कोरोना के साथ जीना सीखो

एक पुरानी कहावत है कि जो शेर की सवारी करता है वह उससे उतरने में डरता है। शायद प्रधानमंत्री मोदी भी इसी दुविधा में हैं। लॉकडाउन को फिर से दो हफ्ते के लिए बढ़ा दिया गया है। किंतु उसके बाद क्या? क्या वे सिर्फ इस आशा के साथ समय काट रहे हैं कि तब तक इस महामारी का प्रभाव कम हो जाएगा या इसका कोई चमत्कारी इलाज अथवा टीका ढूंढ लिया जाएगा। इन प्रश्नों का उत्तर आसान नहीं है और केवल एक बात पक्की है कि कोरोना अभी नहीं जाने वाला है और फिलहाल सामान्य स्थिति नहीं बनने वाली है। गाड़ी स्टेशन छोड़ चुकी है तथापि कोरोना के बाद भी जीवन रहेगा और इसके साथ जीना एक सामान्य बात बन जाएगी।

वास्तव में कोरोना महामारी हमारे जीवन में सबसे बड़ी उथल-पुथल करने वाली, विनाशकारी तथा दूरगामी प्रभाव डालने वाली है। दिसंबर 2019 के अंत से लेकर जब चीन में कोरोना का पहला मरीज मिला अप्रैल के मध्य तक विश्व की एक तिहाई जनसंख्या अपने घरों में कैद है। लॉकडाउन के 42 दिन से अधिक हो गए हैं और कोई भी ऐसा नियम कानून नहीं है जो सरकार को बताए कि क्या किया जाए, कब किया जाए और कैसे किया जाए। कब और कैसे उद्योगों को बंद किया जाए और कब और कैसे उन्हें खोला जाए। विश्व के विभिन्न देश इस बात को लेकर झगड़ रहे हैं कि यह विषाणु जानवरों से मनुष्य में आया है या वुहान की प्रयोगशाला में पैदा किया गया है। किंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यह बड़ा विनाशक है और यह बताता है कि संपूर्ण विश्व एक छोटे से विषाणु के समक्ष घुटने टेकने को मजबूर है। इस महामारी के चलते मानवीय त्रासदी भयावह है, प्रवासी श्रमिक और गरीब लोगों की रोजी-रोटी छिन गयी है और वे पैदल अपने घरों को जा रहे हैं। गरीब लोगों की रोजी रोटी की कोई सुरक्षा नहीं है। वे अपनी दिहाड़ी पर निर्भर रहते हैं।
भारत में 41 करोड़ कामगार असंगठित क्षेत्र में हैं और उनमें से अधिकतर अपनी आजीविका दिहाड़ी से चलाते हैं। इस विनाशक महामारी में सरकार, गरीब कामगार, उद्योग आदि को तात्कालिक राहत देने और देश के विभिन्न भागों में फंसे लोगों को लाने से जूझ रही है। एक माह से अधिक समय के बाद कुछ रेलगाड़ियां चलने लगी हैं। राजमार्गों पर भी बसें दिखने लगी है किंतु ये बसें भी केवल ऐसे फंसे कामगारों और अन्य लोगों को लाने के लिए चलाई जा रही हैं। अपनी दिहाड़ी के बिना ये लोग कब तक रह सकते हैं। आर्थिक पैकेज देने और करोड़ों जनधन खातों में 500-500 रूपए डालने तथा प्रधानमंत्री किसान योजना के अंतर्गत करोड़ों किसानों को प्रति माह 1000 रूपए देने के बावजूद कृषि, कारखानों, बाजारों और मंडियों आदि में सामान्य स्थिति की बहाली के बिना आम आदमी की परेशानियां और बढेंगी ही।
 यदि इस महामारी के चलते अर्थव्यवस्था धराशायी हुई तो गरीब लोगों पर दोहरी मार पड़ेगी। 2007-08 में वित्तीय संकट पैदा हुआ था किंतु इस समय स्वास्थ्य संकट पैदा हुआ है और उसके चलते अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। लोगों की रोजी-रोटी छिनी है, आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई है, विनिर्माण और सेवाएं ठप्प हुई हैं। अब कामगार दूरदराज के स्थानों से अपने घर पहुंच रहे हैं। क्रयादेश के अभाव में व्यापार सिमट सा जाएगा। हवाई सेवा बाधित होने, पर्यटन गतिविधियों के ठप्प होने, मनोरंजन के साधनों के बंद होने, दिवालियापन और गैर-निष्पादित आस्तियों के बढ़ने से परेशानियां और बढ़ गई हैं।
सरकार को अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आर्थिक टीका लगाना पड़ेगा। अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे खोलना और नई स्थिति के साथ समायोजन करना वक्त की मांग है। इस संक्रामक महामारी ने हमें अपने-अपने तक सीमित कर दिया है। प्रत्येक देश अपने संकट के बारे में सोच रहा है। उनमें इसका टीका बनाने की होड़ है। दवाइयों की आपूर्ति के लिए प्रतिस्पर्धा है। सुरक्षा उपकरण, मास्क, गाउन, आदि की खरीद के लिए भी होड़ लगी हुई है और सबसे चिंता की बात यह है कि अभी तक संक्रमित लोगों के जो आंकड़े सामने आ रहे हैं वे पूरे नहीं हैं और यदि ऐसे रोगियों को भी ध्यान में रखा जाए जिनमें लक्षण नहीं दिखायी दे रहे हैं तथा रैपिड टेस्ट कराए जाएं तो आने वाले सप्ताहों में ऐसे रोगियों की संख्या और बढ़ेगी।
यूरोपीय रोग निवारण और नियंत्रण केन्द्र के एक महामारी विशेषज्ञ के अनुसार लॉकडाउन की नीति साक्ष्यों पर आधारित नहीं है। इसका सही तरीका बुजुर्ग और कमजोर लोगों की सुरक्षा करनी है और इससे और लोग भी सुरक्षित रह पाएंगे। समुदायों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना अत्यावश्यक है। तथापि कुछ डाक्टरों को आशंका है कि लॉकडाउन को समाप्त करने के बाद संक्रमण बढ़ेगा किंतु लॉकडाउन एक स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। हमें समाज और समुदायों की प्रतिरोधक क्षमता पर ध्यान देना होगा और यही इसका एकमात्र उपाय है। वर्ष 2009 में भी एच1एन1 महामारी फैली थी और दो तीन महीने बाद समाप्त भी हो गयी थी। इसका कारण यह था कि उस समय लोगों में विषाणु के प्रति प्रतिरोधक क्षमता थी।
अब तक भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों के समन्वित प्रयासों, जनता में जागरूकता, फार्मा उद्योग क्षमता और एक केन्द्रीय राजनीतिक कमान के कारण इस महामारी को नियंत्रण करने मे सफलता मिली है। तथापि इस महामारी के कारण मौतें बढ़ सकती हैं और अस्थिरता पैदा हो सकती है। हम भी दक्षिण कोरिया और ताईवान से सबक ले सकते हैं जिन्होंने इस महामारी के विनाशक प्रभाव को रैपिड टेस्ट और लक्षित उपायों से कम किया है। वियतनाम में अब तक इस महामारी से एक भी मौत नहीं हुई है। चीन ने आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस मशीन लर्निंग, डिजिटल प्रौद्योगिकी का उपयोग महानगरों में इस महामारी के प्रसार को रोकने के लिए किया है।
नि:संदेह इस महामारी के बाद एक नए मानव का जन्म होगा। उसका दैनिक व्यवहार, आदतें, सोच और भावनाएं महामारी के पहले के व्यक्ति से अलग होंगी। वह सामाजिक प्राणी से बदलकर बाहर जाने के लिए डरेगा। सामाजिक रूप से अलग रहने और सोशल डिस्टेंसिंग तथा घर से काम करने पर बल दिया जाएगा। डिजिटल करेंसी, आनलाइन शॉपिंग, गेमिंग आदि के टीवी दर्शक बढ़ेंगे और हवाई यात्रा फिर से बड़ी विलासिता बनने वाली है। साथ ही लॉकडाउन हटाने या प्रतिबंधों को कम करने से कोरोना महामारी से पहले जैसी साामान्य स्थिति बहाल नहीं होगी। यह एक नई शुरूआत होगी जिसमें विषाणु के जोखिम को कम से कम करने का प्रयास किया जाएगा।
महामारी का भय खतरनाक है इसलिए समय आ गया है कि चिकित्सा आपातकाल लगाया जाए। हमारा भविष्य बार-बार लॉकडाउन और फिर सब कामों को डिजिटल करने पर निर्भर करेगा। साथ ही महामारी का पता लगाने और उस पर नियंत्रण करने पर निगरानी रखनी होगी और परीक्षण करने होंगे। संकट के समय पर ओरवेलियन भावना के बजाय एकजुट रहने की आवश्यकता है। हमें ज्ञात तथ्यों के बारे में तार्किक दृष्टिकोण अपनाकर कार्य करना होगा। हमारी आशंकाओं को लॉकआउट करने और उन्हें दूर करने का समय आ गया है। इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है और इसके लिए हमें प्रभावी, भावनात्मक इंटेलीजेंस और देखभाल की आवश्यकता है।
पूनम आई कौशिश

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