भाजपा दिल्ली का विधानसभा चुनाव तीसरी बार भी बुुरी तरह से हार गई है। इस चुनाव ने भाजपा को एक तरह से कांग्रेस की कतार में खड़ा कर दिया है। दिल्ली में भाजपा ने अपने पुराने व स्थानीय नेताओं विजय गोयल, डॉ. हर्षवर्धन, मिनाक्षी लेखी को छोड़कर पूर्व से आए मनोज तिवारी के भरोसे रखा नतीजा सामने है। केन्द्र की सता में बैठकर बीजेपी अपने स्थानीय नेताओं (Leaders) को दरकिनार कर गई या उन लोगों को दरकिनार कर रही है, जो भाजपा को गांवों-शहरों से प्रचंड बहुमत दिलाते हैं। उनकी जगह नये-नये चेहरे आगे किए जाते हैं, जो महज सरकार के साथ चमकते हैं, जिन्हें जमीनी स्तर पर कोई पहचानता नहीं या फिर बीजेपी उन नेताओं को भी नहीं छोड़ रही जिनपर उनके अपने प्रदेश के लोग भी भरोसा नहीं करते। तभी झारखंड में से रघुवर दास, महाराष्ट्र से फड़णवीस को लोगों ने चलता किया है।
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में जनता स्थानीय नेताओं के साथियों के भ्रष्टाचार से त्रस्त थी। संगठन, सरकार, टिकिट, कारोबार सब जगह ये लोग हावी थे, जनता ने कहा भगाओ इन्हें। भाजपा का मेहनती कार्यकर्त्ता भी चुप रहा कि जनता जो कर रही है करने दो अन्यथा वह अपने नेताओं के लिए दिन-रात दौड़ता है। केन्द्र में जो टीम है वह भी दो बातों के आसपास ही सिमट गई है, जिनमें राष्ट्रवाद , अल्पसंख्यक राजनीति के सिवाय अन्य मुद्दों की कहीं कोई समझ दिखाई नहीं पड़ रही। राष्ट्रवाद व साम्प्रदायवाद आखिर कब तक साथ देगा? खासकर तब तो बिल्कुल भी साथ नहीं देगा जब प्रदेशों में जनता सरकारी भ्रष्टाचार से कुचली जा रही है। भ्रष्टाचार पर जीरों टोलरेंस की दुहाई बहुत है परंतु अफसरी-कर्मचारी वर्ग में मानों कोई भय ही नहीं है, फिर क्यों कोई भाजपा को वोट देगा? पिछले दिनों सब्जी में प्याज से उपभोक्ता जो रोये हैं, वह वही जानते हैं। अभी रसोई गैस में जो आग लगी है, वह क्या दिल्ली चुनाव तक ही रोक कर रखी गई थी?
आमजन की धारणा में अब भाजपा एवं कांग्रेस में कोई फर्क नहीं दिख रहा। यहां फर्क दिखा वहांं केजरीवाल को भाजपा के प्रचण्ड प्रचार के बाद भी जनता ने तीसरी दफा सत्ता दे दी है। भाजपा के पास अभी नेहरू व वामपंथ को कोसने का राग है, जिसे वह धारा 370 हटाने, नागरिकता संशोधन बिल से लेकर हर उस मामले में छेड़ लेती है, यहां जनता के सवालों का जवाब भाजपा के पास नहीं होता। भाजपा को अपने वैचारिक संस्थानों को व्यवहारिक कसौटियों पर तराशना होगा जो कि वह कर नहीं सकी। जबकि उसे केन्द्र में सरकार चलाते हुए भी 6 साल होने को हैं। अब वह दौर जा रहा है जब नेता कुछ भी करते थे, फिर भी नेता रहते थे, अब नेताओं को जनता की सुननी होगी अन्यथा जनता नहीं सुनने वाली।
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