चुनावी तारीखों का एलान हो चुका है। ऐसे में 2019 के चुनावी महाभारत में अपने-अपने तरीके से राजनीतिक दल तरकश से तीर रूपी वादे और दावे करना शुरू कर दिए हैं। कांग्रेस अगर रोटी और राम के सहारे पुनर्जन्म की बाट जोह रहीं, तो समूचा सत्तापक्ष चौकीदार बन 272 के जादुई आंकड़े छूने को उतावला दिख रहा। ऐसे में बात जब चुनावी मौसम में जन और उससे जुड़े मुद्दे की होगी। फिर नजर तो यहीं तात्कालिक दृश्य से आएगा, कि जन और उसके मुद्दें चुनावी नारों के फेर में कहीं न कहीं धूमिल से हो रहें। ऐसे में जब देश की अवाम एक बार पुन: लोकतंत्र के पावन पर्व पर अपने मताधिकार का उपयोग करने आगामी दिनों में जा रहीं। तो उसे पच्चन वर्ष बनाम पांच वर्ष नहीं, तो कम से कम मोदी सरकार के पांच वर्ष बनाम यूपीए-1 और यूपीए- दो के कार्यों का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए। जिससे बेहतर और श्रेष्ठ रहनुमाई तंत्र का चुनाव हो सके। जो मजबूत सरकार ही न हो, बल्कि बेहतर शासन और कुशल नीति निर्माण का खाका भी खींच सकें। जिससे देश और समाज सशक्त बन सकें।
यहां बात जब अवाम द्वारा बेहतर सरकार के चुनाव की हुई। तो कुछ तर्क होंगे। हमाम में सब नंगे है। फिर बेहतर का चुनाव कैसे होगा। ऐसे में कुछ जिम्मेदारी आम मतदाता की भी बनती है। आखिर मतदाता जनप्रतिनिधि चयन के समय जाति, धर्म और अपना-पराया क्यों देखता है। एक तरफ उसे बेहतर राजनीतिक तंत्र चाहिए दूसरी तरफ उसे जाति, धर्म के उम्मीदवार को मत भी देना है। तो ऐसे में दोहरा चरित्र तो आम जनमानस में भी है। ऐसे में अगर उसे लोकतंत्र के मंदिर में सर्वोत्तम चाहिए, तो बदलाव तो उसे भी अपनी सोच में करना होगा। आज क्या कारण है, कोई दलित मत का मसीहा बन बैठा तो कोई यादव, मुस्लिम और ब्राह्मण का। शायद इसलिए क्योंकि अवाम खुद जाति, धर्म, उम्मीदवार का देखकर मत देती है। तो पहले बदलाव अवाम को अपनी सोच में करना होगा।
फिर बेहतर उम्मीदवार तो अपने-आप राजनीतिक दल चुनावी महाकुंभ में खड़ा करने लगेंगे। तो इस 2019 के चुनावी कुंभ में लगभग सभी दलों के उम्मीदवारों का एलान हो चुका या आने वाले दिनों में हो जाएगा। ऐसे में इस बार अवाम के पास मौका इन्हीं में से श्रेष्ठ चुनने का है। फिर अब अवाम को सवाल अपने जनप्रतिनिधियों से पूछना होगा कि आखिर वो मत उन्हें क्यों दें और वो उनके लिए सर्वश्रेष्ठ जनप्रतिनिधि क्यों आउट कैसे साबित होंगे। दरअसल एक बात पर गौर करें, तो बड़ा दुर्भाग्य है विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का। जिसके संविधान में बोलने आदि की आजादी भी दी गई है, लेकिन देश की अवाम सिर्फ मत किसी तरह देकर अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लेती है। उसे इस आबोहवा से बाहर निकलना होगा। अगर खुद का, अपने समाज का और देश का विकास होते देखना चाहते तो। वरना इन सियासतदानों का क्या है, ये ऐसे ही देश को नारों के फेर में उलझाकर अपनी कुर्सी हथियाते रहेंगे।
यहां समझने की बात यह भी है, कि चुनाव की तारीख के साथ सभी दल जनता के बीच पहुँच रहें। लेकिन दुर्भाग्य है वह जनता का दरवाजा सटीक और यर्थाथ के मुद्दों पर न खटखटाते हुए भावनात्मक रूप से उन्हें बरगला रहें। यहां जब हम इक्कीसवीं सदी में जी रहें, विश्व परिदृश्य पर हम कई मायनों में पिछड़े हुए तो बात जनमानस के चहुँमुखी विकास की होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य देखिए उस लोकतंत्र का। जिसमें जिक्र पहले लोक का आता है। उसी में कोई रोटी और राम के नाम पर अपनी दुकान को चमकाने की फिराक में है। तो कोई चौकीदार के बल सत्ता में पुन: वापसी चाहता है। ऐसे में जब आगामी दिनों में करीब 90 करोड़ भारतीय अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। तो उस समय हमारे सामने यह बात अपनी तस्दीक देगी कि हम सिर्फ आबादी और आकार के लिहाज से एक बड़े मुल्क के रूप में तो हैं, लेकिन उसी मुल्क में बहुतायत समस्याएं भी हैं। जिन पर निगहबानी सियासतदां भी आज के दौर में करना नहीं चाहते।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के सर्वे के मुताबिक, रोजगार के अच्छे अवसर, बेहतर स्वास्थ्य सेवा, पेयजल, अच्छी सड़कें और सार्वजनिक यातायात के साधन लोगों के लिए प्रमुख मुद्दे हैं। खेती-किसानी से जुड़े मसले भी मतदाताओं के लिए अहम प्राथमिकता रखते हैं। प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे में बताया गया है कि लोग बेरोजगारी की समस्या का ठोस समाधान चाहते हैं और कारोबार को बढ़ाने की जरूरत महसूस करते हैं। लेकिन सियासतदां कर क्या रहें, इससे वाकिफ हम और आप सभी हैं। ऐसे में अब सियासतदां के कार्य क्या होते यह बताने के लिए अवाम को जाति, धर्म आदि का पीछा छुड़ाते हुए खुद आगे आना होगा। तभी देश, समाज और अवाम का कुछ भला हो सकता। वैसे इस बार का लोकतांत्रिक पर्व कई अन्य मायनों में भी रोचक रहने वाला है।
इस बार के आम चुनाव में पहली बार ऐसे मतदाता भी अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। जिनका जन्म इक्कीसवीं सदी में हुआ है। वहीं इक्कीसवीं सदी जिस सदी में तकनीक अपने उच्चतम विकसित अवस्था में हिंडोले मार रही। ये मतदाता उस वर्ग से तालुकात रखते हैं, जिन्हें आगामी समय के लिए देश का कर्णधार माना जाता है। जो स्वतंत्र सोच रखते हैं, विचारों और सूचनाओं बेहतर तरीके से जानने और समझने के अलावा विश्लेषित करते हैं। यहां जब ऐसे मतदाताओं के आंकड़े पर निगहबानी करेंगे तो चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 2019 के आम चुनाव में ऐसे नौ फीसदी मतदाता पहली बार शामिल होंगे। जो मतदान करेंगे। ऐसे में सियासतदानों को अब व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप और आक्षेप की राजनीति से इतर होकर मुद्दों की राजनीति पर बल देना होगा, और अवाम को बढ़-चढ़ कर मतदान करना होगा। अगर ये दल सत्तासीन होना चाहते तो? इसके अलावा बेहतर लोकतंत्र की परिकल्पना को सिद्ध करना चाहते तो।
महेश तिवारी
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