गत माह पहले प्रकाशित नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि कोलम (आंध्रप्रदेश और तेलंगाना), कोरगा (कर्नाटक), चोलानायकन (केरल), मलपहाड़िया (बिहार), कोटा (राजस्थान), बिरहोर (ओडिसा) और शोंपेन (अंडमान और निकोबार) के विशिष्ट संवेदनशील आदिवासी समूहों की तादाद घट रही है और आदिवासी बच्चों की मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से दोगुना स्तर पर पहुंच गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक जनजातीय बच्चों की मृत्यु दर 35.8 है, जबकि राष्ट्रीय औसत दर 18.4 फीसद है। इसी तरह जनजातीय शिशु मृत्यु दर 62.1 फीसद है, जबकि राष्ट्रीय शिशु मृत्यु दर 57 फीसद है। यह आंकड़ा भारत की सांस्कृतिक विविधता पर मंडराते किसी खतरे से कम नहीं है।
गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘द स्टेट आफ द वर्ल्डस इंडीजीनस पीपुल्स’ नामक रिपोर्ट में भी कहा गया कि मूलवंशी और आदिम जनजातियां भारत समेत संपूर्ण विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि खनन कार्य के कारण हर रोज हजारों जनजाति परिवार विस्थापित हो रहे हैं और उनकी सुध नहीं ली जा रही है। विस्थापन के कारण उनमें गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी बढ़ रही है। परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने भी उन्हें दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जिससे न तो वे अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। बीच की स्थिति के कारण उनकी सभ्यता और संस्कृति दोनों दांव पर हैं।
यह तथ्य है कि भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले जनजातियों के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। ईसाईयत के बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दू संगठन भी उठ खड़े हुए और जनजातियों के बीच धर्म प्रचार आरंभ कर दिए। हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण जनजातियों में भी जाति व्यवस्था के तत्व विकसित हो गये। आज उनमें भी जातिगत विभाजन के समान ऊंच-नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो गया है, जो उनके बीच अनेक संघर्षों और तनावों को जन्म दे रहा है। इससे जनजातियों की परंपरागत सामाजिक एकता और सामुदायिकता खतरे में पड़ गयी है। आज स्थिति यह है कि धर्म परिवर्तन के कारण बहुत से आदिवासियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है।
आज भारत की उत्तर पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रुप में स्वीकार कर अपनी मूलभाषा का परित्याग कर दिया है। जनजातियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत और सरकार की मिलीभगत के कारण भी हो रहा है। जंगल को अपनी मातृभूमि समझाने वाले जनजातियों के इस आशियाने को उजाड़ने का जिम्मा खुद सरकारों ने उठा लिया है। एक रिपोर्ट में आदिवासी जनसमुदाय की दशा पर ध्यान खींचते हुए कहा गया है कि इनकी आबादी विश्व की जनसंख्या की महज 5 फीसदी है, लेकिन दुनिया के 90 करोड़ गरीब लोगों में मूलवासी लोगों की संख्या एक तिहाई है।
अगर विकसित देश अमेरिका की ही बात करें, तो यहां आम आदमी की तुलना में जनजातीय समूह के लोगों को तपेदिक होने की आशंका 600 गुना अधिक है। उनके आत्महत्या करने की आशंका भी 62 फीसदी ज्यादा है। आॅस्ट्रेलिया में जनजातीय समुदाय का कोई बच्चा किसी अन्य समूह के बच्चे की तुलना में 20 साल पहले मर जाता है।
नेपाल में अन्य समुदाय के बच्चे से जनजातीय समुदाय के बच्चे की आयु संभाव्यता का अंतर 20 साल, ग्वाटेमाला के 13 साल और न्यूजीलैण्ड में 11 साल है। विश्व स्तर पर देखें तो जनजातीय समुदाय के कुल 50 फीसदी लोग टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं। इस संख्या में और भी इजाफा होने के आसार हैं। चिंता की बात यह भी है कि जनजातीय समूह सभ्य कहे जाने वाले लोगों के निशाने पर हैं। अमेरिका हो या भारत हर जगह विकास के नाम पर उनके जंगलों को उजाड़ा जा रहा है। जंगल उजाड़े जाने से उनका जीवन पूरी तरह असुरक्षित हो गया है और उन्हें अपनी सुरक्षा और रोजी-रोजगार के लिए अपने मूलस्थान छोड़ना पड़ रहा है।
आज भारत की उत्तर पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रुप में स्वीकार कर अपनी मूलभाषा का परित्याग कर दिया है। जनजातियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत और सरकार की मिलीभगत के कारण भी हो रहा है।
–रीता सिंह
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