भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि का भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन यह भूमिका प्रदेश के विभिन्न प्रांतों में होने वाली फसल पर निर्भर करती है। मौसमी बारिश को इस अर्थव्यवस्था को संभाले रखने में अहम योगदान कहां जाता है। इन सब में दक्षिण-पश्चिम मॉनसूनी प्रभाव सबसे अधिक माना जाता है। 15 मई के आसपास जब दक्षिण-पश्चिम मानसून भारत के द्वीप अंडमान निकोबार में प्रवेश करता है तो सभी से लोगों की निगाहें मॉनसून पर टिक जाती हैं। Monsoon
यही एक ऐसा समय है, जब गर्मी से राहत पाने व किसानों को अपनी खेती के लिए बरसाती पानी की सख्त जरूरत होती है। अंडमान-निकोबार में मॉनसून प्रवेश करने के बाद जून के प्रथम सप्ताह में केरल राज्य में दस्तक देता है। इस बार दक्षिण-पश्चिम मॉनसून ने केरल में 8 दिन देरी से अपनी हलचल मचाने शुरू की। शुरूआती दिनों में बेहतर गति से आगे बढ़ने वाले मॉनसून का अरब सागर से उठे विपरजॉय चक्रवात ने अपहरण कर लिया। इस चक्रवात का प्रभाव यह हुआ कि कुछ समय के लिए मॉनसून एक ही जगह पर टपकता रहा। इसकी गति धीमी हो गई। Monsoon
गुजरात व राजस्थान में तेज हवाओं में भारी बारिश के साथ तबाही मचाने के बाद विपरजॉय चक्रवात शांत हुआ तो एक बार फिर दक्षिणी-पश्चिमी मानसून ने आगे बढ़ना शुरू किया। पर भारतीय मौसम विभाग ने कई बार मॉनसून को लेकर व चक्रवाती हवाओं को लेकर मौसम का पूवार्नुमान घोषित किया। पर उत्तर भारत में मौसम के पूवार्नुमान का कहीं भी कोई असर देखने के लिए नहीं मिला। आम लोगों का मौसम से इस बार ठीक उसी प्रकार भरोसा उठ चुका है,जैसे वह बेवफा हो। बेवफा बेशक उर्दू का शब्द है। लेकिन इसका साफ सा मतलब होता है कि जिस पर आप हद से ज्यादा यकीन करते हैं, यदि वही आपका भरोसा तोड़ दे तो उसे बेवफा कहा जाता है। Monsoon
लेकिन इस शब्द को आजकल के युवा दुनियावी प्रेम से जोड़कर देखते हैं, पर ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। यह कहा जाए इस बार बादलों ने भी भरोसा तोड़ दिया है तो भी किसी प्रकार की कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बादलों को लेकर आधुनिक काल के छायावाद के कवियों ने भी बहुत सी कविताएं लिखी हैं। जिनमें सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता बादल राग अपने आप में मशहूर कविता है। इसमें कृषक समाज को नवजीवन प्रदान करने के लिए बादलों से बरसने का आह्वान किया गया है। इस कविता में कवि निराला ने बादलों को क्रांति का प्रतीक बताया है, क्योंकि बादल के भीतर सृजन और ध्वंस की ताकत एक साथ समाहित होती है।
सही समय पर बादलों का उमड़-घुमड़ कर आना किसानों के लिए उल्लास और निर्माण का अग्रदूत माना जाता है। वास्तव में दक्षिण-पश्चिम मानसून के कारण उठने वाले बादल जब बरसते हैं तो कृषक समाज में एक क्रांति के स्वर उठने लगते हैं। पूरे जोश उत्साह के साथ कृषकों को ऐसे लगता है कि जैसे उन्हें कोई विशेष सहारा मिल गया हो। वर्तमान समय में इसी एक सहारे की किसानों को जरूरत है। यदि अब भी यह मेघा बेवफा बने रहे तो किसानों व आमजन का दिल टूटता नजर आएगा। मॉनसून के भरोसे फसल सूखने के कगार पर पहुंच जाएंगी।
पर अभी भी मॉनसून (Monsoon) से किसानों की आस बरकरार है। बेशक मानसून देरी से पहुंचे। देशभर में मशीनीकरण का अनुपात भी बहुत कम है। ऐसी स्थिति में कृषक को अपनी फसल की बिजाई से लेकर पकने तक बादलों पर निर्भर रहना पड़ता है। कई बार प्रकृति की मार उनकी मेहनत को नष्ट कर देती है। तब कर्ज के बोझ तले दबकर एक मजबूर कृषक अपनी जान भी गवा देता है। सबका पेट भरने वाला अन्नदाता खुद सभी सुख-सुविधाओं से विहीन हो जाता है। ऐसे समय में बादलों की आस ही उन्हें बचाए रखती है।
डॉ. संदीप सिंहमार (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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