिव एस. जयशंकर को विदेश मंत्री नियुक्त किया तो देश और देश से बाहर उनके इस निर्णय को आश्चर्य एवं विस्मय के साथ देखा गया। आश्चर्य इस लिए हुआ कि किस तरह कोई व्यक्ति विदेश सचिव के पद से होता हुआ विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर पहुंच जाता है। मोदी के इस निर्णय के नफे-नुक्सान का विश्लेषण हो पाता उससे पहले उन्होंने लोकसभा में एक ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष के आसन पर बैठाकर यह साबित कर दिया है कि उनके निर्णयों तक कोई नहीं पहुंच सकता है। उनके दिमाग में कब क्या चल रहा होता है, शायद ही इसका भान किसी को हो।
पीएम मोदी और पूर्व भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने मंगलवार को 17वीं लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में जब कोटा के सांसद ओम बिड़ला का नाम प्रस्तावित किया तो लोग आश्चर्यचकित रह गए। यह खबर एस. जयशकर की नियुक्ति से भी कंही ज्यादा हैरान करने वाली थी। ऐसा इसलिए कि एक तो विदेश सचिव रहते हुए एस. जयशंकर ने जिस तरह से पीएम व सरकार के साथ मिलकर काम किया उससे उन्हें देश भर में पहचान मिली। दूसरा, विदेश विभाग व राजनयिक के रूप में उनके पास कार्य का लंबा अनुभव था। लेकिन ओम बिड़ला का मामला इसके बिल्कुल उलट है। वह न केवल भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के लिए नया नाम है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी वह कभी सुर्खियों में नहीं रहे। और न ही उनके पास संसदीय काम-काज का कोई बहुत बड़ा अनुभव है। सांसद के रूप में उन्होंने अभी अपनी दूसरी पारी आंरभ ही की है। ऐसे में केवल दो बार के सांसद को लोकसभा के अध्यक्ष जैसे जिम्मेदारी वाले पद पर नियुक्ति देना निसंदेह संसदीय लोकतंत्र की बड़ी घटना कही जा सकती है।
यह ठीक है कि ओम बिडला संसदीय कार्रवाई के संचालन जैसा कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं रखते हैं, लेकिन संसदीय सचिव के रूप में वह अपनी योग्यता दिखा चुके हैं। फिर यह भी सही हैं कि जब व्यक्ति के पास कोई पद आता है, तो उस पद से जूड़ी जिम्मेदारियों को निभाने की दक्षता कमोबेश स्वत: र्स्फूत उसके पास आ ही जाती है। लोकतंत्र के ग्रासरूट लेबल पर काम करने वाले बिड़ला की राजनीतिक यात्रा का आरंभ स्कूल की राजनीति से ही हुआ। उस वक्त वह कोटा के गुमानपुरा सीनियर सेकेंडरी स्कूल की छात्र संसद के प्रमुख बने। हालांकि कॉलेज का छात्र संघ चुनाव वह हारे भी लेकिन कैरीयर के शुरूआती दौर में मिली इस हार से डगमगाए नहीं। हार के बावजुद छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। सहकारी समितियों के चुनाव में बिडला ने हमेशा से रूची ली।
साल 1992 से 1995 के बीच वह राष्ट्रीय सहकारी संघ के उपाध्यक्ष रहे। लोकसभा के अध्यक्ष पद के लिए किसी नए चेहरे के आने के कयास उस वक्त लगाए जाने लगे थे जब पीएम मोदी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में गुणवता, निपुणता और तत्परता पर सबसे अधिक फोकस करने की बात कही थी। लेकिन नए चेहरे के रूप में ओम बिड़ला के आने का अनुमान शायद ही किसी को था। अब बिडला की इस अप्रत्याशित नियुक्ति के बाद भाजपा ने एक तरह से इस बात का संकेत दे दिया है कि बडे़ और महत्वपूर्ण पदों के लिए न केवल अनुभव को तरजिह दी जाएगी बल्कि अनुभव से बाहर और भी बहुत कुछ देखा जाएगा।
कोई संदेह नहीं अभी हमारे माननीयों का सदनों की कार्रवाईयों के प्रति जो रवैया है, उसमें नए लोकसभा अध्यक्ष को अतिरिक्त कुशलता का परिचय देना होगा। हालांकी पीएम नरेन्द्र मोदी के नई लोकसभा के पहले दिन के संबोधन से निश्चय ही सदन के भीतर सकारात्मक भावना का माहौल बना है। लेकिन केन्द्रीय बजट और तीन तलाक जैसे एजेंडों पर जब सदन के भीतर चर्चा होगी तब सदन की गरीमा को बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती नए अध्यक्ष के सामने होगी। इसके अलावा पिछली लोकसभा के लंबित विधेयकों को सर्वसम्मती से पारित करवाने का मुश्किल काम भी उनको करना होगा।
16 वीं लोकसभा में 273 विधेयकों में से 240 विधेयक पारित हुए जबकि 33 लंबित रह गए थे। संसदीय सत्रों में कामकाज के दिनों की लगातार कम होती संख्या तथा बार-बार संसद को स्थगित किए जाने की समस्या पर नियंत्रण करना भी बिड़ला की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होगी। नए अध्यक्ष बिड़ला को यहां ब्रिटिश संसदीय कार्यप्रणाली को स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। ब्रिटिश संसद साल में कम से कम 200 दिन कार्य करती हैं। सांसदों के लिए कम से कम 100 दिनों की सक्रिय उपस्थिति को अनिर्वाय बनाये जाने जैसी नियमों की स्थापना अगर बिड़ला के कार्यकाल में हो पाती है, तो नि:संदेह संसदीय लोकतंत्र को मजबुत करने में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। नए लोकसभा अध्यक्ष के बारे में यह कहा जाता है कि वह चीजों और घटनाओं का ठीक विश्लेषण करते हंै और फिर उसी के अनुरूप निर्णय करते हंै । अगर ऐसा है तो कोई संदेह नहीं कि 17 वीं लोकसभा के नवनिर्वाचित स्पीकर ओम बिड़ला इन चुनौतियों से पार पा ही लेगें।
-लेखक: एन.के. सोमानी
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