सिर्फ अपने नहीं बल्कि देश के लिए भी जीएं

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हरि शंकर आचार्य

बीकानेर के लक्ष्मण मोदी के प्रतिदिन डेढ़ से दो घंटे झुग्गी-झोंपड़ियों में बीतते हैं। इस दौरान वे बच्चों को पढ़ाते हैं। उन्हें व्यक्तित्व निर्माण के गुर सिखाते हैं। मोदी सप्ताह में एक बार इन बच्चों को अपने घर ले जाते हैं। उन्हें टीवी दिखाते हैं। कम्प्यूटर और लेपटॉप चलाना सिखाते हैं। एक महीने में एक बार विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों और शिक्षण संस्थाओं का भ्रमण करवाते हैं।

बच्चों में राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा हो सकें, इसके दृष्टिगत इन बच्चों के साथ सार्वजनिक स्थानों पर लगे अवैध पोस्टर-हॉर्डिंग हटाते हैं। सफाई अभियान चलाते हैं और पॉलीथीन के दुरूपयोग के बारे में बताते हैं।

अभावों में जी रहे इन लोगों तथा इक्कीसवीं सदी में मुख्यधारा से वंचित इन बच्चों को देखकर उनके मन में इन बच्चों के लिए कुछ करने की इच्छा हुई। इसी भाव के साथ वे इस बस्ती में पहुंचे। एक चौपहिया वाहन अपनी ओर आते देख बच्चों ने उसे घेर लिया। मोदी उतरे और उनके हाथों मे कुछ नहीं था, तो एक बारगी बच्चे निराश हो गए।

बच्चों को लगा जैसे हर कोई उनकी गरीबी और असमर्थता को देखकर उन्हें आर्थिक सहायता और कुछ सामान दे जाते हैं, मोदी भी उसी ध्येय से आए होंगे, लेकिन मोदी ने कहा वे बच्चों को पढ़ाने आए हैं। यह सुनकर भी उनके मन में कोई उत्सुकता देखने को नहीं मिली, क्योंकि वे इससे पहले भी ऐसे दावे देख चुके थे। लेकिन मोदी मानो ‘धुन के धनी’ थे।

उन्होंने अगले ही दिन से वहां क्लास लगानी शुरू कर दी। पांच बच्चों से शुरू हुआ यह सिलसिला 28 तक पहुंच गया। उनकी लगन देखकर बच्चों के अभिभावकों ने पढ़ाई के लिए एक झोंपड़ी बना दी। अब मोदी प्रतिदिन यहां आते और उन्हें पढ़ाते। पढ़ाई के साथ वे बच्चों को सिखाते, अभिवादन का सलीका और शरीर को साफ-सुथरा रखने की कला।

पांच-छह महीनों में ही इन बच्चों को अक्षर ज्ञान हो गया। अब इन बच्चों का दाखिला पास के एक सरकारी स्कूल में करवा दिया गया और भामाशाहों के सहयोग से स्कूल डेज्स, बस्ते और कॉपियां भी आ गईं। फिर इन बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूटर भी लगा दिया गया। मोदी इन बच्चों को अपने घर ले जाते। वहां भी एक क्लास-रूम बन गया।

बच्चे यू-ट्यूब पर कार्टून और बच्चों की फिल्मे देखते। इन्होंने सैनिक स्कूल का भ्रमण किया। योग और प्राणायाम सीखा। साथ ही सीखा स्वावलम्बी बनकर जीने का तरीका। मोदी का जुनून यहां भी नहीं रुका। अब मोदी इन बच्चों को शहर के विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर ले जाते हैं। इन स्थलों के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में बताते हैं।

प्रमुख सर्किलों और ऐतिहासिक भवनों पर लोगों द्वारा पोस्टर एवं हॉर्डिंग लगाकर इनकी सुंदरता को बिगाड़ दिया जाता, तो मोदी खुद भी इनकी सफाई करते और बच्चों से भी करवाते हैं। पिछले दो-ढाई सालों में मोदी इन बच्चों के साथ परिजन की तरह जुड़ चुके हैं। इस दौरान बच्चों के व्यवहार और रहन-सहन के सलीके में भी आमूलचूल परिवर्तन आ गया है। अब ये बच्चे किसी के सामने भीख के लिए हाथ नहीं फैलाते। झोपड़ियों में आने वालों को बेवजह परेशान नहीं करते।

मोदी ने कुछ समय पूर्व जो छोटा सा सपना देखा, वह आज साकार होने की ओर अग्रसर है। इसके लिए मोदी को किसी ने प्रेरित नहीं किया, बल्कि उनके दिल में इसके प्रति संवेदनशीलता की भावना जगी। ऐसा करना मोदी के लिए जरूरी नहीं था और वह भी आम चलन की भांति इन झोपड़ियों और इनमें रहने वाले लोगों के प्रति हीन भावना या क्षणिक संवेदना जताकर भूल सकते थे, लेकिन इन्होंने समाज को कुछ देने का मन बनाया।

एक संकल्प लिया और इसे पूरा करने में जुट गए। भविष्य में यदि इनमें से एक या दो बच्चे भी अच्छा मुकाम हासिल कर लेंगे तो उनके मन में सदैव मोदी के प्रति कृतज्ञता का भाव रहेगा, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। तो इस ‘संडे का फंडा’ यह है कि हमें सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि देश और समाज को कुछ देने के जुनून के साथ जीना चाहिए। इस दिशा में किए गए हमारे छोटे-छोटे प्रयास पिछड़े लोगों को मुख्यधारा से जोड़ देते हैं और यह देश को विकास के पथ पर ले जाने में सूक्ष्म लेकिन ठोस भूमिका निभाते हैं।

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