देश में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। देश में तीसरे चरण के मतदान के लिये वोट डाले जा चुके हैं। (lok-sabha-election-16) हर जगह चुनाव का शोर हो रहा है। ऐसे में देश की राजनीति में कभी प्रमुख भूमिका निभाने वाले वामपंथी दलो की नगण्य उपस्थिति लोगों को चौंका रही है। देश की राजनीति में आजादी पूर्व से अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराते आ रहे वामपंथी दल इस बार के लोकसभा चुनाव में अपना अस्तित्व बचाते नजर आ रहे हैं। कभी पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरल में सरकार चलाने वाले वामपंथी दलों की अब सिर्फ केरल में सरकार बची है। ऐसे लगता है जैसे चुनावी शोर में वामपंथी दल गुम हो गये हों।
1951 में देश में हुए पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को 489 सीटो में से 16 सीटों पर जीत मिली थी तथा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। 1957 के लोकसभा चुनाव में भाकपा को 27 सीटो पर जीत मिली थी व 8.94 फीसदी वोट मिले थे। भाकपा उस समय लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल भी थी। 1957 में ही भाकपा ने केरल में मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में पहली कम्युनिष्ट सरकार बनाने में सफलता पाई थी मगर केरल की सरकार ज्यादा समय नहीं चल सकी थी। प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने दो साल बाद 1959 में केरल की पहली वामपंथी सरकार को बर्खास्त कर दिया था। 1962 के लोकसभा चुनाव में भाकपा ने 9.94 फीसदी वोटो के साथ 29 सीट जीती थी।
1977 में आपातकाल के बाद जनता पार्टी की लहर में कम्युनिष्टों की ताकत में कमी आयी। भाकपा ने देश में आपातकाल लगाने के कांग्रेस के फैसले का समर्थन किया था व कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। इसलिये कांग्रेस विरोधी माहौल में भाकपा का भी सफाया हो गया। भाकपा को मात्र 7 सीट व 2.82 फीसदी वोट मिले थे। जबकि माकपा ने आपातकाल लगाने का विरोध किया था। उसे 22 सीट व 4.30 फीसदी वोट मिले थे। जून 1977 में पश्चिम बंगाल में 231 सीटों के साथ पहली बार वाम मोर्चा की सरकार बनी व माकपा नेता ज्योति वसु मुख्यमंत्री बने। उस सरकार में भाकपा शामिल नहीं थी। बंगाल में 2011 तक वाममोर्चा की सरकार रही जो लगातार 34 वर्षो तक चली। 1980 के लोकसभा चुनाव में भाकपा को 10 सीटों के साथ 2.49 फीसदी वोट मिले व माकपा को 37 सीट व 6.24 फीसदी वोट मिले थे।
1984 में भाकपा को 6 सीट व 2.71 फीसदी वोट व माकपा को 22 सीटों के साथ 5.87 फीसदी वोट मिले। 1989 में(lok-sabha-election-16) भाकपा को 12 सीट व 2.57 फीसदी वोट व माकपा को 33 सीट व 6.55 फीसदी वोट मिले थे। 1991 में भाकपा को 14 सीट व 2.48 फीसदी वोट वहीं माकपा को 35 सीट व 6.14 फीसदी वोट मिले थे। 1996 में भाकपा को 12 सीट व 1.97 फीसदी वोट व माकपा को 32 सीट व 6.12 फीसदी वोट मिले थे। 1998 में भाकपा को 9 सीटों के साथ 1.75 प्रतिशत मत व माकपा को 32 सीट व 5.40 फीसदी वोट मिले। 1999 में भाकपा को 4 सीट व 1.48 फीसदी वोट व माकपा को 33 सीट व 5.44 फीसदी वोट मिले थे।
2009 के लोकसभा चुनाव में वामदलों की सीटों में भारी कमी आयी व भाकपा को 4,माकपा को 16, आल इंडिया फार्वर्ड ब्लाक को 2, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी को 2 सीट मिली। देश की जनता को कामरेडों का दोहरा चरित्र पसन्द नहीं आया। एक तरफ तो उन्होंने सरकार को समर्थन देकर सरकार का गठन करवा कर कार्यकाल पूरा करवाया वहीं दूसरी तरफ सरकार के कार्यकाल समाप्ति के समय परमाणु समझौते का विरोध कर अविश्वास प्रस्ताव लाने को देश की जनता ने पसन्द नहीं किया व वामपंथियों का सफाया कर दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लहर में तो वामपंथियों का पूरी तरह सफाया हो गया। भाकपा को सिर्फ एक सीट व 0.78 फीसदी वोट, माकपा को 9 सीट व 3.25 फीसदी वोट मिले। रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी को एक सीट व 0.30 फीसदी वोट मिले थे। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद वामदलों को अब तक की सबसे खराब स्थिति देखने को मिल रही है। वामदलों की 2011 में पश्चिम बंगाल में अपनी 34 साल की सरकार चली गयी। लगातार पांच बार जीतने के बाद 2018 में त्रिपुरा में भाजपा ने वामपंथियों को करारी शिकस्त देकर सत्ता से बाहर कर दिया। एकमात्र केरल राज्य में उनकी सरकार बची है।
देश में जिस तेजी से कम्युनिष्ट पार्टियों के वोट बैंक में गिरावट आ रही है वह उनके लिये सोच कर मनन करने का विषय है। कहने को तो वामपंथी दल लोकसभा चुनाव में देश भर में अपने प्रत्याशी उतारने का दावा कर रहे हैं मगर उनमें से ज्यादातर जमानत भी नहीं बचा पायेगें। वामपंथियों को केरल के अलावा देश के अन्य किसी राज्य में एक भी सीट मिलती नजर नहीं आ रही है। कभी कम्युनिष्टो के गढ़ रहे पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा में भी वामपंथियो का जनाधार खिसक गया है। आज पश्चिम बंगाल में तो माकपा मुख्य विपक्षी दल भी नहीं हैं। भाकपा व माकपा की राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल की मान्यता समाप्त होने के कगार पर है। वामपंथी पार्टियों के गिरते जनाधार का कारण इनके बड़े नेताओं का आम जनता से कटना है। पश्चिम बंगाल के वर्षो के शासन में इनके काडर मनमानी करने लगे थे। वाम मोर्चा सरकार की नीतियों के कारण वहां के अधिकतर कल-कारखाने बंद हो गये हैं। वामपंथी दलो द्वारा आये दिन की जाने वाली हड़तालों से आम आदमी आजीज आ चुका था। कोई उद्योगपति प्रदेश में उद्योग लगाने को तैयार नहीं था।
देश की वामपंथी पार्टियों को आज भी कांग्रेस के निकट माना जाता हैं। कांग्रेस के साथ होने से भी कामरेड धीरे-धीरे जनता से कटते गये। देश की जनता कभी कामरेडों को कांग्रेस का विकल्प मानती थी मगर वो कांग्रेस की गोद में बैठते चले गये। 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने से उनका वहां रहा सहा जनाधार भी जाता रहा। कांग्रेस वामपंथी दलों से ज्यादा सीटें जीतकर विधानसभा में विपक्षी दल बन गयी व कामरेड मुंह ताकते रह गये। अभी भी कामरेडों का कांग्रेस से मोह भंग नहीं हुआ है। इसी के चलते भोपाल सहित कई सीटों पर बिन मांगे कांग्रेस प्रत्याशियों का समर्थन करते घूम रहें हैं। यदि समय रहते कम्युनिष्ट पार्टियां अपनी रीति नीति में आमूलचूल परिवर्तन नहीं लायेगी तो आने वाले समय में वो देश की राजनीति में अप्रसांगिक बन कर रह जाएंगी।
रमेश सर्राफ धमोरा
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