अतीत के झरोखे: पिता-पुत्री की जोड़ी का सरसा लोकसभा सीट पर रहा है दबदबा

Lok Sabha Elections

-अब तक के लोकसभा चुनावों में जनता ने दोनों को 6 बार सिर आंखों पर बैठाया

सच कहूँ/सुनील वर्मा
सरसा। हरियाणा के गठन के बाद 1967 में हुए पहले लोस चुनाव में वरिष्ठ कांग्रेस नेत्री कुमारी शैलजा के पिता दलबीर सिंह को सरसा संसदीय क्षेत्र का पहला सांसद बनने का गौरव प्राप्त है। इतना ही नहीं सरसा संसदीय क्षेत्र की आरक्षित सीट पर छह बार पिता-पुत्री यानि कुमारी शैलजा व उनके पिता दलबीर सिंह को सरसा संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने सिर आंखों पर बैठाया है। बता दें कि हरियाणा बनने से पूर्व सरसा सीट संयुक्त पंजाब में सरसा-फाजिल्का के नाम से बनी हुई थी। 1 नवंबर 1966 के बाद जब हरियाणा बना तो पहला चुनाव 1967 में हुआ। जिसमें कांग्रेसी दिग्गज दलबीर सिंह ने एक तरफा मुकाबले में आजाद प्रत्याशी तेजा सिंह को पटखनी दी थी।इसके पश्चात 1971 में भी मतदाताओं ने कांग्रेस में अपना विश्वास जताते हुए दलबीर सिंह को एक फिर से संसद में भेजा।

दूसरे चुनाव में दलबीर सिंह ने विशाल हरियाणा पार्टी के जगन्ननाथ को हराया। 1977 में तीसरी बार कांग्रेस ने एक फिर दलबीर सिंह पर दांव खेला। लेकिन इस दौरान वे जनता पार्टी की लहर का सामना नहीं कर पाए और चुनाव हार गए।1971 में जनता पार्टी से चांदराम बाहरी प्रत्याशी होने के बाद भी जीत गए। लेकिन 1980 के चुनाव में दलबीर सिंह ने फिर वापसी करते हुए जनता पार्टी के फूलचंद को हरा दिया। इसके पश्चात 1984 के आम चुनाव में दलबीर सिंह ने फिर बढ़त बनाते हुए लोकदल के मनीराम को धूल चटाई। 1988 में हुए चुनाव में लोकदल के हेतराम ने सरसा संसदीय सीट पर जीत दर्ज की।

1989 में चुनाव में पहली बार कांग्रेस ने कुमारी शैलजा को दिया था टिकट

1989 में हुए चुनावों में पहली दफा कांग्रेस ने कुमारी शैलजा को टिकट दिया। मगर वह जनता पार्टी के हेतराम से चुनाव हार गई। 1991 के आम चुनाव में कुमारी शैलजा ने जनता पार्टी के हेतराम को हराकर अपना बदला लिया। 1996 में शैलजा फिर से चुनाव जीत गई और समता पार्टी ने इस चुनाव में हेतराम की जगह डॉ. सुशील इंदौरा को चुनावी मैदान में उतारा। 1998 में हुए चुनाव में डा. सुशील इंदौरा ने कांग्रेस की कुमारी शैलजा को भारी मतों के अंतर से हरा दिया।

1999 के चुनाव में सुशील इंदौरा यहां से विजयी हो गए। 1999 के चुनाव में कांग्रेस ने कुमारी शैलजा की जगह ओमप्रकाश केहरवाला का चुनाव मैदान में उतारा था। 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस के आत्मा सिंह गिल जीते। 2009 के चुनाव में कांग्रेस के एकदम नए चेहरे अशोक तंवर पर दांव खेला और वे चुनाव जीत गए। 2014 के चुनाव में इनेलो की रणनीति के आगे कांग्रेस के डॉ. अशोक तंवर हार गए और यहां से इनेलो के चरणजीत सिंह रोड़ी विजयी रहे।

नहीं गली निर्दलीयों की दाल

लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस, भाजपा, इनेलो के विकल्प के रूप में कुछ राजनीतिक दलों व संगठनों द्वारा तीसरा मोर्चा खड़ा करने की बात हो रही है। इन सबके विपरीत सरसा संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने पिछले 16 लोस चुनावों में कभी भी निर्दलीय या गैर कांग्रेस, गैर देवीलाल परिवार की पार्टी को यहां से जीतने का मौका नहीं दिया है। इस अवधि में यहांं बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, माकपा, भाकपा, आम आदमी पार्टी, भाजपा जैसे विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव लड़ते आए लेकिन जनता ने कभी उनके प्रतिनिधियों को जीत हासिल कर सकने वाला समर्थन नहीं दिया। कांग्रेस व इनेलो को छोड़ दिया जाए तो सरसा संसदीय सीट से चुनाव लड़ने वाली ज्यादातर पार्टियां सिर्फ ‘वोट कटवा’ साबित हुई हैं। ये बात जरूर है कि आजाद प्रत्याशी पार्टियों के लाखों वोट काटकर उनके लोगों को हराने और उनका वोट परसेंटेज गिराने का काम बखूबी किया है।

1988 के उपचुनाव में बिना पैसा खर्च किए जीते थे हेतराम

गांव साहुवाला द्वितीय के रहने वालेहेतराम बताते हैं कि जिस वक्त उन्होंने चुनाव लड़ा था, उस वक्त पैसे की इतनी अहमियत नहीं थी। न ही उस वक्त उनके पास से चुनाव लड़ने का कोई पैसा लिया गया। लेकिन वर्तमान में सभी राजनैतिक दलों में इस बात को लेकर होड़ मची हुई है कि धन बल के बूते पर वे किसी तरह चुनाव जीत जाएं। राजनैतिक दलों द्वारा पैसे का खेल उम्मीदवार को टिकट देने से लेकर शुरू होता है, जोकि वोटिंग होने तक जारी रहता है।

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