जैसे-जैसे 2019 का लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं हमारे लोकतंत्र में विभिन्न दलों के प्रत्याशियों द्वारा एक नई कहानी को बढ़ावा दिया जा रहा है – चुनाव प्रचार में उत्तेजित अपशब्द बयान बाजियां। 2019 का चुनाव प्रचार को देख हमारे दिमाग में एक प्रश्न उभरता है कि क्या लोकतंत्र की पाठशाला में आज हमारी पीढ़ियां राजनीति के सबसे आत्मघाती सबक सीख रही है? तो क्या इसका जवाब हां देने में कोई संकोच नहीं होता। क्योंकि प्रश्न हमारे लोकतंत्र में उभरती हुई नई पीढ़ियों के आचरण और व्यवहार को देखकर है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जिन घरों में माता-पिता आपस में हमेशा लड़ते रहते हैं उन घरों के बच्चों के हिंसक अवसाद ग्रस्त, व्यसनी, और आत्मघाती होने की आशंका अधिक होती है। और हम जानते हैं कि कोई भी बच्चा अपने माता-पिता शिक्षकों और सीनियरों के उपदेशों और अनुदेशो से नहीं सिखता, बल्कि वह इन सब के वास्तविक आचरण और व्यवहारो को देखकर सिखता है। वह अवलोकन और आॅब्जर्वेशन से ही सीखता है।
ठीक यहीं बात लोकतंत्र पर भी लागू होती है क्योंकि हमारी नई पीढ़ियां लोकतंत्र के बारे में नागरिक शास्त्र या राजनीतिक विज्ञान को पढ़कर नहीं सिखती। वैसे भी भारत के ज्यादातर स्कूलों और कॉलेजों में सामाजिक विज्ञान के शिक्षण का स्तर हमसे छुपा नहीं है। लेकिन हमारे इस नई पीढ़ियों का असली राजनीतिक शिक्षण रोज-रोज के अखबारों और न्यूज गैलरियो से भरे राजनीतिक खबरों से होता है, राजनेताओं के बहुप्रचारित चरित्र और सार्वजनिक आचरण को देखकर होता है। और चुनाव के समय इन नई पीढ़ियों का भी कौतूहल और उनकी दिलचस्पी अपने चरमोत्कर्ष पर होती है, क्योंकि माता पिता से लेकर घर बाहर हर कोई चुनाव की चर्चाओ में ही मगशूल होता है और चुनाव प्रचार तथा उस दौरान बनने वाले तनावपूर्ण वातावरण से हमारे बच्चे भी अछूते नहीं रहते।
इसके अलावा संसद के विभिन्न कार्यवाहियों के स्वरूप से भी हमारे आज के बच्चे परिचित हो रहे हैं। सरकार में सर्वोच्च पद पर आसीन लोगों के बयानों और आचरण को भी फॉलो करने लगे हैं ।हमें उम्मीद है कि वे इन सब का मूल्यांकन करते होंगे, लेकिन प्रश्न मूल्यांकन का नहीं बल्कि अनुकरण की है? क्योंकि कच्ची उम्र में मूल्यांकन से ज्यादा संभावना अनुकरण की होती है और ऐसे पदों के साथ जिस प्रकार का ग्लैमर और प्रचार तंत्र जुड़ा होता है वह बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों तक को आकर्षित और प्रभावित करता है फिर बच्चों का तो क्या ही कह सकते हैं।
देखा जाए तो आज की राजनीतिक प्रचार प्रसार में असहिष्णुता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है चाहे वे एक दल द्वारा दूसरे दल हेतू इस्तेमाल की गई अपशब्द टिप्पणियां हो या अनैतिक बोल वचन। कोई किसी को सुनने के लिए तैयार नहीं है आक्रामकता आज के राजनेताओं की स्वभाव सी बन गयी है। दरअसल पहले लोग देश सेवा के लिए अपने शानदार करियर छोड़कर राजनीति में आते थे पर अब पॉलिटिक्स अपने आप में एक कैरियर सा बन गया है। सत्ता पाने के लिए कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता अपने आक्रमक बयानबाजी से किसी भी हद तक जा सकता है।
वह अपने विरोधियों का मनोबल तोड़ने के लिए हिंसात्मक बयान बाजी का सहारा लेते हैं, जिससे समाज में जातिय या संप्रदायिक गोलबंदी होती है और तनाव पैदा होता है। आज के राजनेताओं में इतना आत्मविश्वास नहीं है कि वह समाज के व्यापक सवालों पर राजनीति करें। समाज के जोड़ने की सकारात्मक राजनीति अब हमारी व्यवस्था में ही दुर्लभ चीज हो गई है। विकास की बात करते हुए भी नेता का जाति धर्म के मोहरा चलते हैं। वर्तमान लोकतंत्र की इस पाठशाला को देखकर हमें यह कहने में जरा सा भी संकोच नहीं होगा कि हम तेजी से एक काम चलाऊ लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहे हैं और आखिर में जिसकी असफलता अराजकता में दिख सकती है या फिर तानाशाही में। इन्हीं सब संदर्भों को देखकर हमारे आज की नई पीढ़ी में कहीं न कहीं नोटा का प्रचलन बढ़ा है।
वर्तमान लोकतंत्र में वही नेतृत्व सत्ता हासिल करने में सफल हो रहा है जिसे असत्य भाषण से परहेज ना। भारत से लेकर अमेरिका तक नजर दौड़ाई जाए तो यह देखने को मिलेगा कि जिनके पास प्रकट – अप्रकट स्रोतों से जमा किया गया अकूट पार्टी फंड हो और उड़न जहाज की असीमित सुविधा उपलब्ध हो वैसे लोग धुआंधार प्रचार कर लोगों को दिलों दिमाग पर छा सकते हैं। जिनके पास प्रचार तंत्र का ऐसा जाल हो जो छल, बल और कल से जनमत को प्रभावित करने में सक्षम हो; चुनावों में वही अक्सर बाजी मार ले जा सकते हैं। भोली जनता के विश्वास को जीतने के लिए भावनात्मक अभिनय कर सकने वाले लोग इसमें सफल हो सकते हैं।
एक प्रकार से देखा जाए तो आज हमने अपने लोकतंत्र को किसी वोटिंग मशीन के चीप में चिपका दिए हैं जहां उसका दम घुट रहा है। हमने अपने लोकतंत्र को बाभन-
ठाकुर, मुस्लिम-पटेल और कुर्मी-यादव जैसे जातीय गुणा-गणित के हाथों गिरवी रख दिये है। पब्लिक स्फीयर की ज्यादातर बौद्धिक चचार्एं भी संबंधित चुनाव वीरों के उल्टे सीधे बयानों की चीर फाड़ और सीटों की अनर्गल आकलनों तक सीमित हो गई है। न्यूज चैनलों के बारे में जितना कहे उतना ही कम है। नई पीढ़ियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसी सतही विचार-व्यापार का ग्राहक और उपभोक्ता हैं। यहां तक कि वह फेक न्यूज के आधार पर भी तेजी से अपनी धारणाएं बना लेने की प्रवृत्ति का शिकार है। ऐसा नही है कि दुनियाभर की जनता लोकतंत्र की इन सड़ते हुए घावों या गैंगरिंन के इलाज के लिए छटपटा नही रही हो,उसने हिम्मत न हारी हो। यह भी अच्छा है कि इसका नेतृत्व युवाओं की हमारी नई पीढियां ही कर रही है।
लेकिन आदर्श लोकतंत्र का संघर्ष इतना भी आसान नहीं है। उसका रास्ता क्यों वैकल्पिक राजनीति के रास्ता नहीं जाता। इसका कारण यही है कि जब तक व्यक्ति-व्यक्ति का मानस और आचरण लोकतांत्रिक नहीं होता, जब तक परिवार और समाज की अन्य संस्थाओं का स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं हो जाता, जब तक जाति-उपजाति ,संप्रदाय, क्षेत्र ,भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव और टकराव समाप्त नहीं हो जाते तब तक संवैधानिक संस्थाओं और राजनेताओं का चरित्र लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। तब तक हमें लोकतंत्र के इसी काम चलाऊ और विकृत नमूने से काम चलाना पड़ सकता है नहीं तो इसके अलावा दो ही विकल्प बचेंगे, या तो अराजकता या फिर तानाशाही।
अत: यही कहा जा सकता है कि जिस प्रकार उदारीकरण के समय राजनीतिक जवाबदेही थी, जिस प्रकार राजनीति नैतिक मूल्यों से सहसंबद्ध थी; उसे बनाये रखा जाना चाहिए। क्योंकि आज की नवीन पीढ़ी और इस समाज मे रहने वाले व्यक्ति हमारे अपने ही है। इन्हें तानाशाही और अराजकता की ओर अग्रसर होने से रोके। ताकि एक नवीन पीढ़ी के साथ नैतिक और विकासात्मक लोकतंत्र की नई रूपरेखा दी जा सके।
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